‘वैज्ञानिकों
का अध्यात्म उनमें अनुसन्धान की नयी चेतना विकसित करता है।
आध्यात्मिक पवित्रता के साथ किए जाने वाले वैज्ञानिक प्रयोग आत्म
सन्तोष एवं लोकहित के दोहरे हित पूरा करते हैं।’ इन वाक्यों ने मैक्स प्लैंक को स्वप्नं में भी सचेत एवं सचेष्ट कर दिया। उन्हें लगा ही नहीं कि वह कोई स्वप्र देख रहे हैं। सब कुछ प्रसन्नतादायक एवं होशपूर्ण
लग रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे कि किसी नए आलोक लोक में
पहुँच गए हों। यहाँ सब कुछ प्रकाशपूर्ण था। शीतल व सुखद प्रकाश
सब तरफ फैला हुआ था। प्रत्येक चीज यहाँ प्रकाश किरणों से बनी
थी। सब कुछ अद्भुत एवं आश्चर्यजनक किन्तु अतीव सुखप्रद। यहीं पर
उनने स्वयं को और अपने दादाजी को देखा। वह बड़े प्रसन्न व
प्रेमपूर्ण लग रहे थे। उनकी देह भी श्वेत रंग की प्रकाश किरणों
से बनी व बुनी थी। वे ही उन्हें समझा रहे थे कि वैज्ञानिक होने
का अर्थ यह नहीं है कि आध्यात्मिक भावों से स्वयं को पृथक्
कर लो।
मैक्स
प्लैंक पिछले कुछ दिनों से काफी चिन्तित एवं निराश थे। एक गहरी
थकान ने उन्हें घेर लिया था। उन्हें ऐसा लग रहा था कि किसी
घने काले- भूरे बादल ने उनकी बौद्धिक चेतना को घेर लिया हो। कहीं
कोई मार्ग न तो दिख रहा था और न मिल रहा था। सब कुछ तमसावृत्त
था। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। वह पर्याप्त बुद्धिशाली थे। घर-
परिवार अथवा जीवन की जटिल समस्याएँ हों या फिर भौतिकी व गणितशास्त्र की गूढ़ उलझनें;
सभी का समाधान वह चुटकियों में कर दिया करते थे। बचपन से ही
उन्हें प्रतिभा का दैवी वरदान मिला था। उनकी प्रतिभा को निखारने
में परिवार की पारम्परिक बौद्धिक पृष्ठभूमि भी बहुत काम आयी। उनके
परदादा एवं दादा दोनों ही गाटिन्जेन, जर्मनी में धर्मविज्ञान के प्रोफेसर रहे। पिता जर्मनी के ही केल एवं म्यूनिख शहरों में कानून के प्रोफेसर रहे। उनके चाचा सम्मानित जज थे। उनका स्वयं का जन्म भी केल शहर में हुआ था।
यहाँ उन्होंने काफी समय बिताने के बाद म्यूनिख विश्वविद्यालय से इक्कीस वर्ष की आयु में भौतिक शास्त्र में पी- एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। डाक्टरेट
कर लेने के बाद भी उनकी अनुसन्धान वृत्ति कम नहीं हुई। और
इसके एक साल बाद ही वह अपने मौलिक शोध प्रयासों में लग गए। तब
से अब तक उन्हें शोध कार्य करते हुए लगभग बीस साल होने को आए
थे। परन्तु कोई सार्थक निष्कर्ष नहीं निकल सका था। तर्क व गणित
के समीकरण, प्रयोगशाला के उपकरण मिलकर भी उन्हें कोई सिद्धान्त
संरचना नहीं दे पा रहे थे। उनकी बौद्धिक पारगामिता भी उनको समस्याओं के पार नहीं ले जा पा रही थी। आज तो वह भी सोचने लगे थे कि क्या बीस सालों का श्रम यूं ही निरर्थक चला जाएगा।
दिन ढलते- ढलते वैचारिक द्वन्द्वों ने उन्हें काफी परेशान कर
दिया था। इस परेशानी से निजात पाने के लिए उन्होंने अपने प्रिय
संगीत का सहारा लिया। संगीत का शौक उन्हें बचपन से था। प्यानो,
हारमोनियम तो वह बड़ी कुशलता से बजाते थे। कण्ठ भी उनका मधुर
था। गायन एवं वादन में उनकी इस प्रवीणता को देखकर उनके कई साथी
यह कहने लगे थे कि उन्हें संगीत को ही अपना कैरियर बनाना
चाहिए था। पर उन्हें भौतिक शास्त्र प्रिय था। पदार्थ एवं सृष्टि
की रहस्यमय गुत्थियों को सुलझाने में उन्हें बड़ा आनन्द मिलता था।
उनके दादाजी यदा- कदा उनसे इस अभिरुचि को थोड़ा और परिमार्जित करने को कहते। वह उन्हें समझाते- मैक्स!
सृष्टि- स्रष्टा से अलग नहीं है। स्रष्टा की ऊर्जा से ही सृष्टि
संचालित है। यहाँ तक निर्जीव भौतिक पदार्थों के कणों में भी वह
स्पन्दित है।
दादा जी की इन बातों को उन्होंने कभी बहुत गम्भीरता से नहीं लिया था। पर आज उन्हें अपने दादाजी बहुत याद आए। प्यानों पर जब वह संगीत की धुन बजा रहे थे- तब भी कहीं अन्तर्मन में दादाजी की स्मृतियाँ समस्वरित हो रही थी। उनके पिता जोहन जुलियस विल्हेम प्लैंक बताया करते थे कि मैक्स तुम्हारे दादा जी केवल धर्म विज्ञान पढ़ाते ही नहीं थे, उनका स्वयं का जीवन भी धार्मिक- अनुभूतियों से ओत- प्रोत था। पिताजी की बातें, अपनी स्वयं की यादें और सामने की दीवार पर सुनहरे फ्रेम में मढ़ा हुआ दादा जी का चित्र, इन्हीं को मन में संजाये वह सो गए थे। शयनकाल में उनकी चेतना अनजाने ही अदृश्य से जुड़ गयी थी। स्वप्न
में उन्हें ऐसा लगा- जैसे कि वह अत्यन्त सुरम्य एवं रमणीय
स्थान में प्रकाशपूर्ण लहरों वाली नदी के किनारे हैं। और दादाजी
उनसे कह रहे हैं- मैक्स!
पदार्थ हो या प्रकाश प्रत्येक की वास्तविक प्रकृति ऊर्जा है।
जिस तरह पदार्थ सूक्ष्म कणों से बना है ठीक उसी तरह से प्रकाश
भी सूक्ष्म ऊर्जा कणों से बना है। ये ऊर्जाकण निश्चित क्वांटिटी में प्रवाहित होते रहते हैं।
न जाने क्या था इस स्वप्र में, दादा जी की उपस्थिति और उनकी बातों में, मैक्स प्लैंक की समूची थकान जाती रही। उसकी बौद्धिक चेतना को तमसावृत्त करने वाले घने काले- भूरे बादल छिन्न- भिन्न हो गए। उसने स्वयं के अन्तर्भावों
में एक नए प्रकाश को अवतरित होते हुए अनुभव किया। यह उनकी
चेतना में नया सूर्योदय था। इस सूर्योदय ने उन्हें सूर्योदय के
पहले ही जगा दिया। वह जा पहुँचे अपनी प्रयोगशाला में और कार्य
में जुट गए। जाड़े के दिन थे। सन् १९००
के अक्टूबर का महीना था। कक्ष में अंगीठी जल रही थी। काम करने
वाली टेबल पर प्रकाश भी प्रदीप्त था। उन्होंने उस ओर ध्यान से
देखा और देखते रह गए, सचमुच ही ऊष्मा व प्रकाश- ऊर्जा कणों के
रूप में चहुँ ओर विकरित हो रहा है। ये ऊर्जाकण एक निश्चित क्वांटिटी में बह रहे हैं, बिखर रहे हैं। इसके लिए उनकी अन्तर्चेतना में ध्वनित हुआ ‘क्वान्टा’।
और उसी क्षण ऊर्जा के क्वांटम सिद्धान्त की रचना हुई। मैक्स प्लैंक को स्वप्र
में हुए आध्यात्मिक अनुभव ने सचमुच ही उन्हें अनुसन्धान की नयी
चेतना दी। इस अद्भुत अनुभव को उन्होंने अपने मित्र आटोहॉन एवं लाइस मेटनर को बताते हुए कहा- पदार्थ की भांति ऊर्जाओं के भी सूक्ष्म लोक हैं। दृश्य की ही भांति अदृश्य का भी अस्तित्त्व है। तर्कबुद्धि एवं गणितीय समीकरणों से भी कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण अन्तर्प्रज्ञा
है। यथार्थ बोध यहीं अंकुरित होता है। तर्क से उसकी केवल
अभिव्यक्ति होती है। इस घटना के कुछ वर्षों बाद उन्होंने अपनी जुड़वा बेटियों ईमा एवं ग्रेही को बताते हुए कहा- बेटी! तुम्हारे परदादा एवं मेरे दादा जी से मेरा अदृश्य सम्पर्क प्रायः बना रहता है।
सन् १९१९
में जब उन्हें अपने शोधकार्य के लिए नोबुल पुरस्कार मिला।
उन्होंने उस अवसर पर कहा- वैज्ञानिक प्रयोगों के साथ आध्यात्मिक
पवित्रता का जुड़े रहना अनिवार्य है। इसी के साथ उन्होंने यह भी
कहा- ‘‘विज्ञान
यदि मानवता के अहित की दिशा में अपने कदम बढ़ाता है तो वह
विज्ञान ही नहीं है। विज्ञान हमेशा लोकहितकारी बना रहे, इसके लिए
उसे आध्यात्मिक संवेदनों से स्पन्दित होना चाहिए। यही तो वैज्ञानिक
अध्यात्म है, जिसके ऐतिहासिक परिदृश्य पर विचार किया जाना चाहिए।’’