वैज्ञानिक अध्यात्म के क्रान्ति दीप

सृजन संवेदना से ओत- प्रोत हो विज्ञान

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          वैज्ञानिक ऋषि- आइन्स्टीन सांझ होने के कुछ देर पहले से उदास बैठे थे। उनकी आँखें छलछलायी हुई थी। चेहरे पर पीड़ा की छाया स्पष्ट थी। वह धीरे से कुर्सी से उठे और कमरे की खिड़की के पास आकर बाहर की ओर देखा, सांझ का सूरज सम्भवतः अभी कुछ ही देर पहले अस्त हुआ था। आकाश में चहुँ ओर रक्ताभ लालिमा फैली हुई थी। यह देखकर उन्हें लगा जैसे कि सूर्य अस्त नहीं हुआ, मानवता अस्त हुई है। और आकाश में फैली हुई रक्ताभ लालिमा मानवता का लाल खून है, जो धरती पर न समा सकने के कारण आकाश में जाकर फैल गया है। बड़े थके हुए कदमों से वह वापस अपनी कुर्सी की ओर आए और बैठ गए। सामने के कलैण्डर पर नजर डाली। सन् १९४५ ई. के अगस्त महीने की नौ तारीख थी। तीन दिन पहले छः तारीख को भी उन्हें ऐसा ही अनुभव हुआ था, जैसे कि किसी ने उनके कलेजे को चीर दिया हो। उस दिन उन्हें बड़ा गहरा दर्द और तीव्र छटपटाहट अनुभव हुई थी। जब उन्होंने रेडियो समाचार में यह सुना कि अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा शहर पर परमाणु बम गिरा दिया।

            और आज तीन दिन बाद फिर से नागासाकी शहर पर परमाणु बम फेंका गया। इन भयावह आक्रमणों से तीन दिन में ही लाखों लोग मारे गए। सुना गया है कि इन परमाणु विस्फोटों से जो महाविनाशक ऊर्जा फैली उसने मौत का ऐसा महाताण्डव किया कि अब तक की सारी क्रूरताएँ कांप गयी। अब तक हुई सारी विनाशलीलाएँ दहशत से दुबक गयीं। परमाणु ऊर्जा की महाज्वालाओं से मकान- वस्तुएँ फटने- पिघलने लगे। भयावह गर्मी से भयभीत लोगों ने नदियों- तालाबों की शरण ली, परन्तु वहाँ का पानी भी बुरी तरह खौल रहा था। सो यहाँ कूदने वाले लोग भी उबलने लगे। पानी में रहने वाले जन्तु तो वहाँ पहले से उबल रहे थे। निरपराध पशु, हरे- भरे वृक्ष, जीवनदायी औषधीय पादप, सुगन्धित फूलों से लदे पौधे जहाँ के तहाँ जल- भुनकर राख का ढेर बन गए। समस्त जीवन को राख के ढेर में बदलकर इस परमाणु ऊर्जा का कोप शान्त नहीं हुआ है, बल्कि यह वहाँ के वातावरण के कण- कण में ऐसी फैल चुकी है कि आने वाले सैकड़ों सालों तक इसके विनाशक प्रभाव सामने आते रहेंगे।

           इससे प्राणियों एवं वनस्पतियों के अनुवांशिक गुणों में ऐसी विकृति आएगी, जो आने वाली अनेकों पीढ़ियों में विकलांगता एवं रूग्णता का विष प्रकट करती रहेगी। परमाणु हमलों की जो खबरें आ रही थी, एक के बाद एक उनका जो सच लगातार सामने आ रहा था, उसे सुनकर सोचकर आइन्स्टीन की पीड़ा- विकलता एवं बेचैनी बढ़ती जा रही थी। इसकी तीव्रता को वह सहन नहीं कर सके और अपने मन के बहाव की दिशा बदलने के लिए उन्होंने पास में रखी वायलिन उठा ली। उसे बजाते हुए यह कोशिश करने लगे कि उसके दर्दीले स्वरों में अपने मन का दर्द घोल सके। परन्तु इसमें उन्हें सफलता न मिली। उनका अस्तित्त्व वैसा ही अंगारों में सुलगता रहा, हृदय में पीड़ा का महासागर वैसा ही उफनता रहा और आँखों से आँसू वैसे ही छलकते- बरसते रहे। अब तक रात घिर आयी थी। उनकी पत्नी एल्जा एवं बेटियाँ उन्हें खाने के लिए बुलाने आयी। इन सबने उन्हें समझाने की बहुतेरे कोशिश की, कि चलकर कुछ खा लीजिए। पिछले चार दिनों से कुछ खाया नहीं है। पर उन्होंने रूंधे हुए गले से केवल इतना ही कहा- मुझसे खाया न जा सकेगा।

         रात में भी उन्हें नींद न आ सकी। वह लेटे हुए सोचते रहे कि कुछ साल पहले १९३९ ई. में उन्होंने ही अमेरिकी राष्ट्रपति रूज़वेल्ट का ध्यान परमाणु बम के निर्माण की ओर आकर्षित किया था। उन्होंने सोचा था कि इससे जर्मनी के तानाशाह हिटलर को डराया जा सकेगा, उसकी विनाशक- हिंसक गतिविधियों पर रोक लगेगी। पर ऐसा न हो सका। राष्ट्रपति रूज़वेल्ट ने उन्हें धोखे में रखा, उनसे झूठे वायदे किए। और उन्हीं के द्वारा अन्वेषित ऊर्जा सिद्धान्त e=mc2 का गलत इस्तेमाल करके परमाणु बम का विनाशक प्रयोग कर डाला। उनके इस काम ने विज्ञान, वैज्ञानिकता एवं वैज्ञानिकों को मानवता का हत्यारा बना दिया। वह देर तक यही सब सोचते रहे। उन्हें मुश्किल से थोड़ी देर के लिए नींद आयी। सुबह जब वह सूर्योदय से कुछ समय पहले सोकर उठे तो उनके अन्तर्मन में भी नया सूर्योदय हो रहा था। परमाणु विभीषिका ने उनके हृदय को परिवर्तित कर दिया था।

अगले दिन उन्होंने सरकार की विज्ञान नीति एवं सरकारी वैज्ञानिक संस्थाओं से स्वयं को अलग करने का निश्चय किया। इसी के साथ उन्होंने बच्चों, किशोरों एवं युवाओं के लिए एक शिक्षण संस्थान खोलने का निश्चय किया। एक ऐसा शिक्षण संस्थान जहाँ विज्ञान के साथ अध्यात्म भी अनिवार्य रूप से बताया- सिखाया जाय।

          इसके उद्घाटन के अवसर पर उन्होंने महान् विचारक बर्ट्रेण्ड रसेल एवं अल्बर्ट श्वाइत्ज़र को आमंत्रित किया। इन दोनों विभूतियों के साथ दस अन्य महान् वैज्ञानिक भी पधारे। इन सभी वैज्ञानिकों में प्रायः सभी को किसी न किसी विषय पर प्रतिष्ठित नोबुल पुरस्कार मिल चुका था। सबने आज आइन्सटाइन को सर्वथा नए रूप में देखा, जो एक महान् वैज्ञानिक से कहीं अधिक महान् ऋषि लग रहे थे। उन्होंने इस शिक्षण संस्थान का उद्घाटन महात्मा गांधी के बड़े से चित्र पर माल्यार्पण करते हुए किया। ऐसा करते हुए वह भावुक हो उठे और रूंधे गले से कहा- मैं नमन करता हूँ इन महामानव को, जिन्होंने अपनी मातृभूमि की आजादी के लिए विश्व में पहली बार अहिंसात्मक आन्दोलन का प्रवर्तन किया। वह ऐसा इसलिए कर सके क्योंकि वह सही मायने में सच्चे इन्सान और सच्चे अध्यात्मवेत्ता हैं।

       आज के विज्ञान को भी अध्यात्म का सहचर्य चाहिए। विज्ञान एवं वैज्ञानिक शक्ति एवं साधन जुटाते हैं, उनका उपयोग सकारात्मक एवं सृजनात्मक हो, ऐसा तभी सम्भव है जब विज्ञान अध्यात्म की सृजन संवेदना से ओत- प्रोत हो। इसलिए यह आवश्यक है कि जिन्हें विज्ञान पढ़ाया जा रहा है, उन्हें अध्यात्म की भी व्यावहारिक समझ कराई जाय। विज्ञान एवं अध्यात्म के समन्वय के बिना विनाश लीलाएँ नहीं रोकी जा सकती। इस शिक्षण संस्थान की स्थापना के कुछ वर्षों बाद जब जापान का एक शिष्ट मण्डल उनसे मिलने आया तो वे फूट- फूट कर रो पड़े। और बड़ी व्यथा के साथ उन्होंने उनसे कहा- मैं आप लोगों का अपराधी हूँ, मुझे जो चाहें सजा दें। हालांकि मेरा यह अटल निश्चय है कि मैं अपने जीवन को प्रायश्चित्त में लगाऊँगा। जापान से आए हुए लोग उनकी इस विनम्रता को देखकर अपना दुःख भूल गए।

        सन् १९५५ ई. में अपनी मृत्यु से कुछ दिन पूर्व उन्होंने बर्ट्रेण्ड रसेल एवं अल्बर्ट श्वाइत्ज़र के साथ रसेल- आइन्सटाइन मेनिफेस्टो पर हस्ताक्षर किए। इस मेनिफेस्टो में ग्यारह अन्य नाभिकीय वैज्ञानिकों ने भी हस्ताक्षर किए थे। इस मेनिफेस्टो का मकसद यही था कि विश्व को परमाणु- महाविनाश से सजग किया जा सके, बचाया जा सके। विश्व के लोग परमाणु ऊर्जा के शान्तिपूर्ण उपयोग के बारे में जान सकें, सीख सकें। वह महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानते थे। उन्होंने अमेरिका में तत्कालीन भारतीय राजदूत गगन बिहारी मेहता से कहा था- मेरी तुलना उस महान् व्यक्ति से न करो, जिन्होंने मानव जाति के लिए बहुत कुछ किया है। उन्हें भारत देश से बहुत आशाएँ थी। यदा- कदा वह कहते थे कि भारत की धरती ही सम्भवतः विज्ञान व अध्यात्म के समन्वय को भविष्य में सिद्ध कर सके। उनकी इसी सोच से प्रेरित होकर महान् वैज्ञानिक वारनर हाइज़ेनवर्ग भारत आए थे। 
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