अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान-1

ऐसा है—वह घट-घट वासी

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    महर्षि पतंजलि और गुरुदेव के स्वरों में आमंत्रण के मधुर गीत मुखरित हैं। यह आमंत्रण उनके लिए है, जो अन्तर्यात्रा पथ पर चलने के लिए उत्सुक हैं। अपने आपसे इसी समय पूछिए कि क्या आपमें यह उत्सुकता है? यदि जवाब हाँ है, तो महर्षि पतंजलि एवं ब्रह्मर्षि गुरुदेव आपकी अंगुली थामने के लिए तैयार हैं। ये महायोगिराज आपकी अन्तर्यात्रा को सुगम करने के लिए प्रत्येक सरंजाम जुटाएँगे। बस आपमें श्रद्धा और साहस की सम्पदा होनी चाहिए। ध्यान देने की बात यह है कि ऐसा कुछ आप में है, तो ही आप आमंत्रण के इन गीतों को सुन पाएँगे। तभी इन गीतों की स्वर लहरियाँ आपकी अन्तर्भावना में प्रभु प्रेम का रस घोलेंगी। ऐसा होने पर ही आपकी अन्तर्चेतना में जागरण का महोत्सव मनाया जा सकेगा।

जीवन को महोत्सव बनाने वाले भगवान् की शरण में जाने के लिए उनकी स्पष्ट धारणा जरूरी है। साधक के मन में यह प्रश्न सदा से कौंधता रहा है—उन सर्वेश्वर का स्वरूप क्या है? इस सवाल के जवाब में महर्षि अगला सूत्र कहते हैं-

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः
पुरुषविशेष ईश्वरः॥ १/२४॥

क्लेशकर्मविपाकाशयै= क्लेश, कर्म, विपाक और आशय- इन चारों से, अपरामृष्टः = जो सम्बन्धित नहीं है (तथा), पुरुषविशेषः = जो समस्त पुरुषों में उत्तम है, वह ईश्वरः = ईश्वर है।

अर्थात् ईश्वर सर्वोत्कृष्ट है। वह दिव्य चेतना की वैयक्तिक इकाई है। वह जीवन के दुःखों से तथा कर्म उसके परिणाम से अछूता है।

अध्यात्म विज्ञान के महावैज्ञानिक महर्षि पतंजलि ईश्वर को बड़ी स्पष्ट रीति से परिभाषित करते हैं। यह परिभाषा साधकों के लिए आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य भी है। क्योंकि यह ऐसा शब्द है, ऐसा सत्य है जिसके बारे में ज्यादातर लोग भ्रमित हैं। शास्त्र, पुराण, धर्म, मजहब सबने मिलकर ईश्वर की अनेकों धारणाएँ गढ़ी है। कोई तो उसे सातवें आसमान में खोजता है, तो कोई मन्दिरों, पूजागृहों में ढूँढता है। कोई उसकी कल्पना मानवीय रूप में करता है, तो कोई आकार विहीन मानता है। बड़ी जहमत है- किसे कहें सही और किसे ठहराएँ गलत। सामान्य जनों की बात तो जाने दें, अध्यात्मवेत्ताओं तक का मन इस बारे में साफ नहीं है। वे भी कई तरह की भ्रान्तियों में उलझे हैं।

   महर्षि पतंजलि अपने इस सूत्र में सभी की सभी तरह की भ्रान्तियों का एक साथ निराकरण करते हैं। वह कहते हैं कि पहले तो ईश्वर को किसी व्यक्तित्व में न बाँधो। वह सभी बन्धनों से मुक्त है। व्यक्तित्व के लिए जो पर्सनल्टी शब्द है, वह यूनानी शब्द पर्सोना से आया है। यूनान के गुजरे जमाने में वहाँ नाटक मण्डलियों में अभिनेता अपने चेहरों पर एक मुखौटा लगाया करते थे। इन मुखौटों को कहते थे ‘पर्सोना’ यानि वह चेहरा जो दिखावटी है, जिसे हम ओढ़े रहते हैं। विचार करने पर इस सम्बन्ध में कई मजेदार बातें सामने आएँगी। उदाहरण के लिए जब हम दूसरों के साथ कार्यालय में या कहीं और व्यवहार करते हैं, तो स्थिति कुछ और होती है। पर जब हम अपने बाथरूम में होते हैं, रात सोते समय बिस्तर पर होते हैं, तो स्थिति बदली हुई होती है।         
 योगिवर कहते हैं कि ईश्वर ऐसे बदलते मुखौटों में बँधा नहीं है। वह पुरुषोत्तम है, पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ है। और साथ ही चेतना की एक परम पवित्र अवस्था। यह अवस्था ऐसी है, जिसे न तो क्लेश छू पाते हैं, न कर्म और न विपाक तथा न ही आशय। इन सभी से ईश्वरीय चेतना अछूती है। क्लेश, कर्म, विपाक और आशय ये क्या हैं? अच्छा हो इन सबको हम महर्षि के सूत्रों की भाषा में ही जानें। तो पहले स्थान पर है क्लेश। इसका विस्तृत ब्योरा पतंजलि ने दूसरे पाद के तीसरे सूत्र से नवे सूत्र तक दिया है। उन्होंने इस प्रकरण में पाँच क्लेश गिनाये हैं- १. अविद्या, २. अस्मिता, ३. राग, ४. द्वेष एवं ५. अभिनिवेश। ये पाँचों क्लेश हम सभी को कभी न कभी व्यापते हैं। परन्तु ईश्वर को इनमें से कोई क्लेश छू भी नहीं सकता।

      जहाँ तक कर्म की बात है, तो महर्षि ने अपने योग सूत्र के चतुर्थ पाद के ७ वें सूत्र में इसकी चर्चा की है। वह कहते हैं कि कुल चार तरह के कर्म होते हैं- १. पुण्य कर्म, २. पाप कर्म, ३. पुण्य एवं पापमिश्रित कर्म एवं ४. पुण्य एवं पाप से रहित कर्म। ईश्वरीय चेतना कभी भी, किसी भी तरह इन कर्मों से लिप्त नहीं होती। इन चारों प्रकार के कर्मों में कोई भी कर्म उसे छू- पाने में समर्थ नहीं होते। तीसरा क्रम विपाक का है। विपाक यानि कि कर्मों का फल। तो जब कर्म ही नहीं तो कर्मों का फल कहाँ? कर्म के लिए किसी फल की पहुँच ईश्वर तक नहीं है। ये तो बस जीवों को ही बाँधते हैं। इस कर्म विपाक के स्वरूप की चर्चा महर्षि पतंजलि ने द्वितीय पाद के १३ वें सूत्र में की है।

     चौथे क्रम में आशय है। महर्षि के अनुसार कर्म संस्कारों के समुदाय का नाम आशय है। इसकी व्याख्या योगसूत्र के द्वितीय पाद के १२ वें सूत्र में मिलती है। यह आशय ही जीवात्मा को बाँधता है। उसको यत्र- तत्र घसीटता फिरता है। उसकी परिस्थितियों एवं मनःस्थिति में बदलाव के सारे सरंजाम आशय के द्वारा ही जुटते हैं। इसी से हँसने- रोने की स्थिति बनती है। यह न हो तो फिर आनन्द ही आनन्द है। ईश्वर इससे अछूता रहने के कारण आनन्द का परम स्रोत है। सामान्य जीवों को इन चारों के बंधन में बँधना पड़ता है। परन्तु ईश्वर इनसे सर्वथा मुक्त है। इतना ही नहीं जो उसका चिन्तन करते हैं, जो उसमें समर्पित होते हैं, वे सब भी उसी अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं।

       ईश्वरीय चेतना को जो इस रूप में जानते हैं, वे ही साथ से परिचित होने का सौभाग्य प्राप्त करते हैं। यही नहीं उनका सम्पूर्ण जीवन एक उत्सव का रूप ले लेता है। युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव कहते थे कि नदियाँ, झरने, वृक्ष, बहारें सभी आनन्द मना रहे हैं। एक इन्सान ही चिन्तित- परेशान है। ऐसा सिर्फ इसलिए है क्योंकि वह जीवन को कर्म की भाँति देखता है, जबकि जगत् तो ईश्वर की लीला है। यदि हम उसकी लीला के सहचर हो सके, तो हमारा अपना जीवन अभी इसी क्षण आनन्द का निर्झर बन जाए।
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