‘वैज्ञानिक अध्यात्म का मूलमंत्र- गायत्री है। इसमें वैज्ञानिक अध्यात्म की सिद्धान्त- संरचना एवं इसकी प्रयोग विधि दोनों का समावेश है।’ यह कहते हुए युगऋषि आचार्य श्री ने वहाँ उपस्थित लोगों की ओर देखा। उनकी दृष्टि में क्रान्तिदर्शी
प्रतिभा की प्रखरता एवं आत्मीय भावों की सजलता दोनों का समावेश
था। यह बुद्धिजीवियों की संगोष्ठी थी। इसमें तकरीबन डेढ़ सौ लोग
उपस्थित रहे होंगे। इसे रायपुर के कार्यकर्त्ताओं
ने रविशंकर विश्वविद्यालय में आयोजित किया था। रायपुर- शहर आज
छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी है। उन दिनों यह सम्पूर्ण क्षेत्र
अविभाजित मध्यप्रदेश का हिस्सा था। यूं
तो सम्पूर्ण देश एवं समूची विश्व मानवता युगऋषि परम पूज्य
गुरुदेव के लिए उनकी अपनी थी। परन्तु फिर भी छत्तीसगढ़ क्षेत्र
उनके लिए कुछ विशेष था। यदा- कदा वे अपनी अन्तरंग चर्चाओं में
कहा करते थे कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को सबसे अधिक प्रेम
एवं अपनापन इसी दण्डकारण्य क्षेत्र के निवासियों ने दिया था। आज
पुनः इस युग में भी श्रीराम इस सम्पूर्ण क्षेत्र के लोगों को
अपने हृदय के नजदीक अनुभव करते थे।
जब कभी वह उन्हें बुलाते, वह छत्तीसगढ़ अवश्य जाते। अब की बार इस वर्ष सन् १९६८ ई. की सर्दियों
में रायपुर और आस- पास के लोगों ने बुद्धिजीवियों की विशेष
संगोष्ठी का आयोजन वहीं के विश्वविद्यालय परिसर में किया था। इस
आयोजन में उन्होंने रामकृष्ण मिशन- स्वामी विवेकानन्द आश्रम- रायपुर
के अध्यक्ष स्वामी आत्मानन्द जी को बुलाया था। स्वामी आत्मानन्द
जी युगऋषि गुरुदेव को बहुत प्रिय थे। जब कभी भी उनका रायपुर
क्षेत्र में आना होता, वह उनसे अवश्य मिलते। आत्मानन्द जी भी उनके
आमंत्रण पर एक- दो बार गायत्री तपोभूमि मथुरा पधार चुके थे।
आत्मानन्द छत्तीसगढ़ के मूल निवासी थे। उनका जन्म मांढर से १ मील दूर बरबंदा गांव में हुआ था। हालांकि वह रायपुर जिले के कपसदा गांव
में ज्यादातर रहे। उच्च शिक्षा उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय में
पायी। महत्त्वपूर्ण बात उनके बारे में यह थी कि उन्होंने एम.एस- सी. एवं आई.ए.एस.
दोनों ही परीक्षाओं में एक साथ सर्वोच्च प्रथम स्थान पाया। इसके
बावजूद उन्होंने सांसारिक सफलताओं को त्यागकर लोकसेवा का मार्ग
चुना और श्रीरामकृष्ण मठ- मिशन में संन्यास ग्रहण किया। उनके दो उच्चशिक्षित भ्राताओं ने भी उन्हीं का अनुगमन किया।
त्याग व सेवा का उनका यह भाव युगऋषि को अत्यन्त प्रिय था।
इसके अलावा उन्हें प्रिय थी वैज्ञानिक अध्यात्म में उनकी प्रगाढ़
अभिरुचि। आज की इस विशेष संगोष्ठी में यही स्वामी आत्मानन्द
युगऋषि के साथ मंच पर बैठे थे। और उन्हें ध्यान से सुन रहे थे।
इस समय वह कह रहे थे, गायत्री महामन्त्र में ॐकार सहित तीन
व्याहृतियों के साथ तीन चरण, नौ शब्द एवं चौबीस अक्षर हैं। ‘ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्।’
इस अद्भुत महामन्त्र में परमेश्वर का सत्य- प्रकृति के तत्त्व
एवं उनके संयोग से होने वाली सृष्टि संरचना का सम्पूर्ण विज्ञान
सूत्र रूप में गुंथा है। यह मन्त्र सूत्र ठीक उसी तरह, बल्कि उससे भी कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है, जैसे कि भौतिकशास्त्र,
रसायन शास्त्र एवं गणित शास्त्र के सूत्र होते हैं। इसमें न
केवल सृष्टि विज्ञान, ब्रह्माण्ड विज्ञान है, बल्कि आत्म विज्ञान-
साधना विज्ञान भी है।
युगऋषि की इन बातों को लोग ध्यान से सुन रहे थे। उनकी वाणी
में उनकी दीर्घकाल की गायत्री साधना के अनुभव एवं कठोर तप का
तेज घुला था। वह कह रहे थे कि ॐकार परमेश्वर है जिसके संयोग से
सचेतन होकर भूर्भुवः स्वः- इन तीन तथा तम- रज इन तीन गुणों
वाली मूलप्रकृति अपने तेईस तत्त्वों को अभिव्यक्त करती है। गायत्री मन्त्र के चौबीस अक्षर, मूल प्रकृति और उसके तेईस तत्त्व- महतत्त्व, अहंकार एवं पंचतन्मात्राएँ तथा मन, पंचमहाभूत
एवं दस इन्द्रियाँ, इनके विज्ञान को बताते हैं। इसी सूत्र सत्य
को सांख्य दर्शन में कहा गया है। इसमें सृष्टि विज्ञान के सारे
रहस्य सूत्र रूप में बताये गए हैं, जो प्रकारान्तर से गायत्री
मन्त्र का ही विस्तार है।
आचार्य श्री की ये बातें गूढ़ थीं, परन्तु इनमें गायत्री
महामन्त्र में समावेशित सृष्टि विज्ञान ध्वनित हो रहा था। अब
उन्होंने गायत्री महामन्त्र में समाविष्ट आत्मविज्ञान के बारे में
कहना शुरू किया- ॐकार परमेश्वर है, परम सत्य है, जो भूर्भुवः स्वः
यानि कि देह, प्राण, मन में परिव्याप्त है। जिसकी अनुभूति एवं
अभिव्यक्ति के लिए साधक को गायत्री के तीन चरण- चिन्तन यानि कि
विचार, चरित्र यानि कि भाव एवं व्यवहार यानि कि क्रिया को परिमार्जित करने के लिए गायत्री महामन्त्र के नौ शब्दों के रूप में नौ गुणों- १. तत्- जीवन विज्ञान, २. सवितुः- शक्ति संचय, ३. वरेण्यं- श्रेष्ठता। ४. भर्गो- निर्मलता, ५. देवस्य- दिव्य दृष्टि, ६. धीमहि- सद्गुण। ७. धियो- विवेक, ८. योनः- संयम, ९. प्रचोदयात्- सेवा की साधना करनी पड़ती है। और तब गायत्री महामन्त्र के चौबीस अक्षरों के रूप में चौबीस ग्रन्थियों- १. तत्- तापिनी, २. स- सफला, ३. वि- विश्वा, ४. तुर- तुष्टि, ५. व- वरदा, ६. रे- रेवती, ७. णि- सूक्ष्मा, ८. यं- ज्ञाना, ९. भर- भर्गा, १०. गो- गोमती, ११. दे- देविका, १२. व- वाराही, १३. स्य- सिंहनी, १४. धी- ध्याना, १५. म- मर्यादा, १६. हि- स्फुटा, १७. धि- मेधा, १८.यो- योगमाया, १९. यो- योगिनी, २०. नः- धारिणी, २१. प्र- प्रभवा, २२. चो- ऊष्मा, २३. द- दृश्या एवं २४ यात्- निरञ्जना का जागरण होता है।
इससे गायत्री महामन्त्र के साधक में परमेश्वर की समर्थ अभिव्यक्ति १. सफलता, २. पराक्रम, ३. पालन, ४. कल्याण, ५. योग, ६. प्रेम, ७. धन, ८. तेज, ९. रक्षा, १०. बुद्धि, ११. दमन, १२. निष्ठा, १३. धारणा, १४. प्राण, १५. संयम, १६. तप, १७. दूरदर्शिता, १८. जागृति, १९. उत्पादन, २० सरसता, २१. आदर्श, २२. साहस, २३. विवेक एवं २४.
सेवा के रूप में होती है। गायत्री महामन्त्र में समावेशित इस
वैज्ञानिक अध्यात्म के सृष्टि विज्ञान एवं आत्म विज्ञान को सार
रूप में समझाते हुए उन्होंने कहा- यह तभी सम्भव है जब गायत्री
महामन्त्र के तीन चरणों में उपदिष्ट वैज्ञानिक अध्यात्म की
क्रियाविधि के तीन तत्त्वों- १. सम्यक् जिज्ञासा, २. त्रुटिहीन प्रयोग विधि एवं ३. निष्कर्ष के सम्यक् ऑकलन का अनुपालन हो।
अपनी बातों को पूरी करने के बाद आचार्य श्री मंच पर अपने आसन
पर बैठ गए। इसके साथ आयोजकों में एक ने स्वामी आत्मानन्द से
आग्रह किया कि वह भी कुछ कहें। इस अनुरोध पर स्वामी आत्मानन्द
जी शालीनता के साथ उठे और उन्होंने आचार्य श्री की ओर देखते
हुए हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए कहा- सबसे पहले मैं इस दण्डकारण्य
भूमि छत्तीसगढ़ में हम सबकी सुधि लेने आए प्रभु श्रीराम को
प्रणाम करता हूँ। उनके इस भावपूर्वक कथन पर सभास्थल में तालियों
की अनोखी गुंज
उठी। फिर उन्होंने कहा- मैंने आचार्य श्री द्वारा रचित गायत्री
महाविज्ञान को पढ़ा है, पर गायत्री महामन्त्र को वैज्ञानिक अध्यात्म
के परिप्रेक्ष्य में समझने का अवसर आज मिला। ऐसा कहकर वह दो
पल के लिए थमे फिर बोले- मैं अखण्ड ज्योति पत्रिका का नियमित
पाठक हूँ। मैंने इसी वर्ष १९६८ में जुलाई, अगस्त एवं सितम्बर महीने में प्रकाशित अपनों से अपनी बात के अन्तर्गत १. हम अध्यात्म को बुद्धिसंगत एवं वैज्ञानिक स्तर पर प्रतिपादित करेंगे, २. वैज्ञानिक अध्यात्म के प्रतिपादन की दिशा में बढ़ते कदम एवं ३. वैज्ञानिक अध्यात्म और प्रबुद्ध परिजनों का सहयोग भी गहराई से पढ़ा है।
इन लेखों में से एक लेख- वैज्ञानिक अध्यात्म के प्रतिपादन की
दिशा में बढ़ते कदम जो अखण्ड ज्योति पत्रिका में अगस्त महीने में
छपा है। इसमें आचार्य श्री ने लिखा है- ‘गत बीस वर्षों में विज्ञान ने अतितीव्र
प्रगति की है। और उसका चरण अध्यात्म के समर्थन की ओर बढ़ा है।
लगता है कि यह प्रगतिक्रम जारी रहा तो अगले पचास वर्षों में
अध्यात्म और विज्ञान दोनों इतने समीप आ जाएँगे कि दोनों का
एकीकरण एवं समन्वय असम्भव न रहेगा।’
आचार्य श्री के इन शब्दों के साथ मैं अपने भी कुछ शब्द जोड़ते
हुए यह कहना चाहता हूँ कि आचार्य जी महान् ऋषि हैं। और ऋषिवाणी कभी मिथ्या नहीं होती। उन्होंने पचास वर्ष की जो बात कही है वह १९६८+५० यानि २०१८
में अवश्य पूर्ण होगी। मैं तो शायद तब तक जीवित न रहूँ, परम
पूज्य आचार्य श्री भी सम्भवतः अपनी अवतार लीला का संवरण कर लें,
परन्तु उनकी भविष्य दृष्टि एवं युगदृष्टि
को विश्वमानवता अवश्य साकार होते देख सकेगी। तब निश्चित ही
वैज्ञानिक अध्यात्म का सत्य वैज्ञानिकों की प्रयोगशाला में और
सूक्ष्म ऋषियों की प्रयोगशाला में एक साथ साकार रूप लेता दिखाई
देगा।