सेवा साधना

स्वस्थ प्रतिस्पर्धाएँ-प्रतियोगिताएँ

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        प्रतियोगिताएँ चालू करके भारतीय बहुत सा काम कर सकते हैं वाद- विवाद की प्रतियोगिता, संगीत की प्रतियोगिता, खेलकूदों की प्रतियोगिता, बच्चों को स्वस्थ रखने की प्रतियोगिता, पशु किसका अच्छा है और कौन ज्यादा दूध देता है। अनेक तरह की प्रतियोगिताएँ है मनुष्य में एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का भाव पैदा कर सकता है, और एक सम्मेलन, एक पुस्तक का भाव पैदा करने लोग आते हैं, तमाशाबीन तमाशा देखते हैं लेकिन उसमें से अच्छा साबित करने वाले लोग ये भी करते हैं इसके लिए ये भी एक अच्छा समाज की सेवा है कि हम समाज के लिए अच्छे काम करने के लिए प्रतियोगिता, पुरस्कार देने के लिए मेले लगाये और आदमी के अन्दर उत्साह पैदा करें कि हमको बढ़-चढ़ कर जीवन को विकसित करने वाले कार्य करने चाहिए।

लोक संगीत का युग संगीत में रूपान्तरण

        इसी प्रकार से संगीत, कला का विकास। ये भी बड़े महत्त्वपूर्ण कार्य हैं, इसके लिए अन्तरंग को छुआ जा सकता है। हर गाँव में संगीत जानने वाले लोग होते हैं, उन संगीत जानने वाले लोगों को वो चीजें दी जाये, जो आज के युग के लिए आवश्यक है। विचारकों पास विचार नहीं है,  संगीतकार को किसी ने जो सिखा दिया वो सीख लिये। कीर्तन करना सिखा दिया तो सीख गये। पान खाओ फूल खाओ और खाओ मेवा। पान कहाँ से खायें बाबा पान भी १० पैसे का आता है, मेवा तेरे सिर में से खायें, पैसे होंगे तो खायेंगे, तू खा जा। खाओ और अपने पैसे से खाओ, बेकार की बात है काहे खराब करता है अपनी अकल। इस तरह से बेसिर पैर  की तरह गाना गाते रहते हैं, गाने की हविस को पूरा करने के लिए और वो राधा और श्री कृष्ण के गीत गाते रहते है, कामुकता भड़काने वाली, उनके स्थान पर गायकों को इस तरह के विचार दें जो मनुष्य के चरित्र को ऊँचा उठाते हो और लोक सेवा की भक्ति उत्पन्न करते हों तो मजा आ जाये। गाँव- गाँव जाना चाहिए और ऐसी संगीत को एक संगबद्ध करना चाहिए और ऐसी मण्डलियाँ बनानी चाहिए और उनका ऐसा नियंत्रण करना चाहिए, कि उनको नये नये गाने गाने चाहिए तब कोई बात बने। संगीत का शौक पैदा किया जाये। नाट्य और अभिनय का शौक पैदा किया जाये।

        अब तो आदमी भागता है सिनेमा के लिए भागता है। सिनेमा के अलावा और कोई मनोरंजन रहा ही नहीं। अगर हम चाहे तो ऐसे सांस्कृतिक कार्यक्रम जिसमें मनोरंजन का पुट दिया हुआ हो और शिक्षा का भी पुट दिया हुआ हो। छोटे स्तर पर एकांकी नाटक खेली जा सकतीं है, छोटे- छोटे ड्रामा कमेटियाँ बन सकती हैं, लीला और अभिनय किया जा सकता है। जिससे आदमी को अपनी कोमल भावना का विकास करने का मौका मिल सकता है। मनोरंजन के लिए गुंजाइश रहती है और लोक शिक्षण की व्यवस्था भी बन जाती है। ये सब आसानी से किया जा सकता है।  गन्दगी ........ गन्दगी एक अभिशाप है हमारे समाज का। अभिशाप ही नहीं है राष्ट्र का अपव्यय है, हमारे राष्ट्र का मल और मूत्र की समस्या इतनी बड़ी है हिन्दुस्तान जैसे देश में, जिसमें मल और मूत्र का कोई उपयोग नहीं होता, जापान में अपने देश में खाद की समस्या का मनुष्य की मल को इस्तेमाल किया जाता है।

        आदमी का टट्टी का थोड़ा भी भाग जापान में बरबाद नहीं होता, आदमी की टट्टी और पेशाब को बिल्कुल खाद के रूप में बदल दिया जाता है और वहाँ फर्टीलाइज़र कारखानों की कोई जरूरत नहीं पड़ती। खाद्य की समस्या के पश्चात् मनुष्यों का मल इतना ज्यादा है, इतना ज्यादा है अब पशुओं से भी ज्यादा मनुष्यों के हैं। मनुष्यों से पशु कम है, मनुष्यों का मल और पशुओं का मल जो कि देहात में जहाँ तहाँ, जहाँ तहाँ फैला सड़ता रहता है। बिखरा फैलता रहता है, पड़ा रहता है उसका कोई उपयोग नहीं होता, उसका कोई कोई लाभ नहीं होता। उस बिना उपयोगी और बिना लाभ के पदार्थ को जब लाभ का बना सकते है तो देश में सोना फैला सकते है। यदि हम गाँव की सफाई रखने लगे, सफाई से दो फायदे हैं,
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