जो जग गया, उसमें साधना के लिए तीव्र लगन और गहरा समर्पण उपजेगा ही, वही इस योगकथा के सत्य को समझने के लिए सुपात्र भी हैं। महर्षि पतंजलि केवल सुपात्रों और सत्पात्रों को ही जिन्दगी के रहस्य एवं विभूतियाँ सौंपने के इच्छुक हैं। जो सत्पात्र नहीं है, जिनकी साधना नियमित और सघन नहीं है, वे इस अन्तर्यात्रा विज्ञान के शब्दों कों तो हथिया सकते हैं, पर इनका सत्य उनसे सदा दूर रहेगा। एक महान् वैज्ञानिक की भाँति महर्षि पतंजलि ने अपने अन्तर्यात्रा विज्ञान में ऐसी व्यवस्था कर रखी है। जो अनाधिकारी हैं, वे सदा वंचित रहेंगे। अन्तर्यात्रा विज्ञान का सत्य एक ही है, अधिकारी बनें और प्राप्त करें।
यह योगकथा आपको श्रेष्ठतम अधिकारी बनाने के लिए ही है। अपने जीवन को रूपान्तरित करके आप वह पा सकते हैं, जो महर्षि पतंजलि आपको सौंपने के लिए इच्छुक हैं, परम पूज्य गुरुदेव ने जिसे खास आपको देने के लिए सम्हाल कर रखा हुआ है। महर्षि कहते हैं कि वृत्तियों के फेर में हमारा जीवन भले ही कितना ही क्लिष्ट क्यों न हो, पर यह योग विधि से अक्लिष्ट या सुखकर हो सकता है। इसी क्रम में महॢष पाँचवी और अन्तिम वृत्ति के रहस्य को उजागर करते हैं :-
अनुभूतविषया सम्प्रमोषः स्मृतिः॥ १/११॥
शब्दार्थ- अनुभूत= अनुभव किए हुए, जाने हुए; विषय= (किसी) विषय का; असम्प्रमोषः = जो खोया हुआ न हो- यानि कि चित्त में संग्रहित हो, उसका ज्ञान होना; स्मृतिः= स्मृति है। संक्षेप में, किन्तु स्पष्ट स्वरों में- स्मृति पिछले अनुभवों को स्मरण करना है।
मन की इस पाँचवी वृत्ति के रूप में स्मृति की शक्ति का थोड़ा- बहुत अनुभव हममें से प्रायः सभी को है। बच्चों से लेकर वृद्धजनों तक सभी अपनी- अपनी स्मृति का उपयोग करते रहते हैं। विद्यार्थियों के लिए तो यह स्मृति क्षमता वरदान ही है। इसी आधार पर उन्हें श्रेष्ठता का गौरव मिलता है। स्मृति के निरन्तर और अविराम उपयोग के बावजूद इसके गहन रहस्यों के बारे में बहुसंख्यक जन अनजान ही हैं। ज्यादातर लोगों के लिए तो बस यह स्मृति कभी दुःख देती है, तो कभी सुख। कभी वे इस वृत्ति के क्लिष्ट रूप का अनुभव करते हैं, तो कभी अक्लिष्ट रूप का अहसास करते हैं। यादों के झोंके कभी तो उन्हें रुला जाते हैं, तो कभी अचानक इनका स्पर्श उन्हें हँसा देता है। स्मृति के इन्हीं रूपों एवं पर्यायों से हम परिचित हैं। पर क्या सत्य इतना ही है?
इस महाप्रश्न का उत्तर हमारी अपनी अन्तश्चेतना की गहराइयों में है। जिसकी अनुभूतियों से हम अभी तक अछूते हैं। सामान्य क्रम में हम स्मृति का अर्थ वही यादें समझते हैं, जो बचपन से लेकर अब तक हमारे साथ जुड़ी हैं। लेकिन यादों का यह क्रम यहीं तक सीमित तो नहीं है। इसके दायरे में वह सब भी है, जो इस जीवन के पार और परे है। इसमें वे अनुभव भी आते हैं, जो हमें विगत जन्मों में भी हुए हैं। उनकी यादें भी तो हमारे अपने ही चित्त में संग्रहीत है। भले ही काल क्रम में ये थोड़ा धुँधली पड़ गयी हों। इन्हें पार करते हुए यदि हम अपने अस्तित्व के केन्द्र में झाँके, तो एक मूल्यवान् स्मृति और भी है- और वह हमारे अपने ही स्वरूप का अनुभव। हमारा वह स्वरूप जिसके लिए बाबा तुलसीदास ने कहा है- ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखराशी॥’ इस मौलिक अनुभव की स्मृति तो जैसे एकदम ही लुप्त हो गयी है। इस स्मृति पर न जाने कितनी स्मृतियों ने धुँधले आवरण डाल दिए हैं।
लेकिन यह हुआ कैसे? गीता माता कहती है कि इसकी एक लम्बी कड़ी है। ‘संगात् संजायते कामः, कामात् क्रोधोऽभिजायते। क्रोधाद् भवति संमोहः, सम्मोहात् स्मृति विभ्रमः॥’ यानि कि विषयों के संग से उनकी कामना, फिर कामना से क्रोध, फिर क्रोध से सम्मोह और इस सम्मोह से स्मृति भ्रम। यह क्रम यहीं नहीं खत्म होता। आगे की कड़ियाँ और भी हैं- ‘स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति।’ अर्थात्- स्मृति भ्रंश से बुद्धि का नाश और बुद्धि के नाश से स्वयं का नाश। आज के इन क्षणों में हमारी अपनी क्या दशा है? यह हम बड़ी अच्छी तरह से जान सकते हैं।
इस स्थिति से उबरने का उपाय क्या है? इस सवाल के जवाब में परम पूज्य गुरुदेव कहते हैं- उपाय एक ही है- उलटे को उलटकर सीधा करना। अर्थात् आत्मनाश की स्थिति से बचने के लिए पहले हमें आत्मउद्धार का संकल्प लेना होगा। फिर बुद्धिनाश की स्थिति को उलटने के लिए महाप्रज्ञा माता गायत्री का आँचल थामना होगा। वही हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर ले जा सकती है। इसके पश्चात् स्मृति विभ्रम दूर होना शुरू होता है। यानि कि तब हमें गायत्री साधना के बीच में अपने स्वरूप की हल्की झलकियाँ मिलती हैं। लेकिन सम्मोह का जाल अभी भी बना रहता है। यह तब टूटता है, जब क्लिष्ट स्मृति यानि जीवन के ईर्ष्या, द्वेष, वैरभाव या विषयानुभूति की यादों को अपने पास न फटकने दें। इनके स्थान पर याद करें- सत्पुरुषों के संग को, अपने सद्गुरु के संग और उनके वचनों को। इससे न केवल सम्मोह नष्ट होता है, बल्कि क्रोध भी नष्ट होता है। विषयों की कामना भी जाती रहती है। फिर उनके संग की चाहत भी नहीं पैदा होती।
उलटे को उलटकर सीधा करने का पूरा क्रम यही है। यह क्रम पूर्ण होते ही अन्तश्चेतना में शुद्ध सत्त्व का उदय होता है। इस शुद्ध सत्त्व का परिणाम है- ध्रुवा स्मृतिः अर्थात् अपने और परम चेतना के शाश्वत सम्बन्धों की दृढ़ भावानुभूति। इस सत्य को प्रकट करते हुए उपनिषदों का कथन है- ‘शुद्ध सत्त्व ध्रुवाःस्मृतिः’ स्मृति की साधना का सार यही है कि हम ईर्ष्या, वैरभाव, विषयभोगों से जुड़ी हुई यादों को हटाकर- भगाकर बार- बार अपनी आत्मचेतना को पवित्र करने वाली यादों को दुहराएँ।
सन्तों ने इसी को सुमिरन कहा है। सुमिरन यानि की प्रभु की याद, अपने आत्मस्वरूप का बार- बार चिन्तन। यही स्मृति का सार्थक उपयोग है। मानव चेतना के रहस्य इसी से उजागर होते हैं। अपने स्मृति विभ्रम के कारण हम भूल चुके हैं कि आखिर हम कौन हैं? हमारा अपना ही परिचय हमसे खो गया है। स्वयं की याद का ही विलोप हो गया है। हाँ, दूसरों की भली- बुरी न जाने कितनी ही यादों को हम ढोते फिरते हैं। मर्म को छूती परम पूज्य गुरुदेव की पुस्तक -- ‘मैं कौन हूँ?’ में उन सभी विधियों का समावेश है- जिससे हम अपनी खोयी स्मृतियों को पा सकते हैं। इसके साधना सूत्र बड़े ही प्रभावकारी हैं। स्मृति के रहस्य के जिज्ञासु साधकों के लिए यह पुस्तक नित्य पठनीय है। ध्यान रहे- हमारे दैनिक जीवन के सारे दुःखों के मूल में एक मात्र सत्य यही है कि हमने अपनी स्मृति को कष्टकारक बना लिया है। स्थिति को उलटने के लिए हमें इसे ही सुखकारक बनाना होगा। तभी योग की असल मंजिल की तरफ कदम बढ़ते रह सकते हैं।