पूर्व भूमिका
सच्चे संन्यासी- कर्मयोगी एवं मात्र
आडंबर रचने वाले तथाकथित
वेशधारियों के मध्य अंतर हम समझ सकें तथा आकांक्षाओं- कामनाओं का त्याग कर सही अर्थों में योगी बनें, यह मर्म प्रथम दो
श्लोकों का है। योग में आरूढ़ हुए बिना कोई
संन्यस्थ
नहीं हो सकता। बार- बार पैदा होते रहने वाली इच्छाओं से-
मनोकामनाओं से मुक्ति मिले, तो योगी बनने हेतु मनःस्थिति बने।
हमारा संकल्प एक ही हो कि हमारे व ईश्वर के संकल्प मिल जाएँ।
दोनों मिलकर एक हो जाएँ। ईश्वर का, नवयुग के प्रज्ञावतार का, हमारे
इष्ट- आराध्य का एक ही संकल्प है- युग। यदि हम आत्मनिर्माण से,
युग के नवनिर्माण की दिशाधारा से इतर सोच रहे हैं, तो फिर हम
ईश्वरीय धारा से अलग चल रहे हैं। परमपूज्य गुरुदेव ने जीवन भर
एक ही बात कही कि तुम हमें मानते हो, तो हमारे संकल्प से जुड़
जाओ।
‘‘हमारा संकल्प’’
अर्थात् ईश्वरीय संकल्प- युग निर्माण योजना, प्रज्ञा अभियान, युग-
परिवर्तन, इक्कीसवीं सदी में नारी शक्ति का, संवेदना का अभ्युदय,
सतयुग का आगमन। हर श्वास हम इसी संकल्प की पूर्ति हेतु जिएँ।
यदि हम
गुरुसत्तारूपी
भगवान् के प्रमुख पार्षद के एक छोटे से अंश हैं, तो हम अपनी
जिम्मेदारी समझ सकते हैं। यदि हम अपनी गुरुसत्ता को भगवान् की
कंपनी का
मैनेजिंग डायरेक्टर मान लें, तो स्वयं को उस कंपनी का एक छोटा- मोटा
कारिंदा-
गुमाश्ता
तो मान ही सकते हैं। वैसे ही यदि बन जाएँ, अपने संकल्पों को
गुरुसत्ता के संकल्पों के साथ जोड़ लें, तो हमें अपना युगधर्म समझ
में आ जाए। आज के युग का धर्म है समग्र समाज का अभिनव
निर्माण, सारे समाज का
अध्यात्मीकरण,
विश्व- वसुधा को गायत्रीमय बना देना। इसके लिए कर्मयोगी बनकर अपनी
सारी आसक्ति को, सुखों की चाह को, आकांक्षाओं को, मनोकामनाओं को
प्रभु के चरणों में समर्पित कर जीना होगा। हर क्षण यही भाव रहे
कि हम परमात्मा के लिए कर रहे हैं, अपने लिए नहीं। हमारे संकल्प
भगवान् को अर्पित हो जाएँ, यही प्रभु चाहते हैं। हम निष्काम
कर्मयोगी बन जाएँ।
हर गुरु प्रभु- समर्पित कर्म चाहता है
भगवान् अर्जुन से यह अपेक्षा क्यों रख रहे हैं, बार- बार
यह बात क्यों कह रहे हैं? इसलिए बार- बार जोर दे रहे हैं कि
अर्जुन के प्रारब्ध कट जाएँ। हर गुरु अपने- अपने समय में अपने
शिष्य के हित हेतु ऐसा कहता व करता है। प्रारब्ध व्यक्ति को
काटने ही पड़ते हैं। कष्ट भोगने ही पड़ते
हैं;
किंतु अच्छे कर्म करके, सतयुगी पुरुषार्थ में भागीदारी करके
जल्दी काटे जा सकते हैं। जो कर्म हम कर चुके और जो अभी पके
नहीं, जिनका अभी प्रारब्ध व संचित के रूप में संस्कार नहीं बना,
उनको तो निष्काम कर्म करके प्रारब्ध बनने से रोका जा सकता है।
इसीलिए सद्गुरु कहते हैं, योगेश्वर कहते हैं- निष्काम कर्म करता
चल। तेरे संचित और क्रियमाण कर्म कटते चले जाएँगे। तेरा यह लोक
भी, परलोक भी सुधर जाएगा।
जीवन जीने के क्रम में हमें भाँति- भाँति के दुःखों-
कष्टों से गुजरना होता है। उच्चस्तरीय, सद्गुरु स्तर की सत्ताएँ
जानती हैं कि विगत जीवन में, विगत जन्मों में किए गए कर्मों की
विधि- व्यवस्था के कारण यह शरीर मिला है, कष्ट भोगना तो पड़ेगा
ही। परम पूज्य गुरुदेव ने हम सबसे कहा था कि अपने तप व
आशीर्वाद से हम तुम्हारे पापों का, प्रारब्ध का जखीरा नष्ट कर
देंगे। यह गुरु का सदैव शिष्य को आश्वासन है, पर है यह एक शर्त
पर, वह यह कि हम इसके बदले गुरु का कार्य करें, युगधर्म में
स्वयं को नियोजित करें, कुछ कष्ट सहना पड़े, तो उसे तप मान लें।
वैसे न जाने कितना भोगना पड़ जाता, पर हमारा सौभाग्य कि हम
सद्गुरु से जुड़े। हमारे कष्ट थोड़े में टल जाएँगे, प्रारब्ध भी कट
जाएँगे।
दिव्यकर्मी
होने के कारण संचित- क्रियमाण का अनुपात घटेगा। पाप होंगे ही
नहीं, तो मोक्ष सुनिश्चित है। कर्म का यह विधान समझना, निष्काम
कर्मयोगी बनना एवं अच्छे कर्मों का अपना
फिक्स्ड डिपॉजिट बढ़ाते चलना, यही हमारा उद्देश्य होना चाहिए।
‘मैं’ पन छोड़ें व साधक बनें
अभी हमारी पहले दो
श्लोकों
की व्याख्या ही चल रही है। भगवान् संकल्पों से (कामना-
आकांक्षाओं से) मुक्ति चाहते हैं एवं एक आदर्श शिष्य को सच्चा
मार्गदर्शन कर रहे हैं कि यह जीवन मिला ही श्रेष्ठ कर्मों को
करने के लिए है। श्रेष्ठ के खाते में वृद्धि करते रहिए एवं अपने
पाप- कर्मों को, प्रारब्ध- संचित को काटते चलिए। यही जीवन की
रीति- नीति हमारी होनी चाहिए। हमारा हर कार्य ईश्वर- समर्पित हो।
जीवन- व्यापार को ईश्वरीय स्वरूप मानकर करें। कहीं भी अपना
‘मैं’
पन, निजी इच्छा- आकांक्षा को न जोड़ें। योग मनोविज्ञान की एक बड़ी
जटिल व्यवस्था को वे अर्जुन के समक्ष रखना चाह रहे
हैं; ताकि वह आत्मसंयम, ध्यानयोग का मर्म समझ सके। अभी दोनों
श्लोकों का प्रतिपादन संन्यास संबंधी भ्रांतियाँ मिटाने,
दिव्यकर्मी
के लक्षणों को बताने के लिए एवं यह समझाने के लिए किया गया
है कि जिसने संकल्पों का त्याग न किया, वह योगी नहीं हो सकता
(असंन्यस्त संकल्पः कश्चन योगी न भवति) यदि संकल्प रखता है तो वह
भ्रष्ट होकर पुनर्जन्म प्राप्त करता है एवं जब तक सारी इच्छाएँ
मिट नहीं जातीं, निरंतर जन्म लेता रहता है। पूर्णतः बंधन- मुक्ति
का पथ प्रभु यहाँ समझा रहे हैं एवं चाह रहे हैं कि अर्जुन इस
तथ्य को समझ ले।
एक बानगी
एक घटनाक्रम इसी संदर्भ में, जो इस युग का ही है, यहाँ बताने का मन है। प्रसिद्ध उद्योगपति एवं
बिड़ला परिवार के आदि संस्थापक श्री
जुगल किशोर जी
बिड़ला
के परिवार में एक बालक जन्मा। उसने आगे चलकर एक डायरी लिखी। यह
बालक प्रतिभा की दृष्टि से विलक्षण था एवं उसने आदित्य
बिड़ला ग्रुप नाम से एक भरा- पूरा संगठन खड़ा किया। उसकी
मुंबई-
बैंगलोर फ्लाइट के
क्रैश
(हवाई दुर्घटना) में मृत्यु हो गई। मृत्यु के बाद उसकी डायरी
पाई गई। डायरी का यह अंश उन दिनों प्रचलित सुप्रसिद्ध साप्ताहिक
‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हुआ, जो कि उस पत्रिका का संयोग से अंतिम अंक था। मृत्यु के समय उसकी आयु
३२-
३३ वर्ष की रही होगी। उस डायरी में उसने लिखा था,
‘‘अब
मुझे अहसास हो रहा है, जाग्रति की अनुभूति हो रही है कि मैं
पूर्वजन्म का संन्यासी हूँ। अमेरिका के रामकृष्ण मिशन
में
मैं पूर्वजन्म में सक्रिय रहा हूँ। वहाँ काम करते- करते संन्यास
लेने के बावजूद मेरे मन में एक लड़की के प्रति आकर्षण पैदा
हुआ। मैंने बहुत सोचा कि उसके बारे में न
सोचूँ। फिर मैंने शरीर छोड़ दिया। पूर्वजन्म के
संस्कारोंवश मेरा इस परिवार में पुनः जन्म हुआ। अब मैं
इंग्लैंड में पढ़ने आया हूँ, तो ठीक उसी शक्ल- सूरत की एक लड़की से मेरी मुलाकात हुई। क्या यह मेरी
जीवनसाथी बन सकेगी?
’’ डायरी यहाँ मूक हो जाती है। परिवार के लोगों ने उनका विवाह कहीं और किया एवं दोनों पति- पत्नी
क्रैश में मारे गए। उन्हीं की संतान अब उनका विशाल तंत्र चला रही है। वे डायरी में यह भी लिखते हैं,
‘‘मैं
कर्मों का भोग भोगने आया हूँ। संन्यासी होने के नाते मेरी
मुक्ति हो जानी चाहिए थी। शायद अभी और कष्ट भोगना भाग्य में
लिखा
है।’’
भोग छूटा तो ज्ञान जन्मा
पूर्वजन्म के तप ने उस साधक को एक धनीमानी परिवार में
कर्मयोगी के रूप में जन्म दिलवाया। जैसे- जैसे भोग छूटा, ज्ञान का
उदय होता गया। किसी भी सामान्य व्यक्ति को अनायास ही पूर्वजन्म
की स्मृति आने लगे व उसे आभास होने लगे कि वह कौन है और वह
कब संसार से जाने वाला है, यह ज्ञान उसे हो चुका, ऐसा मान लेना
चाहिए। परमहंस की स्थिति के लोग अपने विषय में जानते हैं, पर
कभी- कभी ही
जगजाहिर
करते हैं। परम पूज्य गुरुदेव को तीन जन्मों की जानकारी उनकी
अदृश्य सूक्ष्म शरीरधारी सत्ता ने दी। जो राम था, कृष्ण था, वही
रामकृष्ण बनकर आया है, यह श्री रामकृष्ण परमहंस ने कहा था। ऐसे
परमहंस अपने महानिर्वाण का दिन भी तय कर लेते हैं और स्वेच्छा
से मृत्यु का वरण करते हैं।
यह सुनिश्चित है कि पूर्वजन्म की
कर्मवासना
एवं संकल्पों के अनुसार भावी जीवन के संस्कार तय होते हैं। योग
पर आरूढ़ होकर ही, निष्काम भाव से कर्म करते हुए ही व्यक्ति
बंधन- मुक्त हो सकता है, नहीं तो चौरासी लाख योनियों का फेर है
ही। यदि यह तथ्य समझ में आ जाए, तो हमारे सभी कर्म स्वतः निर्मल
होते चले जाएँगे एवं हम मोक्ष को प्राप्त हो जाएँगे। संकल्पों
से निवृत्ति की चर्चा श्रीकृष्ण इसीलिए कर रहे हैं। पुनर्जन्म एवं
संकल्पों- वासनाओं से जुड़े रहने की परिणति की व्याख्या इसी
अध्याय में आगे
४१-
४४ क्रमांक के
श्लोकों में विस्तार से हुई है। तब उसे वहाँ दृष्टांतों के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे। अभी यहाँ अध्याय
६ के तीसरे व चौथे
श्लोक की व्याख्या की ओर बढ़ते हैं।
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते॥३॥
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसंकल्पसन्न्यासी योगारूढस्तदोच्यते॥४॥
पहले शब्दार्थ देखते हैं-
‘‘ज्ञानयोग में
(योगं) आरोहण करने के इच्छुक
(आरुरुक्षोः) मुनि के लिए
(मुनेः) निष्काम कर्म
(कर्म) कारण कहा जाता है
(कारणम् उच्यते)। योगमार्ग में आगे बढ़े होने के कारण इनके लिए।
(योगारूढस्य तस्य एव) कर्म निवृत्ति
(शमः) को ज्ञान की पूर्णता प्राप्ति का सहायक
(कारण) कहा गया है
(उच्यते)।’’
जब (जिस समयावधि में) (यदा) सब प्रकार के संकल्प छोड़ने
वाले साधक अर्थात् इहलोक व परलोक में सुखभोग की वासना त्यागने
वाले (
सर्वसंकल्पसंन्यासी) रूप-
रसादि इंद्रिय भोग्य विषयों में (
इंद्रियार्थेषु) आसक्त नहीं होते (न
अनुषज्जते), उनके
साधनरूप कर्मों में भी आसक्त नहीं होते (कर्मसु च न) तब (तदा) उन्हें योग में प्रतिष्ठित (योगारूढः) कहते हैं (
उच्यते)।
अब तीसरे व चौथे श्लोकों का भावार्थ देखते हैं-
‘‘योग में आरूढ़ होने की इच्छा रखने वाले साधक के लिए प्रभु- समर्पित कर्म ही एकमेव साधन हैं। ऐसा होने पर उस
योगारूढ़ पुरुष का जो
सर्वसंकल्पों के अभाव वाला भाव है, वह उसके लिए
शांतिप्रदाता, कल्याणकारी होता है (
श्लोक ३, अध्याय
६)।
जब व्यक्ति (जिस काल अवधि में) विषय- भोगों और कर्मों में आसक्त
नहीं होता, उस काल में उसे (तब ही) एकाग्र- योग में आरूढ़- त्यागी
पुरुष माना जाता है। (
श्लोक ४, अध्याय
६)।’’
एकाग्रता का अभ्यास
अब यहाँ इन दो
श्लोकों
में कही गई बातों के मर्म को समझना जरूरी है। हर व्यक्ति
एकाग्र होकर ध्यान करना चाहता है। यह आत्मा की प्यास है।
बहुचित्तीय (
पॉली साइकिक) मन वाला मनुष्य
योगारूढ़
हुए बिना एकाग्रता को साध नहीं सकता। एकाग्रता का अर्थ मन-
चित्त की निश्चलता नहीं है। सभी बाधक- विरोधी विचारों को परे
हटाकर समग्र मन (
क्लेक्टिव माइंड)
द्वारा किसी एक ही विषय के चिंतन की विधि ही ध्यान कहलाती है।
मन को खुला छोड़ देते हैं तो अनगढ़- कुसंस्कारी अवचेतन मन के
कारण अस्थिरता ही दिखाई देती है। मनोयोग- तत्परता जैसी उपलब्धियाँ
नहीं मिल पातीं। मन की निरर्थक भाग- दौड़ को नियंत्रित करने एवं
उसे एक ही विषय पर केंद्रित करने के लिए एकाग्रता की शक्ति हर
साधक को अभीष्ट है। तब ही तो मन शक्तिशाली
संकल्पहीन बन पाएगा।
श्रीकृष्ण तीसरे
श्लोक
में कहते हैं कि एकाग्रता की प्राप्ति के लिए कर्मयोग साधन
है, किंतु इसे क्रमशः विकसित करते हुए इसका व्यावहारिक प्रयोग
आत्मा पर गहन ध्यान लगाने के रूप में किया जाना चाहिए।
‘शम’ अर्थात् मन की शांति- मन को
चुपकर एक ही भाव में तल्लीन कर लेना। मन की शांति के बिना
योगारूढ़
नहीं हुआ जा सकता। जब मन कामनाओं के दबाव से मुक्त हो जाता
है, उसकी भोग- वासना की इच्छाएँ निवृत्त हो जाती हैं, तो इसे कहीं
भी केंद्रित कर
मनवांछित आध्यात्मिक सफलताएँ अर्जित की जा सकती हैं, अतीन्द्रिय क्षमताओं को जाग्रत् किया जा सकता है।
योग पर आरूढ़ साधक
श्री भगवान् ने
‘आरूढ़’
होना अर्थात् सवारी करना शब्द जान- बूझकर प्रयुक्त किया है। योग
पर आरूढ़ अर्थात् योग के घोड़े पर सवार साधक। वीर अर्जुन को
युद्धक्षेत्र में इससे सुंदर और क्या समझाया जा सकता है।
‘‘यथा स्थान तथा
शैली’’ का
प्र्रयोग
कर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो योग के घोड़े पर सवार
होना चाहते हैं, उनके लिए निःस्वार्थ कर्म अति अनिवार्य हैं, सहायक
हैं (कर्म
कारणमुच्यते)। किंतु ऐसा हो जाने के बाद (
योगारूढस्य तस्यैव) साधक हेतु आध्यात्मिक ऊँचाई पर पहुँचने हेतु
‘शम’ अर्थात् मन की शांति ही एकमात्र साधन है (शमः
कारणमुच्यते)। एकाग्रता की उपलब्धि हेतु मन के विक्षेप के कारणों को हटाया जाना जरूरी है।
मनोनिग्रह हेतु मानसिक विक्षोभ पैदा करने वाले अहंकार,
अहंकेंद्रित कामनाएँ- वासनाएँ आदि कारणों से मुक्त होना पड़ेगा। निःस्वार्थ
सेवाप्रधान
समर्पित कर्मों के माध्यम से इन सभी कारणों का निवारण हो जाता
है। कर्मयोग उन सभी लोगों के लिए एक साधन है, जो मन की
एकाग्रता के लिए प्रयत्नशील हैं, ध्यानस्थ होना चाहते हैं, मनःशक्ति
से कुछ कार्य करना चाहते हैं। एकाग्रता प्राप्त होते ही
आध्यात्मिक साधक को अधिकाधिक मानसिक शांति प्राप्त करने का प्रयास
करना चाहिए। मन की भटकन रुकेगी, तो ही शांति मिलेगी।
सफल ध्यान हेतु निष्काम योग
हर व्यक्ति आज के भोगवादी युग में मन की शांति चाहता है। सुख- साधनों का उपभोग करते हुए, अपने अहं को पालकर उससे नियंत्रित होते हुए यह शांति कभी मिलेगी नहीं। लोग उसे तलाशते
भी इन्हीं चीजों के माध्यम से हैं। फलतः अतृप्ति- बेचैनी ही हाथ
लगते हैं। ध्यान का नाटक करने से क्या लाभ, यदि संकल्पों से, अहंकेंद्रित
कामनाओं से मुक्ति नहीं मिल पाई। ध्यान तभी सफल है, जब वह मन
को शांत कर दे। उसे भटकन से मुक्त कर दे। योग पर आरूढ़ होने के
बाद समर्पित कार्य करना अनिवार्य है। प्रभु- समर्पित जीवन जिए
बिना मन शांत नहीं हो सकता। सभी बातें- शर्तें एक दूसरे पर
निर्भर हैं।
निष्काम कर्मों के परिणामस्वरूप चित्तशुद्धि होकर आत्मानुभूति होती है एवं ब्राह्मी स्थिति प्राप्त होती है। श्री रामकृष्ण परमहंस कहते हैं, ‘‘ज्ञान
काँटे से अज्ञान काँटे को निकालना होता है, तब दोनों ही काँटे
फेंक दिए जाते हैं। तत्पश्चात् तो ज्ञान व अज्ञान से परे
ब्राह्मी स्थिति में पहुँचना अति सरल है।’’ योगारूढ़
होने के लिए शुभ या अशुभ दोनों ही प्रकार की वासनाओं को
छोड़ना होगा। तनिक- सी भी रह गई, तो मन अशांत बना रहेगा। ठाकुर
श्री रामकृष्ण देव कहते हैं, ‘‘सूत
में जरा- सा भी रेशा रहने से वह सुई के छेद में नहीं घुस
सकता। उसी प्रकार मामूली- सी वासना भी हुई तो मन ईश्वर के चरण
कमलों का ध्यान, उनमें लीन होने का भाव नहीं कर सकता।’’ अब प्रश्र यह उठता है कि यह कैसे जाना जाए कि हमें पर्याप्त एकाग्रता मिल गई व हम योग आरूढ़ हो गए?