वैज्ञानिक अध्यात्म के क्रान्ति दीप

अतिमहत्त्वपूर्ण है व्यक्ति के जन्म का क्षण

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          ‘वैज्ञानिक अध्यात्म का प्रकाशक है- ज्योतिर्विज्ञान। इसमें आधुनिक विज्ञानवेत्ताओं द्वारा सहजता से स्वीकार की गयी गणित विद्या एवं प्राचीन महर्षियों द्वारा प्रवॢतत अध्यात्म विद्या- दोनों का संयोग है।’ ऐसा कहते हुए स्वामी विशुद्धानन्द परमहंस देव ने चेल महाशय को अपने पास ही तख्त पर बैठने का संकेत किया। चेल महाशय को उनके पास बराबर में बैठने में थोड़ा संकोच हुआ, परन्तु इसे उनका निर्देश मानकर बैठ गए। इन चेल महाशय का पूरा नाम था- रोहिणी कुमार चेल। इन दिनों वह कलकत्ता में थियेट्रर रोड पर रहते थे। ज्योतिर्विज्ञान में इनकी गहरी जिज्ञासा थी। कुछ जीवन की जटिल उलझनें भी थीं, जिनकी वजह से वह इन दिनों कुछ चिन्तित थे। इस प्रसंग में वह अनेकों से मिले भी, पर ठगे गए। जो हाथ में था वह भी गया और प्रकाश के स्थान पर अंधकार पल्ले पड़ा। इन्हीं दिनों इनके एक मित्र ने इनसे योगिराज विशुद्धानन्द की चर्चा की।

       पहले तो उनका मिलने का मन नहीं हुआ, फिर सोचा चलो एक परीक्षा ही सही। यह सोचकर अपने मित्र मणीन्द्र कुमार भट्टाचार्य से सलाह लेकर जवाबी तार कर दिया। इसका उत्तर आया ‘अभी नहीं’। परन्तु जिज्ञासा इतनी तीव्र थी कि रहा न गया और गुष्करा के लिए चल पड़े। वहाँ पहुँच कर घर के बाहर बैठ गए क्योंकि दरवाजा बन्द था। थोड़ी देर बाद परमहंस देव द्वार खोलकर बाहर निकले। उनके शरीर से भीनी- भीनी कमल की सुगन्ध निकल रही थी। उनकी दोनों आँखें लाल किन्तु आश्चर्यपूर्ण तेज से आपूरित थी। तनिक ध्यान से देखने पर उन्हें अहसास हुआ कि परमहंस देव के शरीर से केवल कमल की सुगन्ध ही नहीं बल्कि हल्का- हल्का श्वेत स्निग्ध प्रकाश भी निकल रहा है। वह कुछ बोल पाते इसके पहले उन्होंने इनको अपने कक्ष में आने और तख्त में बैठने का संकेत किया।

इस संकेत के अनुसार वह हड़बड़ी में बैठ गए और अपने हैण्ड बैग से अपनी एवं अपनी पत्नी की कुण्डली निकालने लगे। उन्हें इस तरह हैण्ड बैग टटोलते हुए देख स्वामी विशुद्धानन्द ने कहा- रुको और उस कमरे की अलमारी से दो कुण्डली निकाल कर उनके हाथों में थमा दी। इनमें उनका और उनकी पत्नी का नाम- जन्म समय, लग्र चक्र, चन्द्र कुण्डली एवं  विशोत्तरी दशाएँ, अन्तर एवं प्रत्यन्तर दशाओं सहित थी। साथ ही इनमें उनके फलाफल भी वॢणत थे। अब तो रोहिणी बाबू थोड़ा नहीं कुछ ज्यादा ही चकित हुए- आखिर इन्हें मेरा एवं मेरी पत्नी का नाम आदि कैसे पता चला? पूछने पर उन्होंने कहा- जब मैंने योगदृष्टि से देखा कि तुम मेरे मना करने के बाद भी गुष्करा के लिए चल पड़े हो, तो मैंने बैठे- बैठे तुम दोनों की कुण्डली बना डाली। खैर यह सब छोड़ो और अपनी कुण्डली का मिलान कर लो। मिलान करने पर पत्नी की कुण्डली तो ठीक- ठीक मिल गयी। परन्तु रोहिणी बाबू की कुण्डली में जन्म- मुहूर्त में थोड़ा फर्क पाया गया।

        यह फर्क दिखाने पर परमहंस देव बोले- चेल महाशय! मेरे द्वारा बनायी गयी कुण्डली ही सही है। इसका फलित पढ़ो और अपने जीवन की अतीत की घटनाओं से उनका मिलान करो। अब चेल बाबू ने अपनी कुण्डली को ध्यान से पढ़ा और पाया कि स्वामी विशुद्धानन्द सौ प्रतिशत सही कह रहे हैं। फिर वह सोचने लगे कि यह तो ठीक, पर मेरी कुण्डली भी ठीक बनी थी। उनके इस तरह से सोचने पर वह बोले- नहीं वह सही नहीं है। उसमें जो जन्म का क्षण अंकित है यदि वह सही होता तो तुम भगवान् श्रीराम एवं भगवान् श्रीकृष्ण की तरह अवतार होते। और तब तुम मेरे पास न आए होते; बल्कि मैं तुम्हारे पास आकर तुम्हें प्रणाम करता।

         इतना कहकर स्वामी विशुद्धानन्द महाराज उठ खड़े हुए और बोले- व्यक्ति के जन्म के क्षण का बहुत महत्त्व होता है। जन्म का क्षण यह बताता है कि जीवात्मा किन कर्मबीजों, संस्कारों को लेकर किन और कैसे ऊर्जा प्रवाहों के मिलन बिन्दु पर जन्मी है। जन्म का क्षण इस विराट् ब्रह्माण्ड में व्यक्ति को, उसके जीवन को एक स्थान देता है। यह कालचक्र में ऐसा स्थान होता है, जो सर्वथा अपरिवर्तनीय है। स्वामी विशुद्धानन्द जब ये बातें बोल रहे थे तो ऐसा लग रहा था जैसे कि वे उस कमरे में नहीं बल्कि ब्रह्माण्ड के बीचों बीच खड़े हों, और सब कुछ साफ- साफ स्पष्ट देख रहे हैं। उनकी आँखों से ऋषि का तेज झलक रहा था। वह कह रहे थे- यह अखिल ब्रह्माण्ड भगवती आदिशक्ति की लीला है। इसमें अनगिन अनन्त बहुआयामी ऊर्जा धाराएँ प्रवाहित हैं, जो क्षण- क्षण, पल- पल एक दूसरे से सृष्टि के कण- कण में मिलती हैं। इनके मिलने के क्रम के अनुरूप ही सृष्टि, व्यक्ति, जन्तु- वनस्पति, पदार्थ, घटनाक्रम जन्म लेते हैं। इसी क्रम में उनका विलय- विसर्जन भी होता है। जिसे सामान्य भाषा में इन सभी की मृत्यु अथवा स्वरूप का रूपान्तरण भी कह सकते हैं।

ज्योतिर्विज्ञान के अन्वेषक महर्षियों ने इन ब्रह्माण्ड- व्यापी ऊर्जा प्रवाहों को चार चरणों वाले सत्ताईस नक्षत्रों, बारह राशियों एवं नवग्रहों में वर्गीकृत किया है। इनमें होने वाले परिवर्तन क्रम को उन्होंने विशोत्तरी, अष्टोत्तरी एवं योगिनी दशाओं के क्रम में देखा है। इनकी अन्तर एवं प्रत्यन्तर दशाओं के क्रम में इन ऊर्जा प्रवाहों के परिवर्तन क्रम की सूक्ष्मता समझी जाती है। अब कोई यदि गुष्करा या बर्दमान में प्रातः बजकर १५ मिनट पर सन् १८९५ ई. में जन्मा है, तो इसके अनुसार कालचक्र में उसका स्थान निश्चित हो गया। इस स्थान का परिवर्तन अब मृत्यु तक असम्भव है। अब काल परिभ्रमण के अनुसार ब्रह्माण्डीय ऊर्जा प्रवाह उसे अपने परिवर्तन क्रम के अनुसार प्रभावित करते रहेंगे। यह क्रम क्या और किस तरह है इसे राशियाँ एवं ग्रहों की युतियों, लग्रचक्र में उनकी स्थिति तय करती हैं। इसे विशोत्तरी दशाओं के अन्तर- प्रत्यन्तर क्रम के अनुसार जाना जा सकता है। इसी क्रम में व्यक्ति की चित्तभूमि के संस्कार एवं कर्मबीज अंकुरित, उत्प्रेरित एवं अभिव्यक्त होते हैं।

         इतना कहते हुए वह कुछ क्षण ठहरे फिर उन्होंने उस कमरे का एक चक्कर लगाया और फिर वहीं रखी एक कुर्सी पर बैठ गए और बोले- ज्योतिर्विज्ञान के बारे में अभी तक जो मैंने कहा वह सत्य का एक पहलू है। जिसे सुनकर लगता है कि सब कुछ अपरिवर्तनीय है। परन्तु इसे यदि सही ढंग से जान लिया जाय तो मनुष्य अपनी मौलिक क्षमताओं को पहचान सकता है, अपने स्वधर्म की खोज कर सकता है। और तब कालचक्र में अपनी स्थिति और प्रभावित करने वाले ऊर्जा प्रवाहों के क्रम को पहचान कर ऐसे अचूक साधना विधान अपना सकता है, जिनसे कालक्रम के अनुसार परिवर्तित होने वाले ऊर्जा प्रवाहों के क्रम उसे क्षति न पहुँचाएँ। जैसे व्यक्ति यदि सूर्य की परिक्रमा कर रही और अपनी धुरी पर घूम रही धरती की परिभ्रमण अवस्थाओं को जान ले तो वह धरती के विभिन्न स्थानों में होने वाली ऋतुओं व मौसम के बारे में जान सकता है। और तब वह अपनी खेती- फसलों, खान- पान, रहन- सहन का ऐसा निर्धारण कर सकता है कि प्रत्येक ऋतु और प्रत्येक मौसम उसे लाभ दे सकें।

ज्योतिर्विज्ञान के साथ साधना विज्ञान भी अनिवार्य ढंग से जुड़ा है। ज्योतिष की गणितीय व्यवस्था, नक्षत्रों, राशियों एवं ग्रहों के संयोग क्रम केवल व्यक्ति के जीवन में ऋतुओं एवं मौसम के परिवर्तन क्रम को बताते हैं। महादशाओं, अन्तर्दशाओं एवं प्रत्यन्तर दशाओं का यही रहस्य है। परन्तु इनमें से प्रत्येक अवस्था में, परिवर्तन क्रम के अनुसार किस साधना विधान का चयन करना चाहिए, यह ज्योतिर्विज्ञान का दूसरा महत्त्वपूर्ण पहलू है। ग्रहों के मन्त्र, दान की विधियाँ, मणियाँ, औषधियाँ इसी के लिए हैं। यदि इनका सूक्ष्म विधान न पता हो तो व्यक्ति को नित्य एक सहस्र गायत्री जप करना चाहिए।

नवरात्रिकाल में चौबीस हजार का अनुष्ठान करना चाहिए। इसी के साथ वर्ष में कम से कम तीन बार चान्द्रायण व्रत के साथ सवालक्ष गायत्री अनुष्ठान अवश्य करना चाहिए। यदि ऐसा किया जा सके तो व्यक्ति के जीवन में सभी ग्रह दशाएँ शुभफलदायक हो जाती हैं। अपनी बात पूरी कर उन्होंने तनिक हँस कर कहा- इस ज्योतिर्विज्ञान का गहरा आन्तरिक सम्बन्ध आयुर्वेद के आरोग्यशास्त्र से भी है। 
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