अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान-1

कहीं पाँव रोक न लें सिद्घियाँ

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      योगकथा की प्रत्येक पंक्ति अनुभूति रस में सनी- लिपटी एवं रची- बसी है। यह आमंत्रण है उनके लिए, जो अन्तर्यात्रा विज्ञान को समझना चाहते हैं। साथ ही स्वयं भी अन्तर्यात्रा करने की चाहत रखते हैं। जिनकी चाहत सच्ची है, जिनमें मात्र कौतुक- कौतुहल नहीं आन्तरिक जिज्ञासा है, उनसे कहा जा रहा है कि अब यूँ ही सिकुड़े- सहमे खड़े न रहें, आगे बढ़ें, अपने कदमों में गति लायें। जो बताया जा रहा है, उसे समझें ही नहीं, करें भी और योग विभूतियों के अधिकारी बनें।

        योग साधना के मार्ग पर कदम बाधाएँ रोकें, यह जरूरी नहीं। बाहरी बाधाएँ तो अक्सर साधक के आगे बेबस हो जाती हैं, पर इस मार्ग पर मिलने वाली शक्तियाँ, सिद्धियाँ और विभूतियाँ जरूर साधक को चुनौतियाँ देती हैं। ध्यान रखना होगा कि इनका मिलना छोटा- मोटा तमाशा भर है। महर्षि पतंजलि चेतावनी देते हैं कि इन शक्तियों को अर्जित करना, सिद्धियों को पाना और विभूतियों के अधिकारी बनना सच्चे साधक का उद्देश्य नहीं है। साधक तो इन्हें उपेक्षा भरी दृष्टि से देखकर आगे अपनी मञ्जिल की ओर बढ़ जाता है।

           परम पूज्य गुरुदेव ने ऐसे तमाशों से योग साधकों को सावधान करते हुए गायत्री महाविज्ञान में लिखा है -- ‘कोई ऐसा अद्भुत कार्य करके दिखाना, जिससे लोग यह समझ लें कि यह सिद्धपुरुष है, गायत्री उपासकों के लिए  कडी से वर्जित है। यदि वे इस चक्कर में पडें, तो निश्चित रूप से कुछ ही दिनों में उनकी शक्ति का स्रोत सूख जायेगा और छूँछ बनकर अपनी कष्ट साध्य आध्यात्मिक कमाई से हाथ धो बैठेंगे। उनके लिए संसार को सद्ज्ञान दान कार्य ही इतना महत्त्वपूर्ण है कि उसी के द्वारा वे जनसाधारण के आन्तरिक, बाह्य और सामाजिक कष्टों को भलीभाँति दूर कर सकते हैं और स्वल्प साधनों से ही स्वर्गीय सुखों का आस्वादन कराते हुए लोगों के जीवन को सफल बना सकते हैं। इस दिशा में कार्य करने से उनकी आध्यात्मिक शक्ति भी बढ़ेगी। इसके प्रतिकूल यदि वे चमत्कार के प्रदर्शन के चक्कर में पड़ेंगे, तो लोगों का क्षणिक कौतूहल, अपने प्रति उनका आकर्षण थोड़े समय के लिए भले ही बढ़ा लें, पर वस्तुतः अपनी और दूसरों की इस प्रकार भारी कुसेवा होनी सम्भव है।

इन सब बातों का ध्यान रखते हुए हम कड़े शब्दों में आदेश देते हैं कि योग साधक अपनी सिद्धियों को गुप्त रखें, किसी के सामने प्रकट न करें। जो दैवी चमत्कार अपने को दिखाई दें, उन्हें किसी से न कहें। गायत्री साधकों की यह जिम्मेदारी है कि वे प्राप्त शक्ति का रत्ती भर भी दुरुपयोग न करें। हम सावधान करते हैं कि कोई भी साधक इस मर्यादा का उल्लंघन न करे।’ परम पूज्य गुरुदेव के इस आदेश में सद्गुरु का अपने शिष्यों के लिए मार्गदर्शन एवं पथप्रदर्शन निहित है। महायोगी महर्षि पतंजलि हों या महान् योगसिद्ध परम पूज्य गुरुदेव दोनों ने ही योग साधकों को मन और उसकी वृत्तियों के खतरे से सावधान किया है। साधक को भटकाने वाला दूसरा कोई नहीं, उसका अपना मन और मन की वृत्तियाँ हैं। इनके निग्रह और निरोध से ही योग सधता है। पर यह सम्भव कैसे हो? योग सूत्रकार महर्षि पतंजलि अगले सूत्र में इसका समाधान करते हैं।

अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः॥ १/१२॥ शब्दार्थ- अभ्यास और वैराग्य से; तन्- निरोधः=उनका (वृत्तियों का) निरोध होता है। यानि कि अभ्यास और वैराग्य से इन वृत्तियों का निरोध हो जाता है।

       मन के पार जाना, मन की वृत्तियों के चक्रव्यूह से उबरना है, तो उपाय दो ही है- अभ्यास और वैराग्य। जिस योग साधक के जीवन में ये दोनों तत्त्व हैं, उसकी सफलता निश्चित है। इनमें से एक का अभाव योग साधक को असफल बनाये बिना नहीं रहता। यदि अभ्यास है, पर वैराग्य नहीं है, तो जो भी साधना की जाती है, जो भी योग- ऊर्जा अवतरित होती है, वह सबकी सब विभिन्न इच्छाओं और आसक्तियों के छिद्रों से बह जाती है। साधक सदा खाली का खाली बना रहता है। इसी तरह केवल वैराग्य है, अभ्यास में दृढ़ता नहीं है, तो केवल आलस्य का अँधेरा ही जिन्दगी में घिरा रहता है। ऊर्जा, शक्ति, चैतन्यता की किरणें कहीं भी दिखाई नहीं देती। यही कारण है कि महर्षि दोनों की समन्वित आवश्यकता बताते हैं।

      अभ्यास और वैराग्य को समन्वित रूप से अपनाने में साधना जीवन की सभी समस्याओं का एक साथ समाधान हो जाता है। प्रायः प्रायः सभी साधकों की साधनागत समस्याएँ एवं परेशानियाँ एक ही बिन्दु के इर्द- गिर्द घूमती रहती है -- मन नहीं लगता, मन एक जगह में टिकता नहीं है। धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में अर्जुन ने विश्वम्भर कृष्ण से भी यही समस्या कही थी- ‘चंचलः हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृढम्’ -- हे कृष्ण! यह मन बड़ा की चंचल है, बड़े ही प्रमथन स्वभाववाला और बहुत ही बलवान् है। अर्थात् मन की चंचलता ही इतनी बढ़ी- चढ़ी है कि किसी भी तरह काबू में ही नहीं आती। महारथी अर्जुन के इस सवाल को सुनकर भगवान् कृष्ण ने कहा-

‘श्रीभगवानुवाच असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
 अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥’ -गीता- ६/३५

हे कुन्तीपुत्र महाबाहु अर्जुन! तुम्हारे इस कथन में कोई संशय नहीं है। इस मन की चंचलता किसी भी तरह से वश में आने वाली नहीं है। परन्तु अभ्यास और वैराग्य से इसे बड़ी आसानी से वश में किया जा सकता है। इसके बाद जगद्गुरु कृष्ण अर्जुन को चेताते हुए एक सूत्र और भी कहते हैं-

‘असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः॥’ -- गीता- ६/३६

अर्थात्- जिसके वश में मन नहीं है, ऐसे असंयत साधक के द्वारा योग में सफलता पाना अतिकठिन है, असम्भव है। जबकि जिन्होंने अपने मन को वश में कर लिया है, ऐसे साधक बड़ी आसानी से योग में सफल हो जाते हैं।

    इस प्रकरण में प्रकारान्तर से भगवान् कृष्ण अभ्यास और वैराग्य की साधक के जीवन में अनिवार्य आवश्यकता बताते हैं। इन दोनों तत्त्वों को साधक का परिचय, पर्याय और पहचान भी कहा जा सकता है। यानि कि यदि कोई योग साधक है, तो उसके जीवन में साधनात्मक अभ्यास और वैराग्य होगा ही। इन दोनों के अभाव में साधक और उसकी साधना दोनों ही झूठे हैं।
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