युगगीता (भाग-३)

योगेश्वर का प्रकाश-स्तंभ बनने हेतु भावभरा आमंत्रण

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स युक्तः स सुखी नरः

    श्री गीताजी का पाँचवें अध्याय का तेईसवाँ श्लोक कहता है—

    शक्रोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
    कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः॥ ५/२३

    इस श्लोक का शब्दशः संधि विग्रहानुसार अर्थ हुआ—

    जो ज्ञानी पुरुष (यः) देहत्याग के पूर्व अर्थात् देह रहते समय (शरीरविमोक्षणात् प्राक्) इस संसार या शरीर में ही (इह एव) काम और क्रोध के वेग को (कामक्रोधोद्भवं वेगं) सहन करने में (सोढुं) समर्थ होते हैं (शक्रोति), वे (सः) समाहित चित्त वाले योगी हैं। (युक्तः) एवं वही व्यक्ति सुखी हैं (स नरः सुखी)
    भावार्थ करें, तो ऐसा बनता है—‘‘जो साधक इस मनुष्य शरीर में, शरीर का नाश होने से पहले ही काम, क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ है, वही पुरुष योगी है (सर्वाङ्गपूर्ण व्यक्तित्व संपन्न है) तथा वही सुखी नर है।’’(५/२३)

    ढेरों व्यक्तियों को यह भ्रांति है कि मोक्ष मृत्यु के बाद मिलता है। इस जीवन में ही, इस शरीर के रहते ही यदि व्यक्ति काम और क्रोध के वेग को सहन करना सीख ले, स्वयं को साध ले, वही अपना व्यक्तित्व समग्र बना पाता है एवं जीवित रहते हुए मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। वही व्यक्ति सच्चे अर्थों में सुखी मनुष्य बन पाता है और जीवन का आनंद ले पाता है। जिसे आत्मज्ञान हो गया, वह सर्वव्यापी चैतन्य के वास्तविक स्वरूप के अनंत आनंद का अनुभव ले पाता है।

    एक मनोवैज्ञानिक की तरह यहाँ श्रीकृष्ण अर्जुन से वार्त्तालाप कर रहे हैं। वे मानवीय व्यक्तित्व का विश्लेषण कर रहे हैं एवं उसके साथ-साथ हमारी भी कई शंकाओं का समाधान कर रहे हैं। व्यक्तित्व का सर्वांगपूर्ण परिष्कार हर किसी का लक्ष्य होता है। वस्तुतः सारी सिद्धियाँ परिष्कृत व्यक्तित्व के ही चारों ओर चक्कर लगाती हैं। सच्चा सुख भी तभी मिलता है। श्रीकृष्ण इसीलिए कहते हैं कि मृत्यु आए, उससे पूर्व ही काम और क्रोध पर व्यक्ति नियंत्रण प्राप्त कर ले। कामबीज को ज्ञानबीज में बदल डाले। क्रोध और कुछ नहीं, दमित कामवासना का ही एक लक्षण  है। दोनों ही साथ चलते हैं। वे कामवासना के परिष्कार की बात कह रहे हैं और बड़ा जोर देकर कहते हैं कि यदि मृत्यु से पूर्व इन पर नियंत्रण नहीं प्राप्त हुआ, तो ये ही वासनाएँ मृत्यु के बाद आत्मसत्ता के साथ विभिन्न योनियों में चक्कर लगवाएँगी। ज्ञानी वही है, सच्चा सुखी वही है, जो इस जन्म में ही सारी व्यवस्था कर ले। आज व्यक्ति यदि बहिर्मुखी है, तो उसका कारण भी भीतर के काम और क्रोध ही हैं। एक वेग की तरह, आवेश की तरह वे मस्तिष्क पर चढ़ बैठते हैं। इन पर एक सच्चा योगी ही विजय प्राप्त कर पाता है और अपने व्यक्तित्व को सुसंस्कृत बना पाता है। वही व्यक्ति पूर्ण पुरुष (स युक्तः) बन पाता है। जो व्यक्ति अपने आपको पूर्णतः अनुशासित कर ले, श्रीकृष्ण के अनुसार वही पूर्णतः सुखी नर है। (स युक्तः स सुखी नरः)।

ठाकुर की कुछ ठोस बातें

    रामकृष्ण परमहंस कहते थे, ‘‘देखता हूँ कि सब-के-सब मटर की दाल के ग्राहक हैं। कामिनी और कांचन छोड़ना ही नहीं चाहते। आदमी स्त्रियों के रूप पर मुग्ध हो जाते हैं। रुपये और ऐश्वर्य का लालच करते हैं, परंतु यह नहीं जानते कि ईश्वर का रूपदर्शन करने पर ब्रह्मपद भी  तुच्छ हो जाता है। रावण से किसी ने कहा था, तुम इतने रूप बदलकर तो सीता के पास जाते हो; परंतु श्रीराम का रूप क्यों नहीं धारण करते? रावण ने कहा, राम का रूप हृदय में एक बार भी देख लेने पर रंभा और तिलोत्तमा चिता की खाक जान पड़ती हैं। ब्रह्मपद भी तुच्छ हो जाता है, पराई स्त्री की बात ही दूर रही।’’ (रामकृष्ण वचनामृत भाग-तृतीय, ३६-३७)। स्थान-स्थान पर वे कहते हैं, ‘‘योग कैसे होता है? विषयों के प्रति आसक्ति का एकदम त्याग। किसी भी प्रकार की कामना-वासना नहीं रहनी चाहिए। कामना-वासना रहने पर उसे सकाम भक्ति कहते हैं, निष्काम भक्ति को अहेतुकी भक्ति कहते हैं। तुम प्यार करो, न करो, फिर भी मैं तुम्हें प्यार करता हूँ। इसी का नाम है अहैतुक प्रेम’’......‘‘पति पर सती का आकर्षण, संतान पर माँ का आकर्षण और विषयप्रिय व्यक्ति का सांसारिक विषयों के प्रति आकर्षण, ये तीन आकर्षण यदि एक ही साथ हों, तो ईश्वर का दर्शन होता है।’’ (रामकृष्ण वचनामृत भाग-द्वितीय, पृष्ठ-४)। कितना अद्भुत प्रतिपादन है ठाकुर का। सारी बात अंदर तक उतर जाती है।काम और कामजनित क्रोध

    वास्तव में काम और काम से पैदा हुआ क्रोध, यही दो प्रवृत्तियाँ हैं, जो हमारी अंदर की शांति को भंग करती हैं और एक प्रकार से झूठी तृप्ति की निरर्थक आशा में हमें बहिर्मुखी बनाकर विषयों और कुविचारों के संसार में ढकेल देती हैं। क्रोध मात्र उस कामना का स्वरूप है, जो सहज रूप में तृप्त नहीं हो पाई है। इन दो विकृतियों से उपजा इच्छाओं का उद्वेग हमारे व्यक्तित्व को क्षत-विक्षत कर उसका स्वरूप बिगाड़ देता है। इसीलिए भगवान् कहते हैं कि मृत्यु से पूर्व इन पर विजय प्राप्त करो, वरना सुख की चाह में अनंतकाल तक भटकते फिरोगे। आज चारों ओर जो वातावरण है, जिस तरह का उपभोक्तावादी समाज विकसित हो गया है, केबल-टेलीविजन के माध्यम से घर-घर में सांस्कृतिक प्रदूषण फैलाया जा रहा है तथा प्रिंटमीडिया भी नंगई को परोसने में पीछे नहीं है, उसमें कामुकता ही संव्याप्त दिखाई देती है। अपरिपक्व मन को, बहिर्मुखी मन को वह तुरंत प्रभावित करती है। कामेच्छा पूरी न होने पर क्रोध भड़क उठता है; बलात्कार उसी वृत्ति से जन्मते हैं। सारे समाज का उत्कर्ष करना है, तो हमें इन वृत्तियों के परिष्कार का तंत्र खड़ा करना होगा। जनचेतना जगानी होगी। आत्मनिरीक्षण एवं विचार संयम की एक हवा बनानी होगी। लोक-शिक्षण करना होगा, ताकि हम बर्बर समाज की ओर न जाकर सही विकसित, आध्यात्मिक दृष्टि से उत्कर्ष को प्राप्त समाज बना सकें।

कामबीज से ज्ञानबीज की ओर

    परमपूज्य गुरुदेव ‘आध्यात्मिक काम विज्ञान’ नामक पुस्तक में लिखते हैं, ‘‘कामवासना मनुष्य जीवन की एक अति प्रबल प्रवृत्ति है। उसकी हलचल मस्तिष्क को उद्वेलित करती ही रहती है। फलतः व्यक्ति उस संबंध में कुछ-न-कुछ कहने-सुनने, पूछने-बताने, पढ़ने-जानने के लिए भी खोज-बीन करता रहता है। उच्चस्तरीय जानकारी न होने से उसे घटिया, विकृत और अवांछनीय सामग्री हाथ लगती है, जिससे आत्मघात करने का पथ ही प्रशस्त होता है।’’ (पृष्ठ २०) आगे वे लिखते हैं, ‘‘काम का अर्थ विनोद, उल्लास और आनंद है। मैथुन को ही काम नहीं कहते। स्नेह, सद्भाव, विनोद, उल्लास की उच्चस्तरीय अभिव्यक्तियाँ जिस परिधि में आती हैं, उसे आध्यात्मिक काम कहते हैं। यह छोटे बालकों से लेकर वृद्धों तक, नारी और नर तक एक समान प्रयुक्त होता है।’’ (पृष्ठ ३५) परमपूज्य गुरुदेव यह अभिमत देते हैं कि काम-प्रवृत्तियों का नियंत्रण परिष्कृत अंतःचेतना से संभव है। काम पर नियंत्रण हो गया, तो क्रोध स्वतः जाता रहेगा। वे बताते हैं कि उत्तेजनात्मक चिंतन से जो मस्तिष्कीय विद्युत् प्रवाह उमड़ते हैं, वे ही यौनलिप्सा में मनुष्य को बलात् प्रवृत्त करते हैं। यह विद्युत् धारा घटाई भी जा सकती है और बढ़ाकर सुनियोजित भी की जा सकती है। इसके लिए अंतःचेतना का बलिष्ठ होना अत्यंत आवश्यक है, जो योगाभ्यास जैसे उपायों से ही संभव है। कामकला को ब्रह्मविद्या के रूप में परिवर्तित कर, रूपांतरण कर उसके वेग पर नियंत्रण संभव है। पूज्यवर के चिंतन के अनुसार अभ्यास और वैराग्य से अनियंत्रित कामप्रवृत्ति का निरोध संभव है। उसे हठपूर्वक नष्ट कर देने की बात न सोची जाए; वरन् ऐसे प्रयोजन में लगा दिया जाए, जिसमें उच्चस्तरीय उद्देश्यों की पूर्ति हो।

    जहाँ तक क्रोध का प्रश्र है, वह समाज में आज अचेतन में संव्याप्त  तनाव के कारण भी फैला है। अपनी वृत्तियों का प्रबंधन कर पाना, अपनी क्षमताओं का पूरा नियोजन न हो पाना तथा भौतिकता प्रधान इस युग में अस्त-व्यस्तताओं का बढ़ते चले जाना ही क्रोध का कारण है। मनुष्य की सहिष्णुता घटी है एवं आक्रामकता बढ़ी है। इस पर नियंत्रण उसे ही प्राप्त करना होगा। विशेषकर युवाशक्ति, नवविवाहित युवा दंपतियों के जीवन में यह क्रोध तो विष बनकर आता है और उनकी सभी क्षमताओं को नष्ट कर जाता है। उद्धत अहं भी कभी-कभी क्रोध का रूप लेकर आता है। यदि यही क्रोध अनीति-अभाव के प्रति हो एवं किसी सकारात्मक कार्य में, रचनात्मक आंदोलन में नियोजित करे, तो समझ में भी आता है; पर जब यही वृत्ति अपने प्रति, अपनों के प्रति मिलती है, तो व्यक्तित्व के विघटन का, दोहरे व्यक्तित्व के जन्म का तथा फिर कई प्रकार के मनोविकारों का कारण बनती है। हमें समाज में आज इसी के प्रति अधिकाधिक जागरूकता पैदा करनी है, ताकि आदर्श समाज जन्म ले सके।

ब्रह्मनिर्वाण की प्राप्ति

    अगले श्लोक में श्रीकृष्ण उस योगी साधक की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि जिसने अपने भीतर सुख की प्राप्ति कर ली है, जो आत्मा में ही रमण करता है और आत्मा ही जिसकी ज्योति है, ऐसा योगी ही ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त करके निर्वाण पद को प्राप्त होता है। श्लोक इस प्रकार है—
   
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः।
    स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥ ५/२४

    शब्दार्थ करें, तो इस तरह समझ में आता है—

    जो (यः) आत्मा में ही सुखी, (अंतःसुखः) आत्मानंद में ही मग्र अर्थात तन्मय (अंतरारामः) तथा (तथा) जो (यः) अंतर्लोक में ज्ञान से प्रकाशित हैं (अंतःज्योति एव), वे योगी (स योगी) ब्रह्मभाव प्राप्त कर (ब्रह्मभूतः) ब्रह्म में निर्वाण (ब्रह्मनिर्वाणं) प्राप्त करते हैं (अधिगच्छति)।

    भावार्थ इस प्रकार हुआ—‘‘जो पुरुष अंतरात्मा में ही सुखवाला है, आत्मा में ही रमण करने वाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञान वाला है, वह सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त सांख्ययोगी शांत ब्रह्म को प्राप्त होता है।’’ (५/२४)

    ब्रह्मभाव प्राप्त कर ब्रह्मनिर्वाण की प्राप्ति किस योगी को मिलती है, इसका स्पष्ट चित्रण श्रीकृष्ण करते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि मात्र काम-क्रोध के वेग को धारण कर नियंत्रण कर लेने से मुक्ति-लाभ नहीं हो जाता। जो अंतर्मुखी हो आत्मानंद में परितृप्त होते हैं एवं जो साधक अपनी व्यष्टि चेतना को समष्टि चेतना में लय कर देते हैं, वे ही आत्मस्वरूप ब्रह्म में स्थिर होकर मोक्ष-लाभ की प्राप्ति कर पाते हैं। लगता तो कुछ जटिल-सा है, पर सरल किया जा सकता है।

    ईश्वर को पाना है, तो संसार का स्वामी बनना होगा। जब तक हम सुख के लिए अपने आस-पास के संसार पर आश्रित हैं, इस संसार के दास हैं। किसी पदार्थ या व्यक्ति पर हमें निर्भर नहीं होना चाहिए, क्योंकि  इससे हमारी निज की स्वतंत्रता छिन जाती है। आत्मज्ञानी, साधक स्तर के योगी दिव्यकर्मी अपनी आत्मा में ही आनंद की प्राप्ति करते हैं। (अंतःसुखः), आत्मा में ही रमण करते हैं (अंतरारामः) तथा आत्मा ही उनकी ज्योति होती (अंतर्ज्योतिः) है। वे अपने भीतर अनंत आनंद का अनुभव कर जीवन में पूर्ण स्वतंत्रता की अनुभूति करते हैं। (स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतः अधिगच्छति)। ऐसे व्यक्ति सदैव अपने ऊपर आत्मनिर्भर होते हैं और निर्वाणपद के सच्चे अधिकारी भी होते हैं।

    जो अंदर से सुखी है, अंतराराम है और अंतःज्योति में ध्यानस्थ है, वही योगी ब्रह्मभूत होकर ब्रह्मनिर्वाण को प्राप्त होता है। निर्वाण से यहाँ अर्थ है—परम आत्मस्वरूप में मानव के अहं का लोप होना। वह अब मात्र एक छोटा-सा व्यक्तित्व भर नहीं रह गया है। वह ब्रह्म हो गया है। उसकी चेतना शाश्वत में लीन हो गई है। निर्वाण के बारे में जैसा कि पहले भी कहा गया है, बड़ी भ्रांतियाँ हैं। कई लोग नहीं जानते कि निर्वाण किस अवस्था का नाम है। इसी को समझाने के लिए भगवान् पच्चीसवें श्लोक में ब्रह्मनिर्वाण की व्याख्या करते हैं कि यह किन्हें मिलता है।

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
    छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः॥ ५/२५

    निष्पाप (क्षीणकल्मषाः) संशयों से मुक्त (छिन्नद्वैधा) आत्मा में लीन चित्त वाले (यतात्मानः) सभी प्राणियों के कल्याण साधन में निरत (सर्वभूतहिते रताः) ऋषिगण (ऋषयः) ब्रह्मनिर्वाण पद (ब्रह्मनिर्वाणं) प्राप्त करते हैं (लभंते)।

अब भावार्थ हुआ—

    जिनके पाप (सभी वासनाएँ) नष्ट हो गए हैं, संशय ज्ञान के द्वारा निवृत्त हो गए हैं, इंद्रियाँ जिनकी वश में हैं, ऐसे ऋषिगण सबके कल्याण के लिए कर्म करते हुए इसी जीवन में मोक्ष को (शांत ब्रह्म को) प्राप्त होते हैं।

मोक्ष किसे मिलता है?

    यहाँ सारे लक्षण निष्काम कर्मयोगी के बताए गए हैं—(१) वे आत्मज्ञान संपन्न ऋषि होते हैं। (२) पापमुक्त जीवन जीते हैं। (३) संशयों से परे चलते हैं। (४) आत्मानंद में मग्र होते हैं। (५) सभी प्राणियों के कल्याण में सतत निरत रहते हैं। ऐसे ही व्यक्ति ब्रह्मनिर्वाण को, मोक्षपद को, परमसत्ता को प्राप्त होते हैं, जीवित रहते हुए ही मोक्ष पा लेते हैं।

    यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण ने ज्ञान से पापों व संशयों के विनष्ट होने तथा अपने मन पर अपना नियंत्रण स्थापित करके आत्मानंद में मग्र होकर सबके कल्याण हेतु जीवन जीने वालों को ऋषि कहा है। ऐसे ऋषिगण ही जीवित रहते ब्रह्मनिर्वाण को, मोक्ष को प्राप्त होते हैं, यह बात पुनः दोहराई है। सच्चा आत्मज्ञानी भगवान् के अनुसार वह है, जिसकी वासनाओं का क्षय हो गया है (क्षीण कल्मषाः)। चूँकि उसने अपने भीतर विद्यमान भावातीत परब्रह्म की सत्ता का अनुभव कर लिया है एवं संशयमुक्त है (छिन्नद्वैधाः), उन्हें विषय-भोगों के पीछे भागने की आवश्यकता नहीं अनुभव होती, आत्मानंद ही सर्वोपरि होता है, वे स्वाभाविक रूप से आत्मसंयमी हो जाते हैं (यतात्मानः)। ऐसे परमज्ञानी ही सबके कल्याण में सदैव निरत रह निर्वाणपद को प्राप्त होते हैं।

लोकशिक्षक ऋषि

    परमपूज्य गुरुदेव के जीवन में हम कुछ ऐसा ही दर्शन करते हैं। उनकी आत्मकथा ‘हमारी वसीयत और विरासत’ और उन पर लिखी पुस्तकें ‘चेतना की शिखर यात्रा, प्रज्ञावतार हमारे गुरुदेव’ आदि का अध्ययन कर लगता है कि सारा जीवन उनका इसी तरह लोकशिक्षण करते हुए व्यतीत हुआ। मातृवत् परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत् एवं आत्मवत् सर्वभूतेषु की उनकी साधना इसी तरह का जीवन जीते संपन्न हुई। सही अर्थों में ब्राह्मणत्व को जीवन में उतारते हुए सबके कल्याण के लिए सभी कर्म किए। सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त ‘ज्यौं की त्यौं धरि दीनी चदरिया’ की तरह जीवन जीने वाले ऐसे महापुरुष ही ऋषि की पदवी पर शोभित होते हैं। अखिल विश्व गायत्री परिवार जो उनने विनिर्मित किया, एक नमूना है, जो एक ऋषि के परम पुरुषार्थ का प्रतीक है। हम उनके जीवन से गीता के इस पाँचवें अध्याय के बहुत-से पक्षों को सीख सकते हैं।

    ऊपर के, इस कड़ी में वर्णित तीनों श्लोक जिस एक निष्कर्ष पर हमें लाते हैं, वह है आत्मज्ञान से आत्मजाग्रति। इससे व्यक्ति विश्ववंद्य ऋषि ही नहीं बन जाता, वह स्वयं में परमानंद की, ब्रह्म से तादात्म्य की सतत अनुभूति करता रहता है। वह स्वयं में आत्मनिर्भर होता है तथा विशिष्ट गुणों से युक्त होता है, सदैव प्रसन्न रहता है, आंतरिक समत्व का एक विलक्षण उदाहरण होता है। हम सबके लिए २३, २४, २५ क्रमांक के श्लोक युगनायक बनने, जितेंद्रिय बनने, दिव्यकर्मी-सेवाभावी-समाजशिल्पी बनने का संदेश लेकर आते हैं। आज ऐसे ही व्यक्तियों की समाज में सर्वाधिक आवश्यकता है। ये ही प्रकाश-स्तंभ बन सभी का यथोचित मार्गदर्शन कर सकते हैं। इन्हीं का तो आज चारों ओर अकाल है। क्या हम बन सकते हैं? गीता हमसे प्रश्र पूछती है।
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