आध्यात्मिक जीवन में अनगिन सफल वैज्ञानिक प्रयोग करने वाले मह्रर्षि अरविन्द पाण्डिचेरी आश्रम के अपने हॉलनुमा कक्ष में सोफे पर एकाकी बैठे थे। उनकी आँखें मुंदी हुई थी, सिर सोफे से टिका हुआ था। पाँव तनिक आगे की ओर आरामदायक स्थिति में थे। स्वर्णिम
आभा लिए उनके सिर और दाढ़ी के श्वेत केश यदा- कदा हवा में
हल्के से लहरा उठते थे। उनके मुख पर हल्के स्निग्ध श्वेत- स्वर्णिम
प्रकाश की प्रशान्त दीप्ति थी। सम्भवतः यह चेतना के किसी उच्चतर
प्रकाश लोक से उन पर बरस रही थी। वह देर तक इसी अवस्था में
बैठे रहे। फिर उन्होंने धीरे से आँखें खोली। द्वार पर चम्पकलाल थे, जो शायद इसी प्रतीक्षा में थे कि वह कब नेत्र खोलें और वह अन्दर आएँ। चम्पकलाल के अन्दर आने पर वह हौले से मुस्करा दिए। उनकी यह मुस्कान जैसे दैवी प्रेम, अनन्त करूणा एवं अपरिमित आशीष का अजस्र निर्झर थी।
चम्पकलाल को अनायास ही इसमें स्नान का अवसर मिला। सांझ
ढलने लगी थी। इस कक्ष में और कक्ष से बाहर इसका अहसास होने
लगा था। सूर्यदेव पूर्व की ओर से प्रकाश बटोर कर उसे पश्चिम में
बिखेरने के लिए निकल चुके थे। इस सांझ की प्रतीक्षा अनेकों को अनेक तरह से रहती थी। खास तौर पर नीरदबरन, चम्पकलाल, सत्येन्द्र ठाकुर, मूलशंकर, ए.बी. पुराणी और बेचरलाल को। क्योंकि ये सब सांझ
के ध्यान में नियमित रूप से श्री अरविन्द के सान्निध्य से
लाभान्वित होते थे। ध्यान तो खैर थोड़ी देर का होता था, पर इसके
उपरान्त जो चर्चाएँ होती थीं, वे अतीव सुखकारी थी। इन सांध्यवार्ताओं का क्रम लगभग १९२३ ई. से ही था, जो अब तक १९५० ई.
के इस अक्टूबर मास के प्रारम्भ तक भी अनवरत चल रहा था। बस
बदले थे तो केवल पात्र, बाकी सब कुछ लगभग यथावत था। इन वार्ताओं
में श्री अरविन्द के शब्द झरोखों से चेतना के उन्नत व उच्चतर
आयामों का प्रकाश प्रकट होता था।
अक्टूबर महीने में अभी तक पाण्डिचेरी में सर्दी जैसा कुछ नहीं था। सांध्यवार्ताओं में शामिल होने वाले प्रायः सभी एक- एक करके आ चुके थे।
सबसे अन्त में नीरदबरन आए। उनके आते ही सब लोग श्री अरविन्द के चरणों के पास बैठ गए। कुछ देर बात माताजी आयी। कुछ दिनों से वह सांझ
के ध्यान और वार्ताओं में कम ही आती थी। इधर प्रायः थोड़ी
गम्भीर भी रहने लगी थी। पर आज वह अनायास ही आ गयी थीं। उनके
आने के बाद ध्यान का क्रम शुरू हुआ। गहरी नीरवता एवं शान्त निःशब्दता
के साथ श्री अरविन्द के अलौकिक आध्यात्मिक प्रकाश ने सभी को
अन्दर से आपूरित एवं बाहर से आवृत्त कर लिया। देर तक यह स्थिति
बनी रही। फिर मौन के कपाट खुले, नीरवता में शब्दों का संचार
हुआ। प्रारम्भ स्वयं मह्रर्षि
अरविन्द ने किया। उन्होंने कहा कि- मैंने निश्चय किया है कि मैं
सावित्री का कार्य अब शीघ्र ही समाप्त कर दूँ। उनका यह कथन
सुनकर माताजी की चेतना में कुछ तीव्रता से स्पन्दित हुआ, जिसे
उन्होंने बाहर प्रकट नहीं होने दिया।
मह्रर्षि
अरविन्द बड़ौदा के निवास काल से ही अध्यात्म के वैज्ञानिक
प्रयोगों एवं इनके परिणामों को काव्य रूप देने लगे थे। इन्हीं
दिनों सावित्री का नवांकुर फूटा था। जो बाद में अपनी रूपाकृति
पाता गया। इस सम्बन्ध में किसी ने उनसे पूछा था- आखिर इन
आध्यात्मिक प्रयोगों एवं इनके परिणामों को काव्य में कहने की
क्या आवश्यकता है? उत्तर में उन्होंने कहा था कि काव्य में
मन्त्र एवं सूत्र को एक साथ कहने की सुविधा है। काव्य में
अनुभूत सत्य के अनगिन आयामों को एक साथ कहा जा सकता है। इसीलिए
सम्भवतः वेद के ऋषियों ने भी अपने प्रयोगों एवं परिणामों को
इसी रीति से कहा। वेदमन्त्र छन्द में कहे गए, गाए गए। बात सही भी
थी। बड़ौदा के निवास से अब तक तकरीबन ५०
वर्षों का सुदीर्घ समय उन्होंने अध्यात्म विज्ञान के प्रयोगों
में गुजारा था। उन सभी प्रयोगों के शोध निष्कर्ष सावित्री में
कहे जा रहे थे। अनुभूतियों एवं निष्कर्षों के हिसाब से इसे कई
बार संशोधित, परिवर्तित एवं परिवर्धित भी किया गया था।
इसी सावित्री को अन्तिम रूप देने के लिए वह चिन्तित थे। इसके
बारे में उन्होंने कहा था- इसका प्रत्येक शब्द मेरे अध्यात्म
विज्ञान के वैज्ञानिक प्रयोगों की परिणति है। आज जब उन्होंने इस
कार्य को सम्पूर्णता देने की बात कही तो वहाँ बैठे हुए सभी
जनों के मन में अनेकों बिम्ब उभरे। वहाँ बैठे अम्बालाल पुराणी को १९१८
में कहा गया उनका वह वाक्य स्मरण हो आया- भारत की स्वाधीनता
निश्चित हो चुकी है। तुम यहाँ आ जाओ। हतप्रभ पुराणी ने तब उनसे
कई प्रश्र किए थे। और तब उन्होंने उनकी ओर देखते हुए सामने की मेज
पर हल्का सा घूँसा मारते हुए कहा था- विश्वास करो यह उतना ही
निश्चित है जितना कल का सूर्योदय। तब पुराणी जी को समझ में आया
कि भारत देश को यह स्वाधीनता श्री अरविन्द के आध्यात्मिक
प्रयोगों के परिणाम के रूप में मिलने वाली है। सन् १९४७ को उनके जन्मदिवस १५ अगस्त की तिथि ने इसे सत्य प्रमाणित कर दिया।
२० अगस्त १९४०
को उन्होंने हिटलर के आसुरी शक्ति का माध्यम होने की बातें
कही थी। साथ ही यह भी कहा था कि अध्यात्म विज्ञान के उच्चस्तरीय
प्रयोगों के द्वारा हिटलर पराजित होगा। अन्ततः यही हुआ। सन् ४५ की ३० अप्रैल को हिटलर ने आत्महत्या कर ली और १५
अगस्त को जापान ने हथियार डाल दिए। उन्होंने अपने प्रयोगों के
परिणाम स्वरूप यह भी कहा- भारत का भविष्य निश्चित ही उज्ज्वल है।
इसकी आध्यात्मिक शक्ति विश्व नेतृत्व करेगी। ऐसे अनगिन तथ्यों को
यहाँ बैठे सभी जानते थे। फिर भी एक बात थी जो मूलशंकर के मन में आयी और उन्होंने उसे पूछ लिया- सामान्य जीवन में मनुष्य के कष्टों- विषादों का कारण क्या है? ‘‘भगवान् से विमुखता’’ उन्होंने उत्तर दिया। फिर वह बोले- हम स्वयं में गहरे तक धंसे हुए विकारों, विक्षोभों, अंधेरों
को पहले दमित करने का, उन्हें दबाये रखने का प्रयत्न करते हैं।
लेकिन जब उन्हें दबाए रखने की घुटन बर्दाश्त से बाहर हो जाती
है तो फिर बाहर निकाल फेंकते हैं।
दोनों ही अवस्थाओं में हम होते नरपशु ही हैं, जो यदा- कदा
नरकीटक एवं नरपिशाच का रूप ले लेता है। इसका समाधान है
रूपान्तरण। स्वयं की विकृतियों- विक्षोभों के अतल अंधेरों
में उतरकर भगवान् के प्रकाश का आवाहन करना, उसे आमंत्रित करना।
यह कार्य किसी एकान्त गुफा में नहीं करना होता, बल्कि रोज के
सभी कामों में, सभी अवस्थाओं में उन्हें निरन्तर पुकारना होता है।
न घबराना, न पलायन करना है, और न ही पशुता व पैशाचिकता से
समझौता करना है। करना है इसका रूपान्तरण। यही मनुष्य का अन्तिम
समाधान है। इसी के साथ उनके मुख से स्वरचित कविता की कुछ
पंक्तियाँ उच्चारित हुईं-
खोद रहा मैं त्रासभरे इस कीच बीच में
लम्बी गहरी एक डगर
उतरे जिससे स्वर्ण नदी का गीत मनोहर
मृत्युहीन ज्वाला का घर।
इसके पश्चात् उन्होंने कहा- कि किसी व्यक्ति के आध्यात्मिक होने
की कसौटी यह है कि वह अपने सामान्य व्यक्तिगत जीवन में, सामान्य
कार्यों में अध्यात्म के वैज्ञानिक प्रयोग कितनी तत्परता व
तल्लीनता से कर रहा है।