वैज्ञानिक अध्यात्म के क्रान्ति दीप

कैसा होगा मनुष्य जब उसके जीवन में उतरे वैज्ञानिक अध्यात्म

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        व्यक्तिगत जीवन में वैज्ञानिक अध्यात्म के प्रयोग जीवन को सार्थक, सफल एवं सम्पूर्ण बनाते हैं। यह कहते हुए डॉ. राजा रमन्ना कहीं खो से गए। सम्भवतः वह अपनी यादों को अतीत के धुंधलके से निकालकर वर्तमान के उजियारे में लाने की कोशिश कर रहे थे। इस कोशिश में उनके सांवले चेहरे पर स्वाभिमान, प्रतिभा एवं संवेदना की सम्मोहकता और भी गाढ़ी हो गयी। अनगिन युवा उन्हें टकटकी बांधे देख रहे थे, और पूरे ध्यान से उनको सुन रहे थे। यह अवसर युवा यूथ कन्वेन्शन का था, जिसे श्रीरामकृष्ण मठ एवं मिशन ने अपने मुख्यालय बेलुड़ मठ में आयोजित किया था। सन् १९८५ ई. के दिसम्बर महीने में हो रहे इस आयोजन में देश भर के अलग- अलग हिस्सों से अनगिनत युवा प्रतिभागी यहाँ आए हुए थे। इन सभी के अन्तर्भावों को युवा चेतना के शाश्वत प्रेरक स्वामी विवेकानन्द के महान् व्यक्तित्व ने अपने आकर्षण में बांध रखा था।

          इन दिनों पूरे मठ में उत्सव का माहौल था। हर दिन कुछ नया लेकर आता था। हर रात नए जागरण के लिए प्रेरित करती थी। राष्ट्रीय- अन्तर्राष्ट्रीय दुर्लभ विभूतियों का संग- साथ, सान्निध्य- सुपास भला अन्यत्र कहाँ कब सुलभ होता। आज के दिन मंच पर डॉ. रमन्ना आसीन थे। उनके एक ओर ‘द वन्डर दैट वाज़ इण्डिया’ के विश्व विख्यात् लेखक प्रो. ए.एल. बाशम बैठे हुए थे। दूसरी ओर प्रखर अध्यात्मवेत्ता, ‘‘युगनायक स्वामी विवेकानन्द’’ तथा दर्जनों मौलिक व अनूदित पुस्तकों के सुविख्यात् लेखक, चिन्तक स्वामी गम्भीरानन्द महाराज बैठे हुए थे। स्वामी भूतेशानन्द, स्वामी लोकेश्वरानन्द, स्वामी स्मरणानन्द जैसे अन्य वरिष्ठ संन्यासी भी मंच पर आसीन थे। इन सभी की एक साथ मंच पर उपस्थिति युवाओं के चिन्तन एवं चेतना को उत्प्रेरित, उद्दीपित एवं उत्साहित कर रही थी।

         अभी थोड़ी देर पहले उन्होंने प्रो. ए.एल. बाशम को सुना था और अब डॉ. राजा रमन्ना बोल रहे थे, जो इन दिनों भारत के परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष होने के साथ भारत सरकार के वैज्ञानिक सलाहकार भी थे। सन् १९७४ ई. में पोखरण में हुए पहले परमाणु विस्फोट के कर्त्ताधर्ता एवं ‘आप्रेशन स्माइलिंग बुद्ध’ के सूत्र संचालक यही थे। ये परमाणु भौतिकी, रिएक्टर भौतिकी व डिज़ाइन में विशेषज्ञता के साथ संगीत, दर्शन विशेषतया वेदान्त दर्शन के मर्मज्ञ मनीषी थे। वैज्ञानिक अनुसन्धान के साथ नियमित साधना इनका स्वभाव था। युवाओं को सम्बोधित करते हुए वह कह रहे थे- मुझे अध्यात्म का पहला पाठ मेरी विधवा चाची राजम्मा ने पढ़ाया। उन्होंने मुझे बताया कि आध्यात्मिक जीवन के लिए कर्मकाण्ड उतने महत्त्वपूर्ण नहीं, जितना कि महत्त्वपूर्ण संवेदना का परिष्कार है। जिनकी संवेदना परिष्कृत होती है, वे सुख भोगने में नहीं औरों को सुख पहुँचाने में विश्वास करते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने दुःखों का रोना नहीं रोते, बल्कि दूसरों के दुःखों को दूर करने का महापराक्रम करते हैं। मेरी इन्हीं चाची ने रामायण, महाभारत व अन्य पुराणों की कथाओं के साथ भगवान् श्रीरामकृष्ण एवं स्वामी विवेकानन्द की कथाएँ सुनायी।

        अपने न्यायाधीश पिता बी. रमन्ना एवं साहित्य में गहरी अभिरुचि रखने वाली मां रूक्मिनी अम्मा की प्रेरणा से मैं विज्ञान का विद्यार्थी बना। विज्ञान ने मुझे पूर्वाग्रहों से मुक्त किया। विज्ञान ने मुझे सिखाया श्रेष्ठता वही है जो औचित्य एवं उद्देश्यों की प्रायोगिक कसौटी पर खरी साबित हो। इसी तरह सत्य पर किसी मत, किसी पथ अथवा किसी जाति या देश का एकाधिकार नहीं। यह सार्वभौमिक एवं सार्वदेशिक है। अध्यात्म की मूल बातों के साथ ही विज्ञान की ये मूल बातें मेरे अस्तित्त्व में गहरे उतर गयीं। स्वामी जी के व्यक्तित्व से मैंने संगीत प्रेम एवं राष्ट्र प्रेम सीखा। सदा ही मैंने उन्हें मार्गदर्शक के रूप में अनुभव किया। यह उन्हीं का प्रभाव था कि जब मैंने ङ्क्षकग्स कॉलेज लन्दन से अपनी पी- एच.डी. पूरी की, तब मेरी एक चाहत थी कि मैं स्वयं को राष्ट्र की वैज्ञानिक समृद्धि के लिए अॢपत करूँगा। स्वामी जी की शिक्षाओं के प्रभाव से कुछ अंशों में ऐसा कर सका। उपनिषदों का सन्देश है- बलमुपास्व, बल की उपासना करो। इसी से प्रेरित होकर मैंने राष्ट्र को बलशाली बनाने के लिए- देश को परमाणु बल से समृद्ध करने के लिए स्वयं को अर्पित कर दिया।
     
  इतना कहकर वह थोड़ी देर के लिए रुके। उन्होंने अपने पास बैठे स्वामी गम्भीरानन्द जी की ओर देखा और फिर बोले- मेरे विचार से विज्ञान व अध्यात्म की समन्वित आवश्यकता जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में है। व्यक्तिगत जीवन में तो इनका प्रयोग अनिवार्य है। ऐसा होने पर कभी भी सद्गुण एवं सामर्थ्य कम नहीं होती। सद्गुण एवं सामर्थ्य दोनों ही हों तो सेवा व सत्कर्म तो होंगे ही। सेवा एवं सत्कर्म का यह सिलसिला यदि अविराम रहे तो कोई भी जीवन को सार्थक एवं सम्पूर्ण बनने से नहीं रोक सकता। इसी के साथ उन्होंने मंच के सामने बैठे युवा प्रतिभागियों से कहा- आपमें से किसी को कुछ पूछना हो तो, निःसंकोच पूछें। उनके इस कथन पर कुछ देर तो सन्नाटा छाया रहा- कोई कुछ बोला ही नहीं। सम्भवतः पद्मश्री, पद्मभूषण एवं पद्मविभूषण से अलंकृत इन महान् वैज्ञानिक से कुछ पूछने में युवाओं को संकोच हो रहा था।

        फिर भी थोड़ी देर बाद एक युवक ने उनसे धीमे किन्तु दृढ़ स्वर में पूछा- महोदय! यदि व्यक्तिगत जीवन में विज्ञान एवं अध्यात्म दोनों के ही मूलतत्त्व समावेशित हो, तो जिन्दगी में उसका प्रभाव किन रूपों में दिखाई देगा? इस प्रश्र को सुनकर पहले तो उन्होंने प्रश्र एवं प्रश्रकर्त्ता दोनों की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की। फिर वह बोले- इसका पहला प्रभाव यह होगा कि व्यक्ति की सोच, उसके विचार एवं भाव व्यापक होंगे। कोई हठ, आग्रह, मान्यता उसकी विचारशीलता में आड़े न आएगी। दूसरे प्रभाव के रूप में वह अपनी या अपनों की अथवा औरों की क्षुद्रताओं की नहीं, उद्देश्य की श्रेष्ठता की परवाह करेगा। तीसरे प्रभाव के रूप में वह हर व्यक्ति की, हर धर्म की, हर देश की, ज्ञान एवं कर्म के प्रत्येक क्षेत्र की प्रत्येक श्रेष्ठता को उदारतापूर्वक आमंत्रित करना, इसे सम्मानित करना और स्वीकार करना स्वतः सीख जाएगा। चौथे प्रभाव के रूप में वह अपने सम्पूर्ण जीवन को प्रयोगशाला एवं प्रत्येक कर्म को प्रयोग बना लेगा। ऐसे में उसके पास बर्बाद करने के लिए न समय का कोई क्षण होगा और न ही कर्म का कोई क्षण। वह तो बस अपने पूरे जीवन में सत्य, श्रेष्ठता, सार्थकता व सम्पूर्णता का अनुसन्धान करता रहेगा।

         इसके पाँचवे प्रभाव के रूप में उसे वैज्ञानिक- अध्यात्म के समन्वित वरदान के रूप में ऐसी अन्तर्दृष्टि मिलेगी जो कि उसे कहीं, किसी भी अवसर में भटकने, बहकने नहीं देगी। इतना कहकर वह कुछ सोचते हुए बोले- दरअसल यह अन्तर्दृष्टि निर्मल मन की देन है। और निर्मल मन प्राप्त होता है श्रेष्ठ कर्म से। जो वैज्ञानिक अध्यात्म को अपनाने वाले के जीवन की परिभाषा, परिचय व पर्याय बन जाता है। अभी वह इतना ही कह पाए थे कि श्रीरामकृष्ण मठ एवं मिशन के अध्यक्ष स्वामी गम्भीरानन्द जी महाराज ने उनसे कान में कुछ कहा। उन्होंने आँख उठाकर आकाश की ओर निहारा। सांझ ढलने लगी थी, मठ में आरती का समय हो रहा था। थोड़ी ही देर बाद वे मठ के श्रीरामकृष्ण मन्दिर में बैठे वायलन बजाते हुए आरती गा रहे थे- खण्डन भवबन्धन जगवन्दन वन्दि तोमाय। इसी के साथ उनके मन के किसी कोने से यह प्रार्थना भी गूँज रही थी कि हे प्रभु! मेरे देशवासी देश के शिक्षा एवं सामाजिक क्षेत्र में वैज्ञानिक अध्यात्म का उपयोग करने में समर्थ हों, ताकि देश की भवितव्यता संवर सके। 
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