व्यक्तियों को दुःख- कष्टों से उबारना, उन्हें सुख- समृद्धि उपलब्ध कराने के कार्य तो संत- स्वभाव के महामानव हमेशा से करते रहे हैं और वर्तमान समय में भी कर रहे हैं, किन्तु युगान्तरकारी पुरुषार्थ तो ऋषि स्तर की आत्माओं द्वारा ही संभव होते हैं। युगऋषि के जीवन के मुख्य उद्देश्यों में वे ही रहे हैं, जैसे-
:-हजारों वर्ष से प्रतिबंधित गायत्री साधना को बन्धन मुक्त करके उसे देश व्यापी विश्व- व्यापी, सर्वसुलभ स्वरूप देना।
:-यज्ञीय परम्परा, जो लगभग लुप्त और विकृत हो गई थी, उसे पुनः जाग्रत् तथा जन- जीवन में पुनः प्रतिष्ठित कर देना।
:-अध्यात्म के नाम पर जादूगरी जैसे भ्रमों को निरस्त करके उसे पदार्थ विज्ञान, विचार विज्ञान की ही तरह चेतना विज्ञान के रूप में प्रखर विचारों तथा स्वयं के जीवन के प्रयोगों द्वारा पुनः प्रतिष्ठित करना।
:-देव संस्कृति की संस्कार परम्परा, जिसे काल प्रभाव ने दुरूह और दूषित बना दिया था, उसे पुनः सुगम तथा पवित्र- प्रखर रूप में प्रस्तुत कर देना।
:-जब विश्व के सभी वैज्ञानिक मनुष्यकृत प्रदूषण से महाविनाश की संभावना से चिंतित थे, तब उन विनाशकारी संभावनाओं को निरस्त किए जाने की सुनिश्चित घोषणा कर देना।
:-जब तीसरे विश्व युद्ध का खतरा अब हुआ- तब हुआ के रूप में मंडरा रहा था, तब महाशक्तियों को आध्यात्मिक चेतना से प्रभावित करके उसे सदा के लिए टाल देने का विश्वास दिलाना।
:-जब मनुष्य स्वार्थ एवं अहंकार में मदान्ध होकर पतन के गर्त में गिरने की तैयारी कर रहा हो, तब उसे सही रास्ते पर लाकर मनुष्य मात्र के लिए उज्ज्वल भविष्य की सुनिश्चित घोषणा करना।
:-विनाश की तमाम संभावनाओं को निरस्त करने के साथ मनुष्य में देवत्व के उदय तथा धरती पर स्वर्ग के अवतरण के लिए सार्वभौम- सर्वसुलभ सूत्र भी उन्होंने दिए हैं। उनके प्रति आस्था रखने वाले नर- नारियों को जन- जन के मन- मस्तिष्क में व्यक्ति, परिवार एवं समाज निर्माण से सम्बन्धित उनके सार्वभौम सूत्रों की उपयोगिता बिठाने के लिए नैष्ठिक प्रयास करने चाहिए। इन सबसे जन- जन को परिचित कराकर उस दिशा में प्रेरित कर देना ही युगऋषि की जन्मशताब्दी की सार्थक श्रद्धांजलि कही जा सकती है।