अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान-1

समर्पण से सहज ही मिल सकती है—सिद्घि

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     सिद्घ योगियों द्वारा अपनाये गये इस पथ पर प्रकाश ही प्रकाश है। प्रकाशित पथ पर भी अन्धी आँखों वाले ठोकर खाते रहते हैं। यह अड़चन तब आती है- जब अपने आँखें तो होती हैं, पर पथ पर अँधेरा होता है। ऐसी स्थिति में बस भटकन ही गले पड़ती है।

वस्तुतः आध्यात्मिक जीवन में तीन आँखों की जरूरत पड़ती है। इसमें पहला नेत्र है- आध्यात्मिक जीवन के प्रति निष्कपट जिज्ञासा। ऐसी जिज्ञासा वाले ही इस पथ पर चलने के लिए उत्सुक होते हैं। दूसरा नेत्र है- प्रचण्ड संकल्प। ऐसा संकल्प जगने पर ही अन्तर्यात्रा पर पहला कदम पड़ता है। यात्रा अविराम रहे, इसके लिए तीसरे नेत्र यानि भावभरी श्रद्धा की जरूरत पड़ती है।

     भावभरी श्रद्धा के महत्त्व को अन्तर्यात्रा विज्ञान के महानतम वैज्ञानिक महर्षि पतंजलि भी स्वीकारते हैं। यह सत्य है कि संकल्प की ऊर्जा जिसकी जितनी है, वह उसी क्रम में अपनी साधना में सफल होगा। महासंकल्पवान् प्रचण्ड संकल्प के धनी अपने साधना पथ पर तीव्र गति से चलने में समर्थ होते हैं। संकल्प की इस ऊर्जा का स्रोत साधक का सूक्ष्म शरीर होता है। जिसका सूक्ष्म शरीर जितना प्रखर और पवित्र होता है, उसके संकल्प उतने ही ऊर्जावान् होते हैं। लेकिन इसके अलावा भी एक मार्ग है- क्या? इस प्रश्र के समाधान में महर्षि कहते हैं-

ईश्वरप्रणिधानाद्वा॥ १/२३॥

शब्दार्थ- वा= इसके सिवा; ईश्वरप्रणिधानात्=ईश्वर प्रणिधान से भी (समाधि में सफलता मिल सकती है)।
   अर्थात् सफलता उन्हें भी उपलब्ध होती है, जो ईश्वर के प्रति समर्पित होते हैं।

महर्षि का यह सूत्र ‘गागर में सागर’ की तरह है। रत्नाकर कहे जाने वाले सागर में जितने रत्न भण्डार है, वे सभी इस सूत्र की गागर में है। ईश्वर समर्पण में बड़े ही गहन भाव समाये हैं। साधक इनके विस्तार का इसी से अनुमान कर सकते हैं कि आध्यात्मिक जगत् की दो महादुर्लभ विभूतियों महर्षि शाण्डिल्य एवं देवर्षि नारद ने इन पर अलग- अलग सूत्र लिखे हैं। शाण्डिल्य भक्ति सूत्र एवं नारद भक्ति सूत्र इन दोनों ग्रन्थों का आध्यात्मिक साहित्य में अनूठा स्थान है। यदि सार- संक्षेप में स्थिति बयान करें तो ये दोनों ही सूत्र ग्रन्थ- महर्षि पतंजलि के इस सूत्र की सरस व्याख्या भर है। यदि भगवान् महाकाल- परम बोधमय गुरुदेव की करुणा हुई, तो जिज्ञासु इस सत्य पर अनुभव भविष्य में कर सकेंगे।        

 अभी यहाँ पर तो इस सूत्र के विज्ञान का विवेचन ही अपेक्षित है। ईश्वर प्रणिधान या प्रभु को भावभरा समर्पण साधक की सघन श्रद्धा से ही सम्भव होता है। श्रद्धा है, तो ही समर्पण की बात बनेगी। श्रद्धा के अभाव में भला समर्पण की सम्भावनाएँ कहाँ। श्रद्धा और समर्पण ये दोनों ही आध्यात्मिक साहित्य में सुपरिचित शब्द हैं, परन्तु कम ही साधक होंगे, जो इनकी वैज्ञानिक स्थिति से परिचित होंगे। जबकि इनके विज्ञान को जानने वाला ही श्रद्धा के आध्यात्मिक प्रयोग कर सकता है। इस वैज्ञानिक प्रक्रिया से अपरिचित व्यक्ति के लिए ‘श्रद्धा’ या तो केवल एक शब्द है अथवा फिर कोरी भावुकता का दूसरा नाम।

     परम पू. गुरुदेव ने अपनी व्यक्तिगत चर्चाओं के क्रम में एक दिन बताया था कि श्रद्धा वह अलौकिक तत्त्व है, जिससे पल- पल चमत्कार घटित होते हैं। एक शिष्य की जिज्ञासा में उन्होंने कहा- श्रद्धा क्या है? कैसी है? इसे लोग जानते ही कहाँ हैं बेटा! बस खाली जबान से श्रद्धा- श्रद्धा रटते रहते हैं, इसकी सच्चाई से कहाँ कोई वाकिफ है! यह सच्चाई समझ में आ जाये, तो फिर बाकी क्या बचता है। सब कुछ अपने आप ही हो जाता है। महायोगी परम पू. गुरुदेव के शब्दों में कहें, तो जिस प्रकार संकल्प सूक्ष्म शरीर की ऊर्जा है, उसी प्रकार श्रद्धा कारण शरीर की ऊर्जा की घनीभूत स्थिति है।

    साधक जब अपने कारण शरीर पर केन्द्रित होता है, तो श्रद्धा जन्म लेती है। यह स्थिति भावुकता से विपरीत है। भावुकता भावनाओं की चंचल और अस्थिर स्थिति में उठती हैं, जबकि श्रद्धा के जन्मते ही भावनाएँ स्थिर, एकाग्र एवं लक्ष्य परायण होने लगती हैं। श्रद्धा की सघनता के क्रम में ये सभी तत्व बढ़ते हैं। साधक स्मरण रखे कि कारण शरीर हमारी मानवीय चेतना का केन्द्र है। हमारे अस्तित्व का गहनतम तल है। यहाँ संघनित होने वाली ऊर्जा का अन्य सभी तलों की ऊर्जा की अपेक्षा सर्वोपरि महत्त्व है। इसकी सामर्थ्य भी कहीं ज्यादा बढ़ी- चढ़ी है। यहाँ जो हो सकता है, वह कहीं और नहीं हो सकता।

स्थूल शरीर का सम्बन्ध कर्म जगत् यानि कि व्यवहार जगत् है, सूक्ष्म शरीर सीधे विचार जगत् यानि कि चेतन जगत् से जुड़ा है, जबकि कारण शरीर सीधा महाकारण अर्थात् ब्राह्मी चेतना से है। यहाँ होने वाली हलचलें विचारों एवं कर्मों की दिशा तय करती है। ध्यान रहे, विचार हमें समर्पण के लिए प्रेरित तो कर सकते हैं, परन्तु समर्पण करा नहीं सकते। कर्म और विचार यानि कि स्थूल व सूक्ष्म की सभी शक्तियाँ मिलाकर भी कारण शरीर का मुकाबला नहीं कर सकती, जबकि कारण शरीर में उपजी हलचलें सूक्ष्म व स्थूल यानि कि कर्म व विचारों को अपने पीछे आने के लिए बाध्य व विचार कर सकती है।
    
यही कारण है कि श्रद्धा व समर्पण परस्पर जुड़े है। सम्पूर्ण श्रद्धा सम्पूर्ण समर्पण को साकार करती है। और यह समर्पण या तो ईश्वर के प्रति होता है अथवा ईश्वरीय भावनाओं के प्रति जिसके साकार व सघन स्वरूप गुरुदेव होते हैं। श्रद्धा अपनी सघनता के अनुक्रम में ब्राह्मी चेतना में घुलने- मिलने लगती है। इस घुलने- मिलने का अर्थ है- ब्राह्मी चेतना के प्रवाह का साधक में प्रवाहित होना। ऐसी स्थिति बन पड़े, तो फिर सभी असम्भव स्वयं ही सम्भव बन जाते हैं। कृष्ण और मीरा का मिलन इसी तल पर हुआ था। श्री रामकृष्ण माँ काली से चेतना के इसी सर्वोच्च शिखर पर मिले थे। ऐसा होने पर समाधि सहज सम्भव होती है। क्योंकि जो प्रभु अर्पिर्त है- जो ईश्वर की शरण में हैं, उनके लिए सब कुछ भगवान् स्वयं करते हैं। समाधि तो इस क्रम में बहुत ही सामान्य बात है।
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