अद्भुत् सनातन सूर्योपासना

        सूर्य उपासना सनातन काल से प्रचलित रही है।  वेदों में ओजस्, तेजस् एवं ब्रह्मवर्चस् की प्राप्ति के लिए सूर्य की उपासना करने का विधान है। यजुर्वेद अध्याय १३, मंत्र ४३ में कहा गया है कि सूर्य की, सविता की आराधना इसलिए भी की जानी चाहिए कि वह मानव मात्र के शुभ व अशुभ कर्मों के साक्षी हैं। उनसे हमारा कोई भी कार्य- व्यवहार छिपा नहीं रह सकता। सूर्य की दृश्य व अदृश्य किरणें समस्त बाधाओं (दीवारों) को बेधती हुईं सृष्टि के कण- कण की सूचनाएँ एकत्रित करती रहती हैं। ऋग्वेद में सूर्योपासना के अनेकानेक प्रसंग हैं, जिनमें सूर्य से पाप- मुक्ति, रोग- नाश, दीर्घायुष्य, सुख- प्राप्ति, शत्रु- नाश, दरिद्रता- निवारण आदि के लिए प्रार्थना की गयी है।

        वेदों के अनुसार मन्त्रों में सर्वश्रेष्ठ गायत्री महामन्त्र है और उसका देवता भी ‘‘सविता’’ अर्थात् सूर्य ही है। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है ‘‘सविता वा देवानां प्रसविता।’’ अर्थात् ,, सविता ही देवों का प्रसव करने वाला, अपने अंश से उत्पन्न करने वाला है। जो सूर्य आकाश में दृष्ट है, वह तो मात्र एक स्थूल रूप है। वस्तुतः सूर्य का विस्तार तो अनन्त है। यह ब्रह्माण्ड कितने ही सूर्यों से जगमगा रहा हैं और ये सभी सूर्य शास्त्रानुसार उस अज्ञात महासूर्य की ही उपज हैं। प्राणदायिनी ऊर्जा एवं प्रकाश का एक मात्र स्रोत होने से सूर्य का नवग्रहों में भी सर्वोपरि स्थान है। निश्चय ही भारतीय संस्कृति ने सूर्य के इस सर्वलोकोपकारी स्वरूप को पहले ही जान लिया था, इसीलिए भारतीय संस्कृति में सूर्य की उपासना पर पर्याप्त बल दिया गया है। सूर्योपासना के लौकिक एवं आध्यात्मिक -- दोनों ही प्रकार के अनेकानेक लाभ हैं। निष्काम भाव से दिन- रात, निरंतर अपने कार्य में रत सूर्य असीमित विसर्ग- त्याग की प्रतिमूर्ति है। सूर्य द्वारा ग्रीष्म काल में पृथ्वी के जिस रस को खींचा जाता है, उसे ही चातुर्मास में हजारों गुणा करके पृथ्वी को सिंचित कर दिया जाता है। ऐसे सूर्यदेव सबको इतना ही समर्थ बनाएं, यही सूर्योपासना का मूल तत्त्व है। भारतीय संस्कृति इसी भावना से ओत- प्रोत रही है। इस आधार पर आदि सविता तो परब्रह्म को ही कहा जा सकता है, किन्तु प्रत्यक्ष सूर्य को भी ‘सविता’, अर्थात् परब्रह्म का सर्वोत्त्म प्रतीक कहा गया है।

        सूर्य केवल स्थूल प्रकाश का ही संचार नहीं करता, वह सूक्ष्म, अदृश्य चेतना का भी संचार करता है। सूर्योदय के साथ ही वृक्ष- वनस्पतियों से लेकर छोटे- बड़े जीवों में चेतनात्मक हलचल बढ़ जाती है। इसलिये वेद में उसे विश्व की आत्मा ‘‘सूर्यो आत्मा जगतस्य..’’ कहा गया है। वेद- उपनिषद् आदि प्राचीन साहित्य में सूर्य की महत्ता के सम्बन्ध में अनगिनत उक्तियाँ मिलती हैं। जैसे, सूर्योपनिषद् का मन्त्र है-
आदित्यात् ज्योतिर्जायते। आदित्याद्वेवा जायंते। आदित्याद्वेदा जायंते। असावादित्यो ब्रह्म।
अर्थात् आदित्य से प्रकाश उत्पन्न होता है, देवता उत्पन्न होते हैं, आदित्य से ही वेद उत्पन्न हुए हैं। यह आदित्य ही ब्रह्म है।

अथर्ववेद में लिखा है-

        ‘संध्यानो देवःसविता साविशद् अमृतानि।’ अर्थात् यह सविता देव अमृत तत्त्वों से परिपूर्ण है। और -- ‘तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषः।’ अर्थात् यह परम पुरुष सविता तेज का भण्डार और अमृतमय है।


        आचार्य विनोबा भावे ने सूर्य को परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक, सबसे अच्छा प्रेरणादायी मंदिर कहा है। वह परमात्मा की तरह सतत सचेष्ट है, सब कुछ करते हुए भी सबसे निर्लिप्त है, सबका मित्र, हितैषी है, ममता का व्यवहार करने वाला है। सम्भवतः इसलिए ऋषियों ने सूर्य के माध्यम से परमात्म सत्ता की उपासना को असाधारण महत्त्व दिया है।

        गीता में भगवान् ने सूर्य को सनातन ज्ञान का आदि विस्तारक कहा है। चौथे अध्याय में वे कहते हैं कि यह योग प्रारम्भ में मैंने सूर्य को बताया फिर सूर्य से मनु को तथा मनु से इक्ष्वाकु को प्राप्त हुआ। भगवान् राम सूर्यवंशी थे, इक्ष्वाकु उनके पूर्वज थे। सभी सूर्यवंशी अनिवार्यतः सूर्य के उपासक थे।

        सूर्य के सभी उपासक बड़े तेजस्वी हुए हैं। हनुमान जी ने बचपन में सूर्य को ही गुरु मानकर सूर्य उपासना की थी। भगवान राम लंका विजय के बाद जब अयोध्या लौटे तो दीपावली मनायी गयी। जब राम का राज्याभिषेक हुआ, तो माता सीता एवं भगवान राम ने सूर्य षष्ठी के दिन तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिये सूर्य उपासना की। कर्ण सूर्य भगवान का परम भक्त था। वह प्रतिदिन घण्टों पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देता था। सूर्य की कृपा से ही महान योद्धा बना था। आज छठ में अर्घ्य दान की यही पद्घति प्रचलित है। महर्षि पतंजलि की माँ ने सूर्य उपासना के फलस्वरूप ही उन्हें प्राप्त किया था।
        सूर्यदेव आध्यात्मिक शक्तियों के साथ ही आरोग्य देने वाले भी हैं। भगवान् कृष्ण तथा जामवंती के पुत्र साम्ब का कुष्ठ रोग सूर्य उपासना से ही ठीक हुआ था। सूर्य किरण चिकित्सा, सूर्य नमस्कार आदि का प्रत्यक्ष प्रभाव हम सभी जानते हैं।

        अखण्ड ज्योति पत्रिका में स्वामी विशुद्धानंद की सूर्य उपासना के अनेक प्रयोग चमत्कारी संस्मरण के रूप में प्रकाशित हुए हैं। उन्होंने क्वींस कालेज के अभयनाथ सान्याल तथा अन्य वैज्ञानिकों के समक्ष सूर्य और गायत्री के प्रभाव से सम्बन्धित अनेकानेक प्रयोग कर दिखाये थे। जैसे -- सूर्य की किरणों से ग्रेनाइट पत्थर का निर्माण, रूई को जलाये जाने,  पदार्थ को बदल देने, मनचाही सुगन्धि पैदा कर देने, मृत पक्षी को पुनः जीवित कर देने आदि के प्रयोग। जून १९९३ की अखण्ड ज्योति पत्रिका सूर्य विशेषांक के रूप में लिखी गई है, जिसमें इन विषयों का विस्तृत विवेचन किया गया है।

स्कन्द पुराण की यह उक्ति अनेक कसौटियों पर चोखी सिद्ध होती हैः-
        किं न सविता ददात् सम्यंगु पासितः।
        आयुरारोग्यवैश्वर्यं स्व चापवर्गकम्॥
 
        अर्थात् भली प्रकार उपासना करने पर सविता देव क्या- क्या नहीं देते? आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य, स्वर्ग, अपवर्ग सभी उनकी आराधना से सहज ही प्राप्त हो जाते हैं।

        वैज्ञानिकों ने सूर्य देव के भौतिक रूप से प्रकाश, ऊर्जा और यत्किंचित् काल ज्ञान प्राप्त किया है, किन्तु इसका दैविक पक्ष कहीं अधिक सशक्त और रहस्यमय है। इसकी उपासना से पवित्रता, प्रखरता, वर्चस्, तेजस् जैसी सिद्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं, ब्रह्माण्ड के रहस्य जाने जा सकते हैं, लोक- लोकान्तर के रहस्यों को प्रत्यक्ष किया जा सकता है। विश्व के सारे वैज्ञानिक आज ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत सूर्य को ही मानते हैं।






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