युगऋषि और उनकी योजना

ऋषि स्तर का व्यक्तित्व और दायित्व

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        जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि उनके जीवन का उद्देश्य युग निर्माण की ईश्वरीय योजना को मूर्त रूप देना रहा है। उनका व्यक्तित्व और कर्तृत्व उसी स्तर का रहा है। उनके ऋषि स्तर को ठीक से समझने के लिए उनकी जीवनी (हमारी वसीयत और विरासत) तथा ‘युगऋषि और उनकी सूक्ष्मीकरण साधना’ पुस्तकों का गंभीर अध्ययन करने की जरूरत है। पन्द्रह वर्ष की आयु में जब हिमालय स्थित सद्गुरुदेव से उनका सम्पर्क बना, तब यह तथ्य पहली बार खुलकर सामने आया कि उन्हें किस विश्वास के साथ परिवर्तन के महत्त्वपूर्ण चक्र को गति देने के लिए भेजा और नियुक्त किया गया है।

        पहली हिमालय यात्रा के विवरण में जब उनका प्रथम साक्षात्कार हिमालय के ऋषियों से कराया जाता है, तब वे अपने मनोभाव इस तरह व्यक्त करते हैं-

        ‘अभी तक मैं एक ही मार्गदर्शक का वाहन था, पर अब वे हिमालयवासी अन्य दिव्य आत्माएँ भी अपने वाहन के रूप में काम ले सकती थीं और तदनुसार प्रेरणा, योजना एवं क्षमता प्रदान करती रह सकती थीं।’

        दूसरी हिमालय यात्रा के विवरण में तो इस युग में ऋषि तंत्र के ह्रास को लेकर ऋषियों की व्यथा- वेदना का पर्याप्त वर्णन है। वे सब समर्थ हैं, पर उन्हें प्रत्यक्ष कार्यों के लिए स्थूल देहधारी माध्यम चाहिए। उन्हीं का अभाव ऋषियों को व्यथित करता है। उनके अभाव की पूर्ति का संकल्प युगऋषि के मन में उभरता है, तो उनके गुरुदेव उनकी ओर से ऋषियों को इस प्रकार आश्वासन देते हैं-

        ‘‘यह निर्जीव नहीं है। जो कहता है, उसे करेगा भी। आप यह बताइये कि आपका जो कार्य छूटा हुआ है, उसका नये सिरे से बीजारोपण किस तरह हो? खाद- पानी आप- हम लोग लगाते रहेंगे, तो इसका उठाया हुआ कदम खाली नहीं जायगा।’’

        ऋषियों द्वारा उनको माध्यम स्वीकार करने के साथ बात आगे बढ़ती है। उन्हें निर्देश मिलते हैं- ‘‘राजनैतिक क्रान्ति तो होगी। आर्थिक तथा उससे सम्बन्धित कार्य भी सरकार करेगी। किन्तु इसके बाद तीन क्रान्तियाँ और शेष हैं, जिन्हें धर्मतंत्र के माध्यम से पूरा किया जाना है।....नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्तियाँ सम्पन्न की जानी हैं। इसके लिए उपयुक्त व्यक्तियों का संग्रह करना, और जो करना है उससे सम्बन्धित विचारों को व्यक्त करना अभी से आवश्यक है।’’

        जो निर्देश मिले, उसके अनुसार युगऋषि के जीवन का क्रम और प्रयासों का क्रम चलता रहा। तीसरी हिमालय यात्रा में जब मथुरा छोड़कर हरिद्वार सप्तऋषि क्षेत्र में शान्तिकुञ्ज आश्रम बनाने का निर्देश दिया जाता है, तब तो इस युग में ऋषि- परम्परा के पुनः बीजारोपण की स्पष्ट योजना उन्हें सौंपी जाती है। विश्वामित्र परम्परा में गायत्री महामंत्र का युगानुरूप विस्तार- गायत्री तीर्थ की स्थापना, व्यास परम्परा में आर्ष साहित्य एवं युग साहित्य का कार्य, याज्ञवल्क्य परम्परा में यज्ञीय ज्ञान- विज्ञान को युगानुरूप स्वरूप देना। इसी प्रकार वशिष्ठ परम्परा, नारद परम्परा, सूत- शौनक परम्परा, जमदग्नि की साधना आरण्यक परम्परा, चरक, आर्यभट्ट, शंकराचार्य, पिप्पलाद- कणाद आदि ऋषि परम्पराओं को परोक्ष- प्रत्यक्ष प्रयासों द्वारा पुनर्जीवित करने के निर्देशों का वर्णन है, जिन्हें उनके द्वारा बड़ी कुशलता से सक्रिय किया गया।
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