इष्ट, गुरु, संत आदि के प्रति जिनकी जैसी धारणा होती है, उसी के अनुरूप उनके अंदर प्रेरणा उभरती है। प्रेरणा के अनुरूप साधना का क्रम बनता है तथा साधना के अनुरूप सफलताएँ, उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं। ठाकुर रामकृष्ण परमहंस की सेवा तो उनके भाँजे हृदय नारायण ने बहुत की थी। स्वयं ठाकुर यह कहते थे कि इस शरीर की रक्षा के लिए हृदय ने बहुत कुछ किया। किन्तु हृदय की धारणा उनके बारे में शरीर- केन्द्रित ही थी, इसीलिए उनका शरीर छूटने के बाद वे एक लाचार व्यक्ति की तरह कपड़े की फेरी लगाकर पेट पालते रहे।
इसके विपरीत जिन्होंने उनके नाम और शरीर रूपी प्रतीकों के पीछे उनके चेतन स्वरूप को समझा, उन्होंने उनका शरीर छूटने पर उनके उद्देश्यों के लिए काम करने के संकल्प के साथ उनकी चरण पादुकाओं की साक्षी में संन्यास दीक्षा ले ली। वे युवक उनके प्रति अपनी श्रेष्ठ अवधारणा के नाते ही ब्रह्मानन्द, विवेकानंद, शिवानन्द, सारदानंद, अद्भुतानन्द जैसे बनकर अनोखा इतिहास रच गये।
इसीलिए यह तथ्य परिजनों को बार- बार याद दिलाया जा रहा है कि युगऋषि को चमत्कारी व्यक्ति भर मान लेना पर्याप्त नहीं है। ठाकुर को भी सभी लोग चमत्कारी और दिव्य- क्षमता सम्पन्न तो मानते ही थे, परन्तु इतने भर से बात कहाँ बनी? उनके इन गुणों के साथ उनके जीवन के आदर्शों उद्देश्यों, अनुशासनों को जिन्होंने समझा, उनके अंदर उनके अनुगमन की प्रेरणा उभरी। उस प्रेरणा के आधार पर उनकी साधना निखरी। साधना पुरुषार्थ के अनुरूप उन्हें दिव्य अनुदान मिले और वे जीवन की उच्चतर श्रेणियों- सफलताओं को पा सके।
युगऋषि को संतुष्ट करना हो या उनकी कसौटी पर खरे- प्रामाणिक सिद्ध होकर विशिष्ट अनुदान पाने हों; दोनों ही उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हमें उनके प्रति अपनी और अपनों की, जन- जन की अवधारणाएँ उत्कृष्ट और व्यापक स्तर की बनानी होंगी।