‘ऋषियों के विज्ञान में प्रकृति की शक्ति एवं परमेश्वर के
सत्य की अभिव्यक्ति है। इसके आयाम अनगिन हैं और प्रत्येक आयाम
एक- दूसरे में समाये हैं। इनमें अभिन्नता है, अनन्तता है और नवीनता
भी। यही वजह है कि ऋषियों के वैज्ञानिक प्रयोग कभी थमे नहीं,
कभी मन्द नहीं पड़े। यह धारा सदा से अविरल रही है और सदा अविरल
बनी रहेगी। ऋषियों के विज्ञान में अनुसन्धान अविराम है।’ ऐसा कहते हुए महर्षि अंगिरस ने उपस्थित महर्षियों, मनीषियों व अध्ययनरत
ब्रह्मचारियों की ओर देखा। यह विशेष अनुसन्धान अधिवेशन था, जिसे
हिमालय की तलहटी में सरस्वती के तीर पर आयोजित किया गया था।
इसमें सम्पूर्ण आर्यावर्त के मन्त्रदृष्टा महर्षि एवं उनके शिष्यगण पधारे थे। यह आयोजन स्थल रमणीय, सुमनोहर व सुविस्तीर्ण था।
हिमालय के श्वेत- रजत शिखरों की छाया एवं सरस्वती के जलकणों से सचिंत यह भू- भाग सब भांति अलौकिक था। गर्वोन्मत्त माथा किए, सजग सचेष्ट प्रहरी की भांति वृक्षों की कतारें देखते ही मन को बांध लेती थी। भूमि पर मखमली घास की प्राकृतिक चादर बिछी थी। स्थान- स्थान पर पुष्पों से लदे पादप विहंस
कर अपनी अनोखी सुरभि लुटा रहे थे। पास में ही सघन अरण्य था,
जहाँ से यदा- कदा वनराज की गर्जना सुनायी दे जाती थी। अधिवेशन
स्थल पर कस्तूरी मृग बेरोक- टोक घूमकर अपनी सुगन्धि वितरित कर
रहे थे। यह सम्पूर्ण आयोजन महॢष अंगिरस की तपस्थली में हो रहा था। ये सम्पूर्ण दृश्यावलियां इसी का हिस्सा थी। उन्होंने ऋषियों के विज्ञान की अनुसन्धान यात्रा पर गहन परिचर्चा के लिए यह आयोजन किया था।
इस शोध अधिवेशन में यूं तो भाग लेने वालों की संख्या सहस्राधिक थी। परन्तु बृहस्पति पुत्र भारद्वाज, ऋषि प्रगाथ, मुनिश्रेष्ठ वाम्बरीश, महर्षि मेधातिथि कण्व एवं स्वयं को प्रकृति पुत्र कहने वाले वसुश्रुत
अपनी हाल की ही शोध उपलब्धियों के कारण विशेष आकर्षण बने हुए
थे। इन्होंने ऋषियों के विज्ञान की प्रकृति पर, इसकी विशिष्टताओं
पर खास प्रयास किए थे। महर्षि अंगिरस ने अपने कथन की समाप्ति करते हुए इन सभी को एक साथ सभामंच
पर आमंत्रित करते हुए परिचर्चा प्रारम्भ करने का अनुरोध किया।
इसे स्वीकारते हुए बृहस्पति पुत्र भारद्वाज ने कहा- ऋषियों का
विज्ञान जड़वादियों के विज्ञान की तुलना में भिन्न एवं विशेष इसलिए है, क्योंकि जड़वादियों
के वैज्ञानिक अनुसंधान जड़ पदार्थ तक ही सीमित हैं। जबकि ऋषियों
के वैज्ञानिक प्रयोगों एवं अनुसन्धान की कोई सीमा नहीं है। इसके
अनन्त विस्तार में प्रकृति में होने वाले समस्त परिवर्तन एवं
परमेश्वर का शाश्वत् स्वरूप समाहित है।
ऋषि भारद्वाज से सहमति जताते हुए ऋषि प्रगाथ ने कहा- जो अनुसन्धान किसी आग्रह, मत अथवा पथ से बंधे
हो, उन्हें न सत्यान्वेषी कहा जा सकता है और न ही वैज्ञानिक।
आग्रह के अवरोध वैज्ञानिक वृत्ति को अवैज्ञानिक बना देते हैं। जड़वादियों
की प्रकृति ऐसी ही निषेधात्मक है। उन्होंने स्वयं को जड़ पदार्थ
एवं इसके ऊर्जा प्रवाहों के आरोह- अवरोह में कैद कर रखा है।
इसके भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों को उन्होंने सब कुछ मान
रखा है। जबकि वह भूल जाते हैं कि प्रकृति के विस्तार में और भी
बहुत कुछ है। ऋषि प्रगाथ की वाणी मधुर थी, वह जो कह रहे थे, उससे इन्कार नहीं किया जा सकता था।
उनकी वाणी के तनिक थमते ही मुनिश्रेष्ठ वाम्बरीश कहने लगे- दरअसल जिसे जड़वादी
पदार्थ कहते हैं, वह प्रकृति के तमोगुण की एक साधारण सी
अभिव्यक्ति है। त्रिगुणमयी प्रकृति के तमोगुण की अभिव्यक्ति पदार्थ
के रूप में होती है, रजोगुण इसमें प्राण या जीवन की सक्रियता
का संचार करता है। और सत्वगुण
से इसमें आध्यात्मिक चेतना की अभिव्यक्ति होती है। इसलिए
वैज्ञानिक शोध अनुसन्धान प्रयासों में जड़ पदार्थ एवं उनकी भौतिक ऊर्जाएँ, प्राण तत्त्व- प्राण ऊर्जाएँ, मनस तत्त्व- मानसिक ऊर्जाएँ एवं अन्ततोगत्वा आत्मतत्त्व व आध्यात्मिक ऊर्जाएँ इन सभी का समावेश होना चाहिए।
ऋषियों के विज्ञान में यही सम्पूर्णता- समग्रता है। हंसते हुए प्रकृति पुत्र वसुश्रुत ने मुनिश्रेष्ठ वाम्बरीश के कथन को पूरा किया। और उन्होंने आगे कहा कि जड़वादियों की भूल सिर्फ इतनी है कि वे एकांगी हैं और उन्होंने अपनी एकांगिकता
को ही सम्पूर्णता मान रखा है। इसी वजह से वह सत्य से, सत्त्व
से वंचित हैं। इसके पीछे उनकी नकारात्मक सोच है, जो उन्हें
प्रकृति के अनगिन आयामों और इनमें चेतनता का संचार करने वाले
परमेश्वर को अनुभव नहीं करने देती। जिस दिन भी वह अपने निषेध
भाव एवं आग्रह के अवरोधों को हटा लेंगे वे भी सत्य के अनगिन
आयामों का साक्षात्कार करने लगेंगे।
ऋषियों के विज्ञान का यही सूत्र सत्य है- यहाँ किसी भी निषेध व
नकार का कोई स्थान नहीं है। आग्रह के अवरोध इसकी अनुसन्धान
यात्रा को किन्हीं सीमा रेखाओं में नहीं बांधते।
शोध प्रयासों में सकारात्मक निरन्तरता ऋषियों के विज्ञान का
ध्येय वाक्य है। यही वजह है कि इस महान् विज्ञान की उपलब्धियों
का प्रयोग भी सकारात्मक सृजन कार्यों में होता है। जिनकी सोच में
निषेध भाव होता है, वे अपनी शोध उपलब्धियों का प्रयोग भी
विध्वंस और विघटन में करते हैं। कुशल आयुविज्ञानी
विष का भी औषधीय उपयोग कर लेते हैं, जबकि कुटिल, कुबुद्धि वाले
औषधि का भी मारक प्रयोग कर डालते हैं। ऋषियों के विज्ञान में
केवल सत्य की ही अभिव्यक्ति नहीं है, इसमें शिवम् एवं सुन्दरम् के सुयोग भी जुड़े हैं।
महर्षि अंगिरस मौन बैठे हुए इस सुखद परिचर्चा का आनन्द ले रहे थे। इन महर्षियों की बातें सुनकर वह बीच- बीच में मुस्करा उठते थे। उन्हें अपना यह आयोजन सार्थक लग रहा था। उन्होंने मनस्वी महर्षि मेधातिथि कण्व की ओर देखते हुए आग्रह किया, आप भी कुछ कहें ऋषिश्रेष्ठ। मनस्वी मेधातिथि अभी तक मौन बैठे थे। उन्होंने दृश्य व अदृश्य के सम्बन्धों पर पर्याप्त शोध कार्य किया था। महर्षि अंगिरस के आग्रह पर वह मुखर हुए और बोले- जिस तरह धरा पर पदार्थ, वनस्पति एवं प्राणिवर्ग के विविध रूप हैं, उसी तरह चैतन्य ऊर्जाओं के अन्य आयाम- देव, पितर, यक्ष आदि भी हैं। धरा मण्डल केवल अपने ही ऊर्जाप्रवाहों से प्रवर्तित व संचालित नहीं होता। अन्य लोकों के जड़ व चैतन्य ऊर्जा प्रवाह भी इसे प्रेरित, प्रभावित व प्रवर्तित
करते हैं। दृश्य व अदृश्य के इन सम्बन्धों का अध्ययन भी ऋषियों
के विज्ञान का महत्त्वपूर्ण विभाग है। और हो भी क्यों न? ऋषियों
के विज्ञान का तो प्रयोजन ही है प्रकृति की शक्ति एवं
परमेश्वर के सत्य की सार्थक अभिव्यक्ति। प्रकृति एवं सृष्टि के
सभी आयामों से सकारात्मक व सहयोगात्मक सम्बन्ध। तभी तो वेदवाणी
कहती है- विज्ञानं यज्ञ तनुते। कर्माणितनुतेऽपि
च। विज्ञान ही यज्ञों और कर्मों की वृद्धि करता है। ऋषियों के
विज्ञान के ये संवेदन आधुनिक विज्ञान में भी आध्यात्मिक संचेतना का संचार करने में समर्थ हैं।