युगऋषि की सूक्ष्मीकरण साधना

ऋषि-मनीषी के रूप में हमारी परोक्ष भूमिका

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        मनुष्य अपनी अंतःशक्ति के सहारे प्रसुप्त के प्रकटीकरण के द्वारा ऊँचा उठता है। यह जितना सही है, उतना ही यह भी मिथ्या नहीं है कि तप- तितिक्षा से प्रखर बनाया गया वातावरण, शिक्षा, सान्निध्य, सत्संग- परामर्श अनुकरण भी अपनी उतनी ही सशक्त भूमिका निभाता है। देखा जाता है कि किसी समुदाय में नितांत साधारण श्रेणी के सीमित सामर्थ्य सम्पन्न व्यक्ति एक प्रचण्ड प्रवाह के सहारे असंभव पुरुषार्थ संभव कर दिखाते हैं। प्राचीन काल में मनीषी- मुनिगण यही भूमिका निभाते थे। वे युग साधना में निरत रह, लेखनी वाणी के सशक्त तंत्र के माध्यम से जनमानस के चिंतन को उभारते थे। ऐसी साधना अनेक उच्चस्तरीय व्यक्तित्वों को जन्म देती थी- उनकी प्रसुप्त सामर्थ्य को उजागर कर उन्हें सही दिशा देकर समाज में वांछित परिवर्तन लाती थी। शरीर की दृष्टि से सामान्य दृष्टिगोचर होने वाले व्यक्ति भी प्रतिभा- कुशलता ङ्क्षचतन की श्रेष्ठता से अभिपूरित देखे जाते थे।

        सर्वविदित है कि मुनि एवं ऋषि ये दो श्रेणियाँ अध्यात्म क्षेत्र की प्रतिभाओं में गिनी जाती रही हैं। ऋषि वह जो तपश्चर्या द्वारा काया का चेतनात्मक अनुसंधान कर उन निष्कर्षों से जनसमुदायों को लाभ पहुँचाये तथा मुनिगण वे कहलाते हैं, जो चिंतन- मनन और स्वाध्याय द्वारा जन मानस के परिष्कार की अहम भूमिका निभाते हैं। एक पवित्रता का प्रतीक है, तो दूसरा प्रखरता का। दोनों को ही तप साधना में निरत हो सूक्ष्मतम बनना पड़ता है, ताकि अपना स्वरूप और विराट् व्यापक बनाकर स्वयं को आत्मबल सम्पन्न कर वे युग चिंतन के प्रवाह को मरोड़- बदल सकें। मुनि जहाँ प्रत्यक्ष साधनों का प्रयोग करने की स्वतंत्रता रखते हैं, वहाँ ऋषियों के लिए यह अनिवार्य नहीं। वे अपने सूक्ष्मरूप में भी वातावरण को आंदोलित करते- सुसंस्कारिता बनाये रख सकते हैं।

        लोक व्यवहार में मनीषी शब्द का अर्थ प्रायः उस महाप्राज्ञ से लिया जाता है, जिसका मन उसके वश में हो। जो मन से नहीं संचालित होता, अपितु अपने विचारों द्वारा मन को चलाता है, उसे मनीषी एवं ऐसी प्रज्ञा को मनीषा कहा जाता है। प्रतिभाशाली, बुद्धिमान होना अलग बात है एवं पवित्र शुद्ध अंतःकरण रखते हुए बुद्धिमान होना दूसरी। यह कथन आज की परिस्थितियों में नितांत सही है। आज सम्पादक, बुद्धिजीवी, लेखक, अन्वेषक, प्रतिभाशाली वैज्ञानिक तो अनेकानेक हैं, देश- देशान्तरों में फैले पड़े हैं, लेकिन वे मनीषी नहीं हैं। क्यों? क्योंकि तपःशक्ति द्वारा अंतःशोधन द्वारा उन्होंने पवित्रता नहीं अर्जित की।

अनिवार्य है विचार क्रांति --

        जैसा कि हम पूर्व में भी कह चुके हैं कि नवयुग यदि आयेगा, तो विचार शोधन द्वारा ही क्रांति होगी। वह लहू और लोहे से नहीं, विचारों की विचारों से काट द्वारा होगी, समाज का नवनिर्माण होगा तो वह सद्विचारों की प्रतिष्ठापना द्वारा ही संभव होगा। अभी तक जितनी मलिनता समाज में प्रविष्ट हुई है, वह बुद्धिमानों के माध्यम से ही हुई है। द्वेष, कलह, नस्लवाद, जातिवाद, व्यापक नरसंहार जैसे कार्यों में बुद्धिमानों ने ही अग्रणी भूमिका निभाई है। यदि वे सन्मार्गगामी होते, उनके अंतःकरण पवित्र होते, तपः ऊर्जा का संबल उन्हें मिला होता, तो उन्होंने विधेयात्मक चिंतन प्रवाह को जन्म दिया होता, सत्साहित्य रचा होता। ऐसे आन्दोलन चलाये होते।

        हिटलर ने जब नीत्से के सुपरमैन रूपी अधिनायक को अपने में साकार करने की इच्छा की, तो सर्वप्रथम सारे राष्ट्र के विचार प्रवाह को उस दिशा में मोड़ा। अध्यापक- वैज्ञानिक वर्ग नाजीवाद का कट्टर समर्थक बना, तो उसकी उस निषेधात्मक विचार साधना द्वारा जो उसने ‘मीन केम्फ’ के रूप में आरोपित की। बाद में सारे राष्ट्र के पाठ्यक्रम, अखबारों की धारा का मोड़ उसने उस दिशा में मोड़ दिया, जैसा कि वह चाहता था। जर्मन राष्ट्र नस्लवाद के अहं में सर्वश्रेष्ठ जाति का प्रतीक होने के गर्वोन्माद में उन्मत्त हो व्यापक नरसंहार कर स्वयं ध्वस्त हो गया। यह भी मनीषा के एक मोड़ की परिणति है, ऐसे मोड़ की जो सही दिशा में होता, तो ऐसे समर्थ सम्पन्न राष्ट्र को कहाँ से कहाँ ले जाता।

        कार्लमार्क्स ने सारे अभावों में जीवन जीते हुए अर्थशास्त्र रूपी ऐसे दर्शन को जन्म दिया जिसने समाज में क्रान्ति ला दी। पूँजीवादी किले ढहते चले गये एवं साम्राज्यवाद दो तिहाई धरती से समाप्त हो गया। ‘दास कैपिटल’ रूपी इस रचना ने एक नवयुग का शुभारम्भ किया। जिसमें श्रमिकों को अपने अधिकार मिलें एवं पूँजी के समान वितरण का वह अध्याय खुला, जिसमें करोड़ों व्यक्तियों को सुख- चैन की, स्वावलम्बन प्रधान जिन्दगी जी सकने की स्वतंत्रता मिली।

[भारतीय संस्कृति में आर्थिक साम्यवाद को बहुत महत्त्व दिया जाता रहा है। ऋषि तो यहाँ तक कहते हैं कि ‘॥ यावद् म्रियते जठरं, तत्वत् स्वत्वं हि देहिनाम्, यो अन्ये अभिमन्येत सस्तेनोदण्डमर्हति॥’’ अर्थात् देहधारी का नैतिक अधिकार इतना ही है कि वह अपने जीवन की रक्षा के लिए अपना पेट भर ले। जो उससे अधिक का मन बनाता है, वह चोरी करने वाले की तरह दण्डनीय है; किन्तु वर्तमान समय में तो विशेषकर यूरोप में तो किसी प्रकार धन कमाने को दूसरों का शोषण करके भी अपने लिए सुविधाएँ समेटने को भी उचित माना जाने लगा था। श्री कार्ल मार्क्स ने उसके विरुद्ध आवाज ही नहीं उठाई, उसके समानान्तर एक चुनौती पूर्व व्यवस्था की रूपरेखा भी प्रस्तुत की। शासन व्यवस्था के रूप में साम्यवाद भले असफल रहा हो, किन्तु साम्यवादी अर्थनीति को आज पूरे विश्व में मान्यता मिली है। ऐसे महान् क्रान्ति करने वाले कार्लमार्क्स को युगऋषि ने ऋषियों की श्रेणी में गिना है।]


        रूसो ने जिस प्रजातंत्र की नींव डाली थी, उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद के पक्षधर शोषकों की रीति- नीति ही उसकी प्रेरणा स्रोत होगी। मताधिकार की स्वतन्त्रता, बहुमत के आधार पर प्रतिनिधित्व का दर्शन विकसित न हुआ होता, यदि रूसो की विचारधारा ने व्यापक प्रभाव जन समुदाय पर न डाला होता। जिसकी लाठी- उसकी भैंस की नीति ही सब जगह चलती, कोई विरोध तक न कर पाता। जागीरदारों एवं उत्तराधिकारों के आधार पर राजा बनने वालों का ही वर्चस्व होता। इसे एक प्रकार की मनीषा प्रेरित क्रान्ति कहना चाहिए कि देखते- देखते उपनिवेश समाप्त हो गए, शोषक वर्ग का सफाया हो गया। इसी संदर्भ में हम कितनी ही बार लिंकन एवं लूथर किंग के साथ- साथ उस महिला हैरिएट स्टो का उल्लेख करते रहे हैं जिसकी कलम ने कालों को गुलामी के चुंगल से मुक्त कराया। प्रत्यक्षतः यह युग-मनीषा की भूमिका है।

[भारतीय इतिहास में इस बात के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं कि यहाँ अधिनायकवाद से लेकर प्रजातंत्र तक के विभिन्न प्रयोग होते रहे हैं। श्रीकृष्ण ने कंस के अधिनायकवाद को समाप्त करके यादवी गणतंत्र की स्थापना की थी। आचार्य चाणक्य के समय में भी लिच्छिमि, मालव, शूद्रक आदि गणतंत्रों का उल्लेख मिलता है; किन्तु कालान्तर में यह धारणा बन गई कि राजवंश तो अलग ही होते हैं। उन्हें तो प्रजा पर शासन करने के लिए ईश्वर ने बनाया है। इस प्रकार की भ्रान्त धारणाओं को खुली चुनौती देकर रूसो ने यह विचार जनमानस में बिठाया कि प्रजा की शासन व्यवस्था प्रजा के लिए, प्रजा द्वारा ही चलाई जा सकती है। आज यह प्रजातांत्रिक पद्धति लगभग पूरे विश्व में लागू है।


        हैरिएट स्टो अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की समयकालीन थी। उन्होंने अमेरिका में गुलाम प्रथा पर भावनात्मक आघात करते हुए एक उपन्यास लिखा था टाम काका की कुटिया (अंकल टॉम्स केबिन)। उसमें लेखिका ने पीड़ित गुलामों की वेदना को इस कुशलता से उभारा कि जनता ने उस व्यवस्था के प्रति खुला विद्रोह कर दिया था।]


        बुद्ध की विवेक एवं नीतिमत्ता पर आधारित विचार क्रान्ति एवं गाँधी- पटेल द्वारा पैदा की गयी स्वातन्त्र्य आन्दोलन की आँधी उस परोक्ष मनीषा की प्रतीक है, जिसने अपने समय में ऐसा प्रचण्ड प्रवाह उत्पन्न किया कि युग बदलता चला गया। उन्होंने कोई विचारोत्तेजक साहित्य रचा हो अथवा विशेष वक्तृता की हो, यह भी नहीं। फिर यह सब कैसे सम्भव हुआ? यह तभी हो पाया जब उन्होंने मुनि स्तर की भूमिका निभायी, स्वयं को तपाया, विचारों में शक्ति पैदा की एवं उससे वातावरण को प्रभावित किया।

        परिस्थितियाँ आज भी विषम हैं। वैभव और विनाश के झूले में झूल रही मानव जाति को उबारने के लिये आस्थाओं के मर्मस्थल तक पहुँचना होगा और मानवी गरिमा को उभारने, दूरदर्शी विवेकशीलता को जगाने वाला प्रचण्ड पुरुषार्थ करना होगा। साधन इस कार्य में कोई योगदान दे सकते हैं, यह सोचना भ्रांतिपूर्ण है। दुर्बल आस्था अन्तराल को तत्त्वदर्शन और साधना प्रयोग के उर्वरक की आवश्यकता है। अध्यात्मवेत्ता इस मरुस्थल की देख−भाल करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते व समय- समय पर संव्याप्त भ्रांतियों से मानवता को उबारते हैं। अध्यात्म की शक्ति विज्ञान से भी बड़ी है। अध्यात्म व्यक्ति के अन्तराल में विकृतियों के माहौल से लड़ सकने निरस्त कर पाने में सक्षम तत्त्वों की प्रतिष्ठापना कर पाता है। हमने व्यक्तित्वों में पवित्रता व प्रखरता का समावेश करने के लिए मनीषा को ही अपना माध्यम बनाया एवं उज्ज्वल भविष्य का सपना देखा है।

[सामान्य विचारशील लोग मनीषियों को समझाने की बात करते है। ऋषि कहते हैं कि वे ‘मनीषा’ को अपना माध्यम बना रहे हैं। ‘मनीषा’ अर्थात् वह विशिष्ट मानसिक क्षमता जिसके कारण व्यक्ति मनीषी बनते हैं। जैसे रेडियो फ्रीक्वेंसी द्वारा एक साथ तमाम रेडियो- ट्रांजिस्टरों से प्रसारण किया जा सकता है, वैसे ही तप शक्ति मानवीय मानसिक चिंतन तरंगों को प्रभावित किया जाना संभव है। युगऋषि ने इसी विधा को अपनाया है।]

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