अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान-1

मन मिटे, तो मिले—चित्तवृत्ति योग का सत्य

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
जिनकी अन्तर्चेतना में शिष्यत्व जन्म ले चुका है, उन्हें महर्षि पतंजलि समाधिपाद के दूसरे सूत्र में योग के सत्य को समझाते हैं। इस दूसरे सूत्र में महर्षि कहते हैं-

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः॥ १/२॥

यही योग की मूलभूत एवं मौलिक परिभाषा है। इस सूत्र के शब्दों का अर्थ है- योगः= योग, चित्तवृत्तिनिरोधः= चित्त की वृत्तियों को रोकना (है)। लेकिन साधकों की दृष्टि में इस सूत्र का अर्थ है- योग मन की समाप्ति है। परम पूज्य गुरुदेव योग साधना के इस सत्य को समझाते हुए कहा करते थे- ‘साधक का मन मिटे, तो उसे योग की सच्चाई समझ में आए।’ महर्षि पतंजलि एवं गुरुदेव दोनों ही खरे वैज्ञानिक हैं, एकदम गणितज्ञ। वे इधर- उधर की बातें करके न अपना समय खराब करते हैं और न ही साधकों का।

उन्होंने पहले भी प्रथम सूत्र में एक वाक्य कहा था- ‘अब योग का अनुशासन’- और बस बात समाप्त। इस एक वाक्य में उन्होंने परख लिया कि साधकों में सच्चाई कितनी है, उनमें खरापन कितना है। यदि वे सच्चे और खरे हैं, योग में उनकी सचमुच में रुचि है- आशा, अभिलाषा के रूप में नहीं, अनुशासन के रूप में, जीवन के रूपान्तरण के रूप में, अभी और यहाँ। ऐसे खरे और सच्चे साधकों को वे योग की परिभाषा देते हैं, योग मन की समाप्ति है। मन मिटे, तो बात बने।

यही योग की परिभाषा है, सही और सटीक। अलग- अलग आचार्यों ने, शास्त्रों ने योग को कई तरह से परिभाषित किया है। उन्होंने अनेकों परिभाषाएँ ढूँढी और बतायी हैं। कुछ का मत है—योग दिव्य सत्ता के साथ मिलन है। इनके अनुसार योग का मतलब ही मिलना, दो का जुड़ना। कई कहते हैं—योग का मतलब है—अहंकार का ढह जाना। उनके अनुसार अहंकार बीच में दीवार है, जिस क्षण यह दीवार ढह जाती है, साधक दिव्य सत्ता से जुड़ जाता है। दरअसल यह जुड़ाव, तो पहले से ही था वह अहंकार के कारण भेद लगता रहा।

ऐसी और भी अनेकों व्याख्याएँ हैं, परिभाषाएँ हैं। जैसे श्रीमद्भगवद्गीता में ‘समत्वं योग उच्यते’ तथा ‘योगः कर्मसुकौशलम्’ कहकर योग को परिभाषित किया गया है, लेकिन महर्षि पतंजलि इन सभी आचार्यों- शास्त्रकारों से कहीं ज्यादा वैज्ञानिक हैं। वे पत्ते और टहनियाँ नहीं, सीधे जड़ पकड़ते हैं। गीता में बतायी गयी समता एवं कर्मकुशलता मिलेगी कैसे? दिव्य सत्ता से साधक के अस्तित्व का जुड़ाव होगा किस तरह? महर्षि पतंजलि की परिभाषा में इन सभी सवालों का सटीक जवाब है। वे कहते हैं, जब मन का अवसान हो जाएगा, जब मन मिट जाएगा। उनके अनुसार योग अ- मन की दशा है।

पतंजलि की इस बात को गुरुदेव एक नयी वैज्ञानिक अनुभूति देते हैं। वे कहते हैं सारा कुछ मन का जादू, इन्द्रजाल है। यह हटा कि समझो सारा भ्रम मिटा। उनके अनुसार यह शब्द ‘मन’ सब कुछ को अपने में समेट लेता है- अहंकार, इच्छाएँ, कामनाएँ, कल्पनाएँ, आशाएँ, तत्त्वज्ञान और शास्त्र। जहाँ कुछ जो भी सोचा जा सकता है, सोचा जा रहा है, वह मन है। जो भी जाना गया है, जो भी जाना जा सकता है, जो भी जानने लायक समझा जाता है, वह सब का सब मन के दायरे में है। मन की समाप्ति का मतलब है—जो जाना है, उसकी समाप्ति और जो जानना है उसकी समाप्ति। यह तो छलांग है- ज्ञानातीत में। जब मन न रहा, तो जो बचा वह ज्ञानातीत है। मन के इसी सत्य को गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने अपनी रामायण में गाया है- ‘गो गोचर जहाँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥’ अर्थात् इन्द्रियाँ, इन्द्रियों की पहुँच और जहाँ- जहाँ तक मन जाता है, हे भाई, तुम उस सब को माया जानना, मिथ्या समझना। महर्षि पतंजलि के अनुसार इसी माया का मिटना, मिथ्या का हटना यानि कि मन का समाप्त होना योग है।

मन की परेशानी, मन से परेशानी, साधकों का सबसे अहम् सवाल है, सबसे जरूरी और महत्त्वपूर्ण प्रश्र है। इस उलझन को सुलझाने के लिए सबसे पहले यह जान लें कि आखिर मन अपने आप में है क्या? यह हमारे भीतर बैठा हुआ क्या कर रहा है, क्या- क्या कर रहा है? आमतौर पर सब यही सोचते रहते हैं कि मन सिर में पड़ी या रखी हुई कोई भौतिक चीज है। पर परम पूज्य गुरुदेव इस बात को नहीं स्वीकारते। वह कहते हैं कि जिसने भी मन को अन्दर से पहचान लिया है, वह ऐसी बातें नहीं स्वीकारेगा। आज- कल का विज्ञान भी ऐसी बातों से इन्कार करता है। गुरुदेव कहते हैं मन एक वृत्ति, क्रियाशीलता है।

अब जैसे कि कोई चलता हुआ आदमी बैठ जाय, तो बैठने पर उसका चलना कहाँ भाग गया? तो बात इतनी सी है कि चलना कोई वस्तु या पदार्थ तो थी नहीं, वह तो एक क्रिया है। इसलिए कोई किसी के बैठने पर यह नहीं पूछा करता कि तुमने अपना चलना कहाँ छुपा कर रख दिया? यदि कोई किसी से ऐसा पूछने लगे, तो सामने वाला जोर से हँस पड़ेगा। वह यही कहेगा कि यह तो क्रिया है। मैं चाहूँ, तो फिर से चल सकता हूँ, बार- बार चल सकता हूँ। चाहने पर चलना रोक भी सकता हूँ। बस, कुछ इसी तरह मन भी एक तरह का क्रियाकलाप है। बस, मन या ‘माइण्ड’ शब्द से किसी तत्त्व या पदार्थ के होने का भ्रम होता है। यदि इस माइण्ड को माइण्डिंग कहा जाय, तो सत्य शायद ज्यादा साफ हो जाय। जैसे बोलना टाकिंग है, ठीक वैसे ही सोचना माइण्डिंग्। यह सक्रियता थमे, तो मन का अवसान हो और साधक योगी बने।

योग की इस सच्चाई को बताने के लिए गुरुदेव यदा- कदा एक कथा सुनाया करते थे। वह कहते थे कि वाराणसी में रहने वाले महान् सन्त तैलंग स्वामी के पास एक किसी बड़ी रियासत के राजा गए और उन राजा ने तैलंग स्वामी से कहा, महाराज, मेरा मन बहुत बेचैन है, बहुत अशान्त- परेशान है। आप महान् सन्त हैं, मुझे बताएँ कि मैं क्या करूँ, जिससे कि मेरा मन शान्त हो जाय।

तैलंग स्वामी वैसे तो बड़े कोमल स्वभाव के थे, पर कभी- कभी उनका रुख बड़ा अक्खड़ हो जाता। उस दिन भी उन्होंने बड़े अक्खड़पने से कहा, कुछ भी मत करो। पहले अपना मन मेरे पास लाओ। उस राजा को कुछ भी समझ में नहीं आया। उसने कहा, महाराज आप क्या कह रहे हैं? मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा। तैलंग स्वामी ने उसकी बातों की अनसुनी करके उससे कहा, ऐसा करो, सुबह चार बजे मेरे पास यहाँ कोई नहीं होता, तब आना और अकेले आना। और ध्यान रखना, अपना मन भी अपने साथ लेते आना, भूलना मत।

वह राजा सारी रात सो नहीं पाया। कई बार उसने सोचा कि वह उनके पास नहीं जाएगा। बार- बार वह अपने आप से कहता- इन स्वामी जी को लोग बेकार इतना बड़ा ज्ञानी मानते हैं, यह तो बहकी- बहकी बातें करते हैं। आखिर क्या मतलब है उनका यह कहने से भूलना नहीं, अपना मन भी अपने साथ लेकर आ जाना।

उस राजा को उस रोज ऊहापोह भारी रही। परन्तु चाहकर भी वह उस भेंट को रद्द न कर सके। तैलंग स्वामी थे ही इतने मोहक एवं चुम्बकीय। राजा को रात भर यही लगता रहा कि कोई अद्भुत चुम्बक उन्हें अपनी ओर खींच रहा है। चार बजने से कुछ पहले ही वह बिस्तर से उठ बैठा और कहने लगा, मैं उनके पास जाऊँगा जरूर। वे थोड़ी सी बहकी हुई बातें करते हैं, तो क्या हुआ, पर उनकी आँखें कहती हैं कि उनके पास कुछ अवश्य है।

ऐसे ही सोच- विचार करते हुए वह तैलंग स्वामी के पास पहुँच गया। पहुँचते ही उन्होंने कहा, आ गए तुम, कहाँ है तुम्हारा मन? राजा बोला, आप भी कैसी बातें करते हैं स्वामी जी! मेरा मन भला और कहाँ होगा, वह तो मुझमें ही है। तैलंग स्वामी बोले, अच्छा तो पहले तो इस बात का निर्णय हो गया कि तुम्हारा मन तुममे ही है। तो अब दूसरी बात मेरी कही हुई करो, अब आँखें बन्द करके खोजो जरा कि मन कहाँ है? तुम उसे ढूँढ लो कि वह कहाँ है, तो फिर उसी क्षण मुझे बता देना। मैं उसे शान्त कर दूँगा।

           उस राजा ने तैलंग स्वामी का कहा मानकर आँखें बन्द कर ली और कोशिश करता गया देखने की और देखने की। जितना ही वह भीतर झाँकता गया, उतना ही उसे होश आता गया कि वहाँ कोई मन नहीं है, बस एक क्रिया मात्र है- सोचने की क्रिया, आशाओं, अभिलाषाओं, कामनाओं, कल्पनाओं की क्रिया। उसे समझ में आ गया कि मन कोई ऐसी चीज नहीं, जिसकी ओर ठीक से इशारा किया जा सके। लेकिन जिस क्षण उसने जाना कि मन कोई वस्तु नहीं, उसी क्षण उसे अपनी खोज का बेतुकापन भी खुलकर प्रकट हो गया। बात साफ हो गयी कि जब मन कुछ है ही नहीं, तो फिर इसके बारे में कुछ किया ही नहीं जा सकता। यदि यह केवल एक क्रिया है, तो बस उस क्रिया को क्रियान्वित न करो। यदि वह गति की भाँति चाल है, तो मत चलो।
         
 यही सोचकर राजा ने अपनी आँखें खोल दी। तैलंग स्वामी मुस्कराने लगे और बोले—आ गयी बात समझ में! अब आगे से जब भी तुम महसूस करो कि तुम अशान्त हो, बस जरा भीतर झाँक लेना। यह झाँकना, यह अवलोकन ही मन की गति को थाम देता है। यदि तुम पूरी उत्कटता से झाँकों, तो तुम्हारी सारी ऊर्जा एक दृष्टि बन जाती है। सामान्य क्रम में वही ऊर्जा गति और सोच- विचार बनी रहती है।

         परम पूज्य गुरुदेव कहा करते थे- मनुष्य का अभ्यास, उसकी आदतें अपनी समूची ऊर्जा को सोच- विचार बनाने में लगी रहती है। वह जन्मों- जन्मों से, हो सकता है लाखों जन्मों से यही करता रहा है। उसके इस सहयोग से, लगातार ऊर्जा देने से मन की नदी आज बड़े ही वेगपूर्ण ढंग से प्रवाहित हो रही है। अपने अतीत के संवेग के कारण मन भारी वेग और आश्चर्यजनक जादुई समर्थता के साथ बहा जा रहा है। जो योग साधना करना चाहते हैं, उन्हें यह बात भली प्रकार समझ लेनी है।

          योग साधना का अर्थ है- अपने को इससे अलग करना। मन की क्रिया से अपने जुड़ाव- लगाव को खत्म करना। यदि मन के साथ, उसकी क्रियाशीलता के साथ अपनी आसक्ति समाप्त हो जाए, तो मन को ऊर्जा मिलना बन्द हो जाती है। फिर तो मन बस थोड़ी देर बहेगा, ऊर्जा के अभाव में स्वयं ही थम जाएगा। जब पिछला संवेग चुक जाएगा, जब पिछली ऊर्जा समाप्त हो जायगी, तब मन अपने आप ही रुक जाएगा। और जब मन रुक जाएगा, तब हम योग साधक से योगी होने की ओर कदम बढ़ाते हैं। तब फिर पतंजलि की परिभाषा, परम पूज्य गुरुदेव के द्वारा कराया गया बोध, हमारी खुद की अपनी अनुभूति बन जाएगा। हम समझ जाएँगे कि ‘मन की समाप्ति योग है।’

          दैनिक जीवन में १५ मिनट से ३० मिनट का समय निकाल कर इसकी अनुभूति पायी जा सकती है। नियत समय एवं नियत स्थान के अनुशासन को स्वीकार कर अपने आसन पर स्थिर होकर बैठें। स्वयं की गहराई में टिकें। पहले ही क्षण मन के वेगपूर्ण प्रवाह की, भारी लहरों की अनुभूति होगी। इस प्रवाह, इसकी लहरों से आकर्षित न हों। स्वयं को इससे असम्बद्ध करें। यह अनुभव करें आप अलग हैं और मन का वेगपूर्ण प्रवाह अलग। जैसे- जैसे यह अनुभव गाढ़ा होगा, मन का वेगपूर्ण प्रवाह थमता जाएगा। लेकिन ध्यान रहे, बार- बार मुड़- मुड़ कर यह देखना नहीं है कि मन का वेग थमा या नहीं। क्योंकि ऐसा करने से आप फिर से अपनी ऊर्जा मन को देंगे, और वह फिर से प्रचण्ड हो उठेगा। मन से अलग अपने में स्वयं की स्थिरता की अनुभूति का अंकुर जितनी तेजी से बढ़ेगा, उतनी ही ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’ की अनुभूति साकार होती जाएगी।
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118