‘मनुष्य में देवत्व का उदय, धरती पर स्वर्ग का अवतरण।’
धरती पर स्वर्ग जैसी परिस्थितियों की कामना तो सभी करते हैं, किन्तु यह भूल जाते हैं कि स्वर्गीय परिस्थितियाँ पाना और उन्हें लम्बे समय तक बनाये रखना केवल उन्हीं के लिए संभव होता है, जिनके अंदर देवत्व जाग्रत् हो। सफाई का जिनका स्वभाव नहीं है, उन्हें स्वच्छ स्थान उपलब्ध करा भी दिया जाय, तो भी उनका निर्वाह कैसे होगा? जिनके अंदर संगीत जाग्रत् नहीं है, उन्हें संगीत के वातावरण में भेज दिया जाय, तो वे उसका रस तो ले ही नहीं सकते, उसे और बिगाड़ देंगे।
देवत्व-
संगीत और सफाई की तरह देवत्व भी हर मनुष्य के अंदर सोयी स्थिति में है। उसे जाग्रत् करना पड़ता है। उसे छीना, खरीदा या माँगा नहीं जा सकता। ऋषितन्त्र ने व्यवस्था बना दी है- जो उनके अनुशासन के अनुरूप चलेंगे, उनके अंदर देवत्व विकसित हो ही जायेगा। देवत्व का उदय ही होता है।
स्वर्ग-
बीज विकसित होने को तैयार होता है, तो मौसम की उर्वरता अदृश्य जगत् से उतर आती है और दृश्य फसल का रूप ले लेती है। जहाँ मनुष्य में देवत्व का बीज विकसित होने लगता है, वहीं स्वर्ग की फसल उतर आती है। स्वर्ग का ही अवतरण होता है।