वैज्ञानिक अध्यात्म के क्रान्ति दीप

वेदान्त से दिशा मिली आधुनिक भौतिकी को

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        अध्यात्मवेत्ता वैज्ञानिक वारनर हाइज़ेनवर्ग शान्ति निकेतन आकर उल्लसित- उत्साहित थे। उन्होंने जर्मनी में रहते हुए भारत के बारे में काफी कुछ पढ़ा- सुना था। वेदमन्त्रों, वैदिक ऋषियों एवं ऋषि आश्रमों के बारे में उनने अनेकों कथा- गाथाएँ सुनी थी। जर्मनी के महाकवि गेटे उन्हें सर्वाधिक प्रिय थे। इनकी महाकवि कालिदास की काव्य रचना अभिज्ञान शाकुंतलम् का जर्मन काव्यानुवाद उनने कई बार पढ़ा था। इसकी अनेकों पंक्तियाँ उन्हें कण्ठस्थ थी। ऋषिकण्व, उनका आश्रम, आश्रम के नैसर्गिक सौन्दर्य का काव्य चित्रण उनको सदा ही रोमांचित- पुलकित करता था। आज शान्ति निकेतन आकर वह अपने पढ़े हुए सब कुछ को साकार- साक्षात् अनुभव कर रहे थे। शान्ति निकेतन की हरीतिमा, हरे- भरे सजीले युवाओं की तरह खड़े वृक्ष, उनसे  करती स्नेहालिंगन लताएँ। चहुँ ओर विविध रंगों की छटा एवं सम्मोहक सुरभि बिखेरते वीरूध। यह सब कुछ ऐसा था, जैसे कि ममतामयी प्रकृति ने मानव जीवन पर दुलार करके अपने आंचल का एक कोना उसके लिए बिछा दिया हो।

          शान्ति निकेतन पहली नजर में हाइज़ेनवर्ग को बहुत भाया, बहुत ही भाया। यहाँ  सब ओर देखकर, सब तरफ घूम कर उन्हें ऐसा लगा कि यह सम्पूर्ण आश्रम विश्वकविरवीन्द्रनाथ टैगोर की ऐसी सुन्दर कविता है- जिसमें वेदयुग, वेदमन्त्र, वैदिक ऋषि एवं ऋषि आश्रम सब एक साथ साकार हो उठे हैं। उन्होंने विश्वकवि के विचारों- भावों की कोख से निकलकर शब्द रूप नहीं वस्तु रूप धारण कर लिया है। और सम्पूर्ण मानवता के लिए अपने हृदय में स्नेह व प्रेम की अनन्त अनन्त धाराएँ समेटे हुए विश्वकवि उन्हें महाकवि गेटे, महाकवि कालिदास, ऋषिकण्व इन सबका समवेत स्वरूप लगे। उन्हें देखना, उनसे बातें करना, उनके पास बैठना युवा हाइज़ेनवर्ग के लिए कल्पना लोक के साकार होने जैसा  था। पिछले नौ सालों से जब से उन्होंने अपने साथी वैज्ञानिकों के साथ परमाणु भौतिकी पर अनुसन्धान करना शुरू किया था, लगभग तभी से या उसके कुछ दिन बाद से ही वह रवीन्द्रनाथ टैगोर को पत्र लिख रहे थे।

         सन् १९२० ई. में हाइज़ेनवर्ग ने डेनमार्क के नीलबोर, फ्रांस के लुइस  बोगली, आस्ट्रिया के इरविन श्रोडिंगर एवं वोल्फगैंग पाउली एवं इंग्लैण्ड के पॉल डिरेक के साथ पदार्थ के कण की प्रकृति पर शोध कार्य करना शुरू किया था। पदार्थ का सबसे छोटा कण अणु या परमाणु है यह मिथक तो कब का टूट चुका था। अब तो इलेक्ट्रॉनप्रोट्रॉनन्यूट्रॉन से भी बात आगे निकल चुकी थी। वाईज़ॉनमीसॉनटेक्यॉन और भी इन छोटे- छोटे कणों के बीस साथी- सहचर खोजे जाने के बावजूद अभी तक यह अनिश्चित ही था कि पदार्थ का सबसे छोटा कण आखिर क्या है या फिर है भी अथवा नहीं। ये सभी वैज्ञानिक अपनी राष्ट्रीय एवं राष्ट्र की राजनयिक- राजनैतिक क्षुद्र सीमाओं को दरकिनार कर ज्ञान की अनन्तता में एक दूसरे से निरन्तर सम्पर्क में रहते थे।

       अपने अनुसन्धान कार्य को करते हुए एक अवसर पर इन सबको लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि पदार्थ अपने मूल रूप में कुछ है ही नहीं। क्योंकि कणों के कम्पन का अध्ययन करते हुए इन्हें पता चला कि कणों की वास्तविकता तो ऊर्जा की तरंग है। इस असलियत को जानकर ये सब कण की बातें छोड़कर तरंग यांत्रिकी या वेव्स मैकेनिक्स का  अध्ययन करने लगे थे। अध्ययन के इस मोड़ पर हाइज़ेनवर्ग को भारत एवं भारतीय ऋषियों का दर्शन बहुत याद आया। वैसे इस कार्य को करते हुए उन्हें लगातार नौ वर्ष हो चुके थे। महाकवि टैगोर से उनका पत्र सम्पर्क था ही। सो उन्होंने सन् १९२९ ई. में भारत आने की ठान ली। और आज हल्की- हल्की सर्दियों के मौसम में वह शान्ति निकेतन में थे। यहाँ आकर रवीन्द्र बाबू को उन्होंने अपने और अपने साथी सदस्यों के अनुसन्धान कार्य के बारे में विस्तार से बताया। फिर तनिक निराशाजनक स्वर में बोले- पदार्थ के सबसे छोटे कण की खोज करते- करते अब तो ऐसा अनुभव होता है कि पदार्थ की कल्पना ही झूठ है।

        पदार्थ के सभी नाम- रूप मिथ्या हैं। तब फिर सच क्या है? उत्तर में विश्वकवि ने अद्वैत वेदान्त के महान् आचार्य आदिगुरु शंकराचार्य के ग्रन्थ विवेकचूड़ामणि का एक श्लोक मधुर स्वर में उच्चारित      

किया- यदिदं सकलं विश्वम् नानारूपम् प्रतीतयज्ञानात्। तत्सर्वं ब्रह्मैवप्रत्यस्ताशेषभावनादोषम्। यह सम्पूर्ण विश्व जो अज्ञान से नाना रूप व नाम वाला प्रतीत होता है। दरअसल वह समस्त भावनाओं के दोषों से रहित ब्रह्म ही है। इसी के साथविश्वकवि ने उन्हें वेदान्त दर्शन के मूल मर्म को उसके सार को समझाया- पदार्थ और उसके समस्त स्वरूप मिथ्या हैं। यहाँ तक कि ऊर्जा जो कि पदार्थ का सूक्ष्म स्वरूप है इसके भेद भी असत्य है। सच तो यह है कि सारे भेद वे पदार्थ के हों या प्रकृति के विविध रूपों के सारे के सारे मायिक छलना है। जो सत्य है वह अभेद है, वह ब्रह्म है। वही निश्चित  है, बाकी सब अनिश्चित।

        वेदान्त का यह विचार, आचार्य शंकर का यह अनुभव हाइज़ेनवर्ग को गहरे में समझ में आया। वह कई दिनों तक रवीन्द्रबाबू से वेदान्त के अद्वैत सत्य पर विचार विमर्श  करते रहे। इसी बीच विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इस युग में वेदान्त के नव्य रूप को स्थापित करने वाले स्वामी विवेकानन्द के बारे में बताया। उन्हें वे सभी स्थान स्वयं चलकर दिखाए जो उनसे सम्बन्धित थे। दक्षिणेश्वर का वह कक्ष जहाँ वह अपने गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस देव का उपदेश सुनते थे। फिर वह उन्हें ले गए श्रीरामकृष्ण संघ के मुख्य केन्द्र बेलूड़ मठ, जिसकी स्थापना उन्होंने अद्वैत वेदान्त के युगतीर्थ के रूप में की थी। यहाँ पर उन्होंने विवेकानन्द की एक उक्ति को उदधृत करते हुए कहा- भेद सभी मिथ्या है, वे सामाजिक हो या जैविक अथवा प्राकृतिक। अभेद ही सत्य है और वह ब्रह्म है।

      यह ब्रह्म क्या है? युवा हाइज़ेनवर्ग ने गहरी जिज्ञासा के साथ पूछा। उत्तर में विश्वकवि  ने बेलूड़ मठ में ही गंगा के किनारे खड़े होकर गंगा के नानारूप और आकार वाले जलकणों  व जलर्मियों के समस्त काल्पनिक भेदों को समाप्त करने वाली विशाल जलराशि को दिखाते हुए उनसे कहा- निरस्तमायाकृतसर्वभेदं, नित्यं सुखं निष्कलमप्रमेयम्।        अरूपमव्यक्तमनाख्यमव्ययं, ज्योतिः स्वयं किञ्चितदिदं चकास्ति। ‘‘वह समस्त काल्पनिक भेदों से रहित है। नित्य, सुख स्वरूप, कलारहित और प्रमाणादि का अविषयहै। वह कोई अरूप, अव्यक्त, अनाम और अक्षय तेज है, जो स्वयं ही प्रकाशित हो रहा है।’’  आचार्य शंकर के इस अनुभव श्लोक को विश्वकवि की मधुरवाणी से सुनकर हाइज़ेनवर्ग को अपने अनुसन्धान की नयी दिशा मिली। उन्होंने भारत से वापस लौटकर यहाँ के अद्वैत वेदान्त से प्रभावित होकर अनिश्चितता के सिद्धान्त (Principle of uncertainty) का  प्रतिपादन किया। बाद के अनेकों वर्ष बीत जाने पर जब ११ अप्रैल १९७२ को जर्मनी के म्यूनिख शहर में प्रसिद्ध भौतिकविद् फ्रिटजॉफ काप्रा उनसे मिलने आये, तो हाइज़ेनवर्ग ने उन्हें अपने कई संस्मरण सुनाए। और उनसे कहा कि भारत देश द्वारा प्रवॢतत अध्यात्म का  वैज्ञानिक अध्ययन आज के युग की आवश्यकता है।

        उनकी यह प्रेरणा ही भौतिक शास्त्र के वैज्ञानिक फ्रिटजॉफ काप्रा की कालजयी रचना ‘‘द ताओ ऑफ फिजिक्स’’ की रचना का आधार बनी। इसी के सिलसिले में काप्रा दिसम्बर १९७४ में हाइज़नेवर्ग से दुबारा मिले। और अपनी इस पुस्तक की पाण्डुलिपी उन्हें  दिखाई। इसे देखकर वह बेहद हर्षित हुए और बोले अध्यात्म के वैज्ञानिक अध्ययन एवं प्रतिपादन का कार्य आखिर शुरू हो ही गया। इसके पश्चात् नवम्बर १९७५ में फ्रिटजॉफकाप्रा ने उन्हें प्रकाशित हो चुकी ताओ ऑफ फिजिक्स की पहली प्रति भेजी। इसे उन्होंने पढ़ा अवश्य, पर इस पर वह अपनी टिप्पणी न लिख सके, क्योंकि इसके पहले ही उनका देहावसान हो गया। मृत्यु से कुछ दिनों पूर्व उन्होंने अपने मित्र से कहा था- विश्व के वैज्ञानिकों को भारत के अध्यात्मवेत्ताओं को विशेषतः स्वामी विवेकानन्द को पढ़ना चाहिए। वह भारत के ऐसे वैज्ञानिक ऋषि हैं, जिनके विचार आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान  का आधार बन सकते हैं। 
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