युगऋषि की सूक्ष्मीकरण साधना

सूक्ष्मीकरण की विशिष्ट साधना

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        मूल प्रश्न जीव सत्ता के सूक्ष्मीकरण का है। सूक्ष्म व्यापक होता है, बहुमुखी भी। एक ही समय में कई जगह काम कर सकता है। जबकि स्थूल के लिए एक स्थान, एक सीमा के बंधन हैं। स्थूल शरीरधारी अपने भाग- दौड़ क्षेत्र में काम करेगा। साथ ही भाषा ज्ञान के अनुरूप विचारों का आदान- प्रदान कर सकेगा, किन्तु सूक्ष्म में प्रवेश करने पर भाषा संबंधी झंझट दूर हो जाते हैं। विचारों का आदान- प्रदान चल पड़ता है। विचार सीधे मस्तिष्क या अंतराल तक पहुँचाए जा सकते हैं। उनके लिए भाषा माध्यम आवश्यक नहीं है। यातायात की व्यवस्था भी स्थूल- शरीरधारी को चाहिए। पैरों के सहारे तो वह घण्टे में प्रायः तीन मील ही चल पाता है। वाहन जिस गति का होगा, उसकी दौड़ भी उतनी ही रह जायेगी।

        एक व्यक्ति की एक जीभ होती है। उसका उच्चारण उसी से होगा। किन्तु सूक्ष्म शरीर की इन्द्रियों का इस प्रकार का बंधन नहीं है। उनकी देखने की, सूँघने की, बोलने की सामर्थ्य स्थूल शरीर की तुलना में अनेक गुनी हो जाती है। एक ही शरीर समयानुसार अनेक शरीरों में भी प्रतिभासित हो सकता है। रास के समय श्रीकृष्ण के अनेक शरीर गोपियों को अपने साथ सहनृत्य करते दीखते थे। कंस वध के समय तथा सिया स्वयंवर के समय उपस्थित जनसमुदाय को कृष्ण और राम की विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ दृष्टिगोचर हुई थीं। विराट् रूप दर्शन में भगवान् ने अर्जुन को, यशोदा को जो दर्शन कराया था, वह उनके सूक्ष्म एवं कारण शरीर का ही आभास था। अलंकार काव्य के रूप में उनकी व्याख्या की जाती है, सो भी किसी सीमा तक ठीक ही है।

[युगऋषि अगले चरण में यह स्पष्ट कर रहे हैं कि स्थूल शरीर की तरह सूक्ष्म शरीर भी हर व्यक्ति के साथ जुड़ा होता है; किन्तु उनकी सामर्थ्यों में बड़ा अन्तर होता है। जैसे स्थूल शरीर में अपाहिजों से लेकर परम बलवान् तक की अनेक श्रेणियाँ होती हैं, उसी तरह सूक्ष्म शरीर की सामर्थ्य की भी श्रेणियाँ होती हैं, जिन्हें विशिष्ट साधनाओं द्वारा ही विकसित किया जाना संभव है।]


        यह स्थिति शरीर त्यागते ही हर किसी को उपलब्ध हो जाय, यह संभव नहीं। भूत- प्रेत चले तो सूक्ष्म शरीर में जाते हैं, पर वे बहुत ही अनगढ़ स्थिति में रहते हैं। मात्र संबंधित लोगों को ही अपनी आवश्यकताएँ बताने भर के कुछ दृश्य कठिनाई से दिखा सकते हैं। पितर स्तर की आत्माएँ उनसे कहीं अधिक सक्षम होती हैं। उनका विवेक एवं व्यवहार कहीं अधिक उदात्त होता है। इसके लिए उनका सूक्ष्म शरीरों को उच्चस्तरीय क्षमता सम्पन्न बनाने के लिए विशेष प्रयत्न करने पड़ते हैं। वे तपस्वी स्तर के होते हैं। सामान्य काया को सिद्ध पुरुष स्तर की बनाने के लिए अनेक साधनाएँ करनी पड़ती हैं।

        इससे अगला कदम सूक्ष्मीकरण का है। सिद्ध पुरुष अपनी काया की सीमा में रहकर जो दिव्य क्षमता अर्जित कर सकते हैं, कर लेते हैं। उसी से दूसरों की सेवा- सहायता करते हैं। किन्तु सूक्ष्म शरीर विकसित कर लेने वाले उन सिद्धियों के भी धनी देखे गये हैं, जिन्हें योगशास्त्र में अणिमा, महिमा, लघिमा आदि कहा गया है। शरीर का हलका, भारी, दृश्य, अदृश्य हो जाना, यहाँ से वहाँ जा पहुँचना, प्रत्यक्ष शरीर के रहते हुए संभव नहीं; क्योंकि शरीरगत परमाणुओं की संरचना ही ऐसी नहीं है, जो पदार्थ विज्ञान की सीमा मर्यादा से बाहर जा सके। कोई मनुष्य हवा में नहीं उड़ सकता और न पानी पर चल सकता है। यदि ऐसा कर सका होता, तो उसने वैज्ञानिकों की चुनौती अवश्य स्वीकार की होती और प्रयोगशाला में जाकर विज्ञान के प्रतिपादनों में एक नया अध्याय अवश्य ही जोड़ा होता। किम्वदन्तियों के आधार पर कोई किसी से इस स्तर की सिद्धियों का बखान करने भी लगे, तो उसे अत्युक्ति ही माना जायेगा। अब प्रत्यक्ष को प्रामाणित किए बिना किसी की गति नहीं।

        प्रश्न सूक्ष्मीकरण का है। यह एक विशेष साधना है, जो स्थूल शरीर में रहते हुए भी की जा सकती है और उसे त्यागने के उपरांत भी करनी पड़ती है। दोनों ही परिस्थितियों में यह स्थिति बिना अतिरिक्त प्रयोग पुरुषार्थ के तप साधना के संभव नहीं हो सकती। इसे योगाभ्यास तपश्चर्या का अगला चरण कहना चाहिए।

        इसके लिए किसे क्या करना होगा? यह उसके वर्तमान स्तर एवं उच्चस्तरीय मार्गदर्शन पर निर्भर है। सबके लिए एक पाठ्यक्रम नहीं हो सकता, किन्तु इतना अवश्य है कि अपनी शक्तियों का बहिरंग अपव्यय रोकना पड़ता है। अण्डा जब तक पक नहीं जाता, तब तक एक खोखले में बंद रहता है। इसके बाद वह इस छिलके को तोड़कर चलने- फिरने और दौड़ने, उड़ने लगता है। लगभग यही अभ्यास सूक्ष्मीकरण के हैं। प्राचीन काल में गुफा सेवन, समाधि आदि का प्रयोग प्रायः इसी निमित्त होता था।
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