चिंताजनक परिस्थितियाँ

        युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ने स्थान- स्थान पर यह बात कही है और लिखी है कि बीच के अंधकार युग में हमारी सांस्कृतिक परम्पराओं के रूप सिकुड़ गये थे या विकृत हो गये थे। उन दिनों काल प्रवाह उल्टा बह रहा था। उस स्थिति में किसी प्रकार उनका अस्तित्व भर बचा लिया गया, यही बहुत है।

        आज मनुष्य- जाति जिस दिशा में चल पड़ी है, उससे उसकी महत्ता ही नहीं, सत्ता का भी समापन होता दीख पड़ता है। संचित बारूद के ढेर में यदि कोई पागल एक माचिस की तीली फेंक दे, तो समझना चाहिये कि यह अपना स्वर्गोपम धरालोक धूल बनकर आकाश में न छितरा जाय। विज्ञान की बढ़ोत्तरी और ज्ञान की घटोत्तरी ऐसी ही विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न करने में बहुत विलंब भी नहीं लगने देंगी।

        औद्योगीकरण के नाम पर बने कारखानों ने संसार भर में वायु- प्रदूषण और जल- प्रदूषण भर दिया है। अणु शक्ति की बढ़ोत्तरी ने संसार भर में विकिरण से वातावरण को इस कदर भर दिया है कि तीसरा विश्वयुद्ध न हो, तो भी भावी पीढ़ियों को अपंग स्तर पर पैदा होना पड़ेगा। ऊर्जा के अत्यधिक उपयोग ने संसार का तापमान इतना बढ़ा दिया है कि हिम प्रदेश के पिघलते जाने से समुद्रों में बाढ़ आ सकती है और ओजोन नाम से जाना जाने वाला पृथ्वी का कवच फट जाने पर ब्रह्माण्डीय किरणें धरती की समृद्धि को भून कर रख सकती हैं। रासायनिक खाद और कीटनाशक मिलकर पृथ्वी की उर्वरता को विषाक्तता में बदलकर रख दे रहे हैं। खनिजों का उत्खनन जिस तेजी से हो रहा है, उसे देखते हुए लगता है कि कुछ ही दशाब्दियों में धातुओं एवं खनिज तेलों का भंडार समाप्त हो जाएगा। बढ़ते हुये कोलाहल से तो व्यक्ति और भी पगलाने लगेंगे। शिक्षा का उद्देश्य उदरपूर्ति भर रह जायेगा, उसका शालीनता के तत्त्वदर्शन से कोई वास्ता न रहेगा। आहार में समाविष्ट होती हुई स्वाद लोलुपता प्रकारांतर से रोग- विषाणुओं की तरह मनुष्य को धराशायी बनाकर रहेगी।

        कामुक उत्तेजनाओं को जिस तेजी से बढ़ाया जा रहा है, उसके फलस्वरूप न मनुष्य में जीवनी शक्ति का भण्डार बचेगा, न बौद्धिक प्रखरता और शील- सदाचार का कोई निशान बाकी रहेगा। पशु- पक्षियों और पेड़ों का जिस दर से कत्लेआम हो रहा है, उसे देखते हुए प्रतीत होता है कि यह प्रकृति छूँछ होकर रहेगी। नीरसता, निष्ठुरता, नृशंसता, निकृष्टता के अतिरिक्त और कोई ऊँचाई पारस्परिक व्यवहार में शायद ही दीख पड़े। मूर्धन्यों का यह निष्कर्ष गलत नहीं है कि मनुष्य सामूहिक आत्महत्या की दिशा में तेजी से बढ़ रहा है। नशेबाजी जैसी दुष्प्रवृत्तियों की बढ़ोत्तरी देखते हुये यह कथन कुछ असंभव नहीं लगता। स्नेह, सौजन्य और सहयोग के अभाव में मनुष्य पागल कुत्तों की तरह एक- दूसरे पर आक्रमण करने के अतिरिक्त और कुछ कदाचित ही कर सके।

        सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक अलेक्जेन्डर मारशेक ने अपनी कृति ‘अर्थ एण्ड होराइजन’ में लिखा है कि भले ही पृथ्वी पर घटने वाली घटनाओं का सूर्य के अन्तर्विग्रह से प्रत्यक्ष संबन्ध न जोड़ा जा सके, किन्तु सांख्यिकी दृष्टि से उनका पृथ्वी से संबंध निर्विवाद रूप से सिद्ध हो गया है। पाया गया है कि जब- जब सौर सक्रियता बढ़ती है, वर्षा तथा तूफानों की बाढ़ आती है, वनस्पति में वृद्धि, ग्रीष्म की अभिवृद्धि के साथ- साथ कहीं- कहीं अकाल, सड़क- दुर्घटनाएँ, युद्ध तथा रक्तपात बढ़ता है। इस अवधि में न केवल भीषण भू- चुम्बकीय उत्पात, अर्थात् भूकंप, ज्वालामुखी विस्फोट होते हैं, वरन् मेरु प्रकाश की असामान्य दिव्य चमक भी देखने में आती है। इसका भी हमारे जीवन पर प्रभाव पड़ता है। अमेरिका के मौसम विज्ञानी डॉ. वेक्सलर ने तो इन्हें मनुष्य के अंतरंग जीवन में बड़े गहरे एवं विलक्षण स्तर के हस्तक्षेप की संज्ञा दी है। यहाँ उल्लेखनीय है कि २०१२ में सौर्य- लपटों के कारण होने वाले परिवर्तनों की चिंता अमेरिकी वैज्ञानिकों को इस हद तक सता रही है कि उन्होंने दो विशेष यान सिर्फ सौर्य लपटों के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए छोड़े हुये हैं।

        ऐसी भयंकर स्थिति संपूर्ण धरा पर पहले रही हो, इसका कोई उदाहरण और प्रमाण इतिहास में नहीं मिलता। विज्ञानवेत्ताओं का यह कथन है कि इन दिनों सौर धब्बों की जो प्रचंडता है, वैसी उग्रता पिछले समय में कभी रही हो, इसके साक्ष्य पिछले आंकड़ों से प्राप्त नहीं होते। ऐसी स्थिति में यह सुनिश्चित जान पड़ता है कि बढ़ी- चढ़ी सौर- लपटों का पृथ्वी के जन- जीवन को अस्त−व्यस्त और क्षतिग्रस्त करने में पूरा हाथ है।
विज्ञान के क्षेत्र में सोचा जा रहा है कि निकट भविष्य में जबकि कोयला और तेल चुक जायेगा, तब ईंधन की कमी पड़ेगी। जलावन की लकड़ी की तो अभी ही कमी पड़ रही है। सन् २१०० तक तो तेल और कोयला कहीं दीख भी नहीं पड़ेंगे। उन्हें पूरी तरह धरती में से निकालकर खत्म कर लिया जायेगा। विज्ञान का ध्यान अब इस ओर मुड़ा है कि विश्व-व्यापी शक्ति का उद्गम-स्त्रोत सूर्य है। सूर्य से पृथ्वी को प्रति घण्टे ५०,००,००,००,००,००,००,००० किलो- वाट ऊर्जा प्राप्त होती है, तो फिर सौर ऊर्जा का सहारा लेकर ही शक्ति की समस्त आवश्यकतायें क्यों न पूरी की जायें? सौर ऊर्जा में इस प्रकार जोखिम कम से कम है, उसका भण्डार कभी चुकने वाला भी नहीं है।






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