युगऋषि की वेदना एवं उमंगें जानें तदनुसार कुछ करें

युग निर्माण की चुनौती स्वीकारें

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१. युग की प्रखर चुनौती—

सामाजिक असभ्यता हमारे लिए राजनीतिक गुलामी से अधिक त्रासदायक स्थिति में हमारे सामने मौजूद है। स्वाधीनता संग्राम के बलिदानी सेनानी स्वर्ग से हमें पूछते हैं कि हमारा कारवाँ एक ही मंजिल पर पड़ाव डालकर क्यों रुक गया? आगे का पड़ाव सामाजिक असभ्यता के उन्मूलन का था, अगला मोर्चा वहाँ जमना था पर सैनिकों ने हथियार खोलकर क्यों रख दिए? युग की आत्मा इन प्रश्नों का उत्तर चाहती है। हमें इसका उत्तर देना होगा। यदि हम सामाजिक असभ्यता के उन्मूलन के लिए कुछ नहीं करना चाहते, कुछ नहीं कर सकते, तो जहाँ भावी इतिहासकार जिस प्रकार स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों को श्रद्धा से मस्तक झुकाते रहेंगे वहाँ हमें धिक्कारने में भी कसर न रहने देंगे।

आध्यात्मिक लक्ष्य की पूर्ति के लिए अग्रसर हुए हम धर्मप्रेमी ईश्वर भक्त लोगों के कंधों पर लौकिक कर्तव्यों की पूर्ति का भी एक बड़ा उत्तरदायित्व है। ईश्वर को हम पूजें और उसकी प्रजा से प्रेम करें ; भगवान् का अर्चन करें और वाटिका को, दुनिया को सुरम्य बनावें, तभी हम उसके सच्चे भक्त कहला सकेंगे, तभी उसका सच्चा प्रेम प्राप्त करने के अधिकारी हो सकेंगे।

हमारे आध्यात्मिक लक्ष्य की पूर्ति का प्रथम सोपान सुव्यवस्थित जीवन है। स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन, सभ्य समाज उसके तीन आधार हैं। इन आधारों को संतुलित करने के लिए, सबल और समर्थ बनाने के लिए हमें कुछ करना ही पड़ेगा, कटिबद्ध होना ही पड़ेगा। युग निर्माण का महान कार्य हमारे इस कर्तृत्व पर ही निर्भर है। इसकी न तो अब उपेक्षा की जा सकती है और न आँखें चुराई जा सकती हैं। भगवान् यही हम से कराना चाहते हैं। यही हमें करना भी होगा।

-अखण्ड ज्योति, जनवरी १९६२, पृष्ठ ३५, ३६

२. युग नेतृत्व का समय आ पहुँचा, जब जन नेतृत्व का भार धर्मतंत्र के कंधों पर लादा जाएगा। धर्म क्षेत्र में काम करने वाले व्यक्ति नवनिर्माण की वास्तविक भूमिका का सम्पादन करेंगे। मानव जाति को असीम पीड़ाओं से मुक्त करने का श्रेय इसी मोर्चे पर लड़ने वालों को मिलेगा। इसलिए युग पुकारता है कि प्रत्येक प्रबुद्ध आत्मा आगे बढ़े। धर्म के वर्तमान स्वरूप को परिष्कृत करे। उस पर लदी हुई अनुपयोगिता की मलिनता को हटाकर स्वच्छता का वातावरण उत्पन्न करे। इसी शस्त्र से प्रस्तुत विभीषिकाओं का अंत किया जाना संभव है, इसलिए उसे चमकती धार वाला तीक्ष्ण भी रखना ही पड़ेगा। जंग लगे व भोंथरे हथियार अपना वास्तविक प्रयोजन हल कहाँ कर पाते हैं। धर्मतंत्र का आज जो स्वरूप है, उससे किसी को कोई आशा नहीं हो सकती है। इसे तो बदलना, पलटना एवं सुधारना अनिवार्य ही होगा।

सुधरे हुए धर्मतंत्र का उपयोग सुधरे हुए अंतःकरण वाले प्रबुद्ध व्यक्ति, सुधरे हुए ढंग से करें, तो उससे विश्व- संकट के हल करने और धरती पर स्वर्ग, नर से नारायण अवतरण करने का अभीष्ट उद्देश्य पूरा होकर ही रहेगा। सुधरी हुई परिस्थितियों की गंगा का अवतरण करने के लिए आज अनेक भागीरथों की आवश्यकता है। यह आवश्यकता कौन पूरी करे? माता भारती हमारी ओर आशा भरी आँखों से देखती है। अंतरिक्ष में उसकी अभिलाषा इन शब्दों में गूँजती है-

       जना करती हैं जिस दिन के लिए संतान सिंहनियाँ ।
        मेरे शेरों से कह देना कि वह दिन आ गया, बेटा ।।

युग पुकार के अनुरूप क्या प्रत्युत्तर दिया जाए, यह हमें निर्णय करना ही होगा और उस निर्णय का आज ही उपयुक्त अवसर है।-अखण्ड ज्योति, मई १९६५, पृष्ठ ५२३.

युग निर्माण की पात्रता अर्जित करें— युग निर्माण का प्रयोजन साधारण मनोभूमि के घटिया, स्वार्थी, ओछे कायर और कमजोर प्रकृति के लोग न कर सकेंगे। इसके लिए समर्थ, तेजस्वी आत्माएँ अवतरित होंगी और वे ही इस कार्य को पूरा करेंगी। जो लोग तनिक- सा त्याग, बलिदान का प्रसंग आ जाने पर बगलें झाँकने लग जाते हैं, उतने बड़े कार्य को कर सकने के योग्य नहीं। जिस मिट्टी से हम बनें हैं, रेतीली और कमजोर है कोई टिकाऊ चीज उससे कैसे बन सकती है। जो एक- दो माला जप करने मात्र से तीनों लोक की ऋद्धि- सिद्धियाँ लूटने की आशा लगाए बैठे रहते हैं और जीवन- शोधन तथा परमार्थ की बात सुनते ही काठ हो जाते हैं, ऐसे ओछे आदमी अध्यात्म का क, ख, ग, घ भी नहीं जानते। आत्मबल तो उनके पास होगा ही कहाँ से। जिसके पास आत्मबल नहीं, वह युग- परिवर्तन की भूमिका में कोई कहने लायक योगदान दे भी कहाँ से सकेगा? -अखण्ड ज्योति अगस्त १९६६, पृष्ठ- ४४

४. सज्जन सृजन के निमित्त आगे आएँ—

आज समय की आवश्यकता है कि सज्जन एवं सत्पुरुष आगे आएँ, मैदान में उतरें और पतनोन्मुख मनुष्यता की रक्षा विकृतियों, दुष्प्रवृत्तियों एवं दुष्टताओं से करें। आज अच्छाई, बुराई का देवासुर संग्राम छिड़ ही जाना चाहिए। देवपुरुष सज्जनों को अपने- अपने क्षेत्रों में अपने योग्य मोर्चा सँभाल लेना चाहिए। अपने सत्कार्यों, सदाचरण एवं सद्वृत्तियों की मशालें लेकर निकलें और जहाँ- जहाँ अंधकार देखें उसे दूर करें। समाज की विकृतियाँ अब उस सीमा पर पहुँच चुकी हैं, जहाँ यदि उन्हें आगे बढ़ने से न रोका गया तो निश्चय ही जीवन न रह जाएगा।                                         -अखण्ड ज्योति जनवरी १९६७ पृष्ठ ३०

५. नवनिर्माण, देवत्व सम्पन्न प्रतिभाएँ ही करेंगी—

युग परिवर्तन की नवनिर्माण प्रक्रिया उन व्यक्तियों के द्वारा सम्पन्न होगी जिनमें देवत्व का प्रकाश समुचित मात्रा में प्रखर हो चला है। लेखक, वक्ता, नेता, अभिनेता, कलाकार, आंदोलनकारी, प्रतिभावान व्यक्ति अपने साधनों के आधार पर कुछ समय के लिए चमत्कार जैसा जादू खड़ा कर सकते हैं पर उसमें स्थिरता तनिक भी न होगी। बालू की दीवार की तरह उनकी विकृत्तियाँ देखते- देखते धूल- धूसरित हो जाती हैं और जिसका आज बहुत जयघोष था, कल उसके अस्तित्व का पता लगाना भी कठिन हो जाता है। स्थिरता तो सच्चाई और आत्मबल की गहराई में सन्निहित है। युग निर्माण जैसे महान कार्य ठोस आधार की शिला पर ही प्रतिष्ठापित हो सकते हैं। उनका भारी उत्तरदायित्व वहन कर सकने की क्षमता केवल देवत्व संपन्न महामानवों में ही मिलेगी। अतएव नवनिर्माण के कर्णधारों, सूत्र- संचालकों, सेनानायकों का देवत्व के प्रकाश से प्रकाशवान बनना या बनाया जाना आवश्यक है।
-अखण्ड ज्योति, दिसम्बर १९६७ पृष्ठ १४

६. बौद्धिक एवं भावनात्मक स्तर का उभार आवश्यक—

एक ऐसी जनशक्ति का उदय होना चाहिए, जो पेट और प्रजनन से कुछ ऊँचा उठकर सोच सके और वासना, तृष्णा के लिए मरते- खपते रहने से आगे बढ़कर देश, धर्म, समाज, संस्कृति के लिए कुछ सेवा- सहयोग की, त्याग- बलिदान की बात सोच सके। कर्मठ लोकसेवियों की जनशक्ति उदय हुए बिना सुधार की सारी विचारणाएँ मनोरंजक कल्पनाएँ मात्र बनकर रह जाएँगी। प्राण तो कर्मठता में रहता है। निर्माण तो पुरुषार्थ से होता है। इसलिए अपने चारों ओर बिखरे हुए नर- पशुओं में हमें मनुष्यता का प्रकाश, गर्व और शौर्य उत्पन्न करना है ताकि वह स्वार्थ, संकीर्णता की परिधि से बाहर निकलकर कुछ ऐसा कर सके, जैसा कि प्रबुद्ध और सजग आत्माएँ अपने स्वरूप, तत्त्व एवं कर्तव्य का स्मरण करके प्रयत्न करती रहती हैं।

७. खुलने हैं अनेक मोर्चे
—हमारी आगामी तपश्चर्या का प्रयोजन संसार के हर देश में, जनजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भगीरथों का सृजन करना है। उनके लिए अभीष्ट शक्ति, सामर्थ्य का साधन जुटाना है। रसद और हथियारों के बिना सेना नहीं लड़ सकती। नवनिर्माण के लिए उदीयमान नेतृत्व के लिए परदे के पीछे रहकर हम आवश्यक शक्ति तथा परिस्थितियाँ उत्पन्न करेंगे। अपनी भावी प्रचंड तपश्चर्या द्वारा यह संभव हो सकेगा और कुछ ही दिनों में हर क्षेत्र से, हर दिशा में, सुयोग्य लोकसेवक अपना कार्य आश्चर्यजनक कुशलता तथा सफलता के साथ करते दिखाई पड़ेंगे। श्रेय उन्हीं को मिलेगा और मिलना चाहिए।

युग निर्माण आंदोलन संस्था नहीं, एक दिशा है। सो अनेक काम लेकर इस प्रयोजन के लिए अनेक संगठनों तथा प्रक्रियाओं का उदय होगा। भावी परिवर्तन का श्रेय युग निर्माण आन्दोलन को मिले, यह आवश्यक नहीं। अनेक नाम रूप हो सकते हैं और होंगे। उससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं। मूल प्रयोजन विवेकशीलता की प्रतिष्ठापना और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्द्धन से है।

सो हर देश, हर समाज, हर धर्म, हर क्षेत्र में इन तत्त्वों का समावेश करने के लिए अभिनव नेतृत्व का उदय होना आवश्यक है। हम इस महती आवश्यकता की पूर्ति के लिए अपने शेष जीवन में उग्र लगन, तपश्चर्या का सहारा लेंगे। उसका स्थान और स्वरूप क्या होगा, यह तो हमारे पथ प्रदर्शक को बताना है पर दो प्रयोजनों में से एक उपरोक्त है, जिसके लिए हमें सघन जनसंपर्क छोड़कर नीरवता की ओर कदम बढ़ाने पड़ रहे हैं।
-अखण्ड ज्योति, दिसम्बर १९६९, पृष्ठ ६१, ६२

८. संघर्ष भी करना होगा—

दुष्टता की दुष्प्रवृत्तियाँ कई बार इतनी भयावह होती हैं कि उनका उन्मूलन करने के लिए संघर्ष के बिना काम ही नहीं चल सकता। रूढ़िवादी, प्रतिक्रियावादी, दुराग्रही, मूढ़मति, अहंकारी, उद्दंड, निहित स्वार्थी और असामाजिक तत्त्व विचारशीलता और न्याय की बात सुनने को ही तैयार नहीं होते। वे सुधार और सदुद्देश्य को अपनाना तो दूर और उलटे प्रगति के पथ पर पग- पग पर रोड़े अटकाते हैं। ऐसी पशुता और पैशाचिकता से निपटने के लिए प्रतिरोध और संघर्ष अनिवार्य रूप से आवश्यक है। समाज में अंधपरंपराओं का बोल- बाला है। जाति- पाँति के आधार पर ऊँच- नीच, स्त्रियों पर अमानवीय अत्याचार, बेईमानी और गरीबी के लिए विवश करने वाला विवाहोन्माद, मृत्युभोज, धर्म के नाम पर लोक- श्रद्धा का शोषण, आदि ऐसे अनेक कारण हैं, जिनने देश की आर्थिक बरबादी और तज्जनित असंख्य विकृतियों को जन्म दिया है। बेईमानी, मिलावट, रिश्वत और भ्रष्टाचार का हर जगह बोल- बाला है, सामूहिक प्रतिरोध के अभाव में गुंडातत्त्व दिन- दिन प्रबल होता जा रहा है और अपराधों की प्रवृत्ति दिन दूनी- रात चौगुनी पनप रही है। शासक और नेता जो करतूतें कर रहे हैं, उनसे धरती पाँवों तले से निकलती है। यह सब केवल प्रस्तावों और प्रवचनों से मिलने वाला नहीं है। जिनकी दाढ़ में खून लग गया है या जिनका अहंकार आसमान छूने लगा है, वे सहज ही अपनी गतिविधियाँ बदलने वाले नहीं हैं। उन्हें संघर्षात्मक प्रक्रिया द्वारा इस बात के लिए विवश किया जाएगा कि वे टेढ़ापन छोड़ें और सीधे रास्ते चलें।

९. सत्याग्रह पर आधारित संघर्षात्मक आन्दोलन— इसके लिए हमारे दिमाग में गाँधीजी के सत्याग्रह, मजदूरों के घिराव, चीनी कम्युनिस्टों की सांस्कृतिक क्रांति के कड़ुए- मीठे अनुभवों को ध्यान में रखते हुए एक ऐसी समग्र योजना है जिससे अराजकता भी न फैले और अवांछनीय तत्त्वों को बदलने के लिए विवश किया जा सके। उसके लिए जहाँ स्थानीय, व्यक्तिगत और सामूहिक संघर्षों के क्रम चलेंगे, वहाँ स्वयंसेवकों की एक विशाल ‘युगसेना’ का गठन भी करना पड़ेगा, जो बड़े से बड़ा त्याग- बलिदान करके अनौचित्य से करारी टक्कर ले सके। भावी महाभारत इसी प्रकार का होगा। वह सेनाओं से नहीं महामानवों, लोकसेवियों और युगनिर्माताओं द्वारा लड़ा जाएगा। सतयुग लाने से पूर्व ऐसा महाभारत अनिवार्य है। अवतारों की शृंखला सृजन के साथ- साथ संघर्ष की योजना भी सदा साथ लाई है। युग निर्माण की लाल मशाल का निष्कलंक अवतार अगले दिनों इसी भूमिका का सम्पादन करे, तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं मानना चाहिए।        -अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ- ६०, ६१

१०. जाग्रत् आत्माओं की भूमिका—

जाग्रत् आत्माएँ अपने आंतरिक देवासुर संग्राम को देखें और उसके समाधान के लिए सद्विवेक से, सत्साहस से भगवान् का आह्वान करें। यदि ऐसा हो सके तो इसी देव परिवार की असंख्य प्रतिभाएँ युग देवता के चरणों में अपनी छोटी या बड़ी भावभरी आत्माहुति प्रस्तुत कर सकती हैं। पतन और पीड़ा के गर्त में पड़ी हुई मानवता ने इसी की आर्त पुकार की है। महाकाल ने इसी की माँग की है। जाग्रत् आत्माओं में से हर एक की असाधारण भूमिका इस संदर्भ में हो सकती है। कठिनाई एक ही है। लोभ और मोह के रूप में अंतर्ज्योति को ग्रस लेने वाले राहु केतु के ग्रहण से किस प्रकार मुक्ति पाई जाए।
जो इस देवासुर संग्राम में देव पक्ष का समर्थन करेंगे, उन्हीं के लिए देव- मानवों की तरह युग परिवर्तन की बेला में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकना संभव होगा। जाग्रत् आत्माएँ इस संदर्भ में अधिक गंभीर चिंतन और अधिक प्रखर साहस अपनाएँ। जिससे जितना अनुदान बन पड़े, वह उसके लिए अधिक से अधिक प्रयास करे। यही अपने युग की सबसे बड़ी माँग और यही अंतरात्मा की सबसे बड़ी पुकार है।-अखण्ड ज्योति, जनवरी १९७८, पृष्ठ- ५६, ५७

११. भावनाओं को सक्रियता में बदलने का समय—

युग सृजन के पुण्य प्रयोजन की योजना बनाते रहने का समय बीत गया, अब तो करना ही करना शेष है। विचारणा को तत्परता में बदलने की घड़ी आ पहुँची। भावनाओं का परिपाक सक्रियता में होने की प्रतीक्षा की जा रही है। असमंजस में बहुत समय व्यतीत नहीं किया जाना चाहिए।

लक्ष्य विशाल और विस्तृत है। जन- मानस के परिष्कार के लिए प्रज्वलित ज्ञानयज्ञ के, विचारक्रांति के, लाल मशाल के टिमटिमाते रहने से काम नहीं चलेगा। उसके प्रकाश को प्रखर बनाने के लिए जिस तेल की आवश्यकता है, वह जाग्रत् आत्माओं के भाव भरे त्याग- बलिदान से ही निचोड़ा जा सकेगा। मनुष्य में देवत्व का उदय, संसार के समस्त उत्पादनों की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण उपार्जन है। इस कृषि कर्म में हमें शीत, वर्षा की चिंता न करते हुए निष्ठावान कृषक की तरह लगना चाहिए। धरती पर स्वर्ग का अवतरण नया नंदन वन खड़ा करने के समान है। निष्ठावान माली की तरह हमारी कुशलता ऐसी होनी चाहिए जिससे स्रष्टा के इस मुरझाए विश्व उद्यान में बसंती बहार ला सकने का श्रेय मिल सके।

ऐसी सफलता लाने में खाद- पानी जुटाने से ही काम नहीं चलता; उसमें माली को अपनी प्रतिभा भी गलानी, खपानी पड़ती है। भूमि और पौधों के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने वाले किसान और माली की तरह ही हमें देवत्व के उद्भव और स्वर्ग के अवतरण में जाग्रत् आत्माओं को अपनी श्रद्धा और क्षमता का समर्पण प्रस्तुत करना होगा।-अखण्ड ज्योति, मार्च १९७८, पृष्ठ- ६१

१२. बड़े कार्य वजनदार व्यक्तियों से ही संभव—

राज क्रांति का काम साहस और शस्त्रबल से चल जाता है। आर्थिक क्रांति साधन और सूझ- बूझ के सहारे हो सकती है। यह भौतिक परिवर्तन हैं, जिनके लिए भौतिक साधनों से काम चल जाता है। हमें बौद्धिक, नैतिक और सामाजिक क्रांति की त्रिवेणी का उद्गम खोजना और संगम बनाना है। इसके लिए चरित्र, श्रद्धा और प्रतिभा के धनी दधीचि के वंशजों को ही आगे आना और मोर्चा सँभालना है। भवन, पुल, कारखाने आदि को वास्तुशिल्पी अपनी शिक्षा के सहारे बनाने में सहज ही सफल होते रहते हैं। हमें नए व्यक्ति, नए समाज और नए युग का सृजन करना है। जाग्रत् आत्माओं का भावभरा अनुदान ही यह प्रयोजन पूरा कर सकता है।

जिनके पास भावना है ही नहीं, जो कृपणता के दलदल में एड़ी से चोटी तक फँसे पड़े हैं उन दीन, दयनीय लोगों से क्या याचना की जाए? कर्ण जैसे उदार व्यक्ति ही मरणासन्न स्थिति में अपने दाँत उखाड़ कर देते रहे हैं, हरिश्चन्द्रों ने ही अपने स्त्री, बच्चे बेचे हैं। लोभग्रसितों को तो कामनाओं की पूर्ति कराने से ही फुरसत नहीं, देने का प्रसंग आने पर तो उनका कलेजा ही बैठने लगेगा।

१३. चाहिए प्रतिभावान सृजन सैनिक—
व्यक्ति, परिवार और समाज की अभिनव रचना के लिए न तो साधनों की आवश्यकता है और न परिस्थिति के अनुकूल होने की। उसके लिए ऐसी प्रखर प्रतिभाएँ चाहिए, जिनकी नसों में भावभरा ऋषि रक्त प्रवाहित होता हो। चतुरता की दृष्टि से कौआ सबसे सयाना माना जाता है। शृगाल की धूर्तता प्रख्यात है। मुर्दे खोद खाने में बिज्जू की कुशलता देखते ही बनती है। खजाने की रखवाली करने वाला सर्प लक्षाधीश होता है। भावनात्मक सृजन में तो दूसरी ही धातु से ढले औजारों की आवश्यकता है। आदर्शों के प्रति अटूट आस्था की भट्टी में ही ऐसी अष्टधातु तैयार होती है। आवश्यकता ऐसे ही व्यक्तित्वों की पड़ रही है, जो अष्टधातु के ढले हैं। लोकसेवा का क्षेत्र बड़ा है उसके कोटरों में ऐसे कितने ही छद्मवेषधारी वंचक लूट- खसोट की घात लगाए बैठे रहते हैं, पर उनसे कुछ काम तो नहीं चलता। प्रकाश तो जलते दीपक से ही होता है।
-अखण्ड ज्योति, मार्च १९७८, पृष्ठ- ६१, ६२

१४. नेता नहीं, सृजेता करेंगे युग सृजन—

युग सृजन में छोटी बड़ी भूमिका जिन्हें निभानी है वे सभी सृजन सैनिक कहे जाएँगे। उनका प्रधान हथियार उनका अपना व्यक्तित्व है; यदि उसमें प्रखरता मौजूद होगी, तो फिर प्रचारात्मक- रचनात्मक जो भी काम हाथ में लिए जाएँगे, वे सभी सफल होंगे। व्यक्तित्वहीनों के लिए युग नेतृत्व का दुस्साहस करना उपहासास्पद है। रंगमंच पर लड़ाई के पैंतरे बदलना एक बात है और रणभूमि में भवानी को बिजली की तरह चमकाना दूसरी। अभिनेता के रूप में तो वक्ता, नेता का कार्य कोई मसखरा भी कर सकता है, किंतु प्रभावोत्पादक परिणाम उत्पन्न कर सकना तो मात्र साहसी, शूरवीरों के लिए ही संभव हो सकता है। युग सृजन के लिए एकमात्र साधन उस पुण्य प्रयोजन को हाथ में लेने वाले प्रखर व्यक्तित्व ही हो सकते हैं। इन दिनों सर्वोपरि आवश्यकता उन्हीं की है।
-अखण्ड ज्योति, जुलाई १९७८, पृष्ठ ६०

१५. नवसृजन की दिशाधारा—

आत्मकल्याण और लोककल्याण की गंगा- यमुना जहाँ भी मिलेगी, वहाँ उस दिव्य संगम का एक ही रूप होगा। जन- जागरण के लिए अंशदान, श्रमदान, समयदान करने का भावभरा उत्साह। यह जब आतुर होता है तो हजार कठिनाइयाँ, विरोध, असहयोग रहने पर भी एकाकी चल पड़ने की साहसिकता जगती है। इस अंतःप्रेरणा को कोई बाहरी शक्ति रोक नहीं सकती, बाहरी प्रलोभन झुका नहीं सकता। वाक् चातुरी एवं मोह- ममता भी उसे फुसला सकने में समर्थ नहीं हो सकती। धनुष से छूटा हुआ तीर लक्ष्य तक पहुँच कर ही रुकता है। जाग्रत् आत्माएँ युगांतरीय चेतना से अनुप्राणित होकर जब प्रज्ञावतार की सहचरी बनती हैं तो फिर उन्हें सोते- जागते एक ही लक्ष्य अर्जुन की मछली की तरह दीखता है।

जनमानस का परिष्कार ही अपने युग का सबसे महत्त्वपूर्ण काम है। आस्थाओं का पुनर्जीवन यही है। ज्ञानयज्ञ एवं विचारक्रांति अभियान इसी प्रक्रिया का नाम है। इस संदर्भ में क्या किया जा सकता है? अपनी स्थिति इस दिशा में कितनी तेजी से कितनी दूरी तक चल सकने की है। इसी का ताना- बाना उनका मस्तिष्क बुनता है, चिंतन और मंथन से हर स्थिति का व्यक्ति अपनी योग्यता और परिस्थिति के अनुरूप काम ढूँढ़ निकालने में सफल हो सकता है।  आस्थाओं का कल्पवृक्ष उग पड़ने के उपरांत उसके पल्लव और फल- फूलों की संपदा इतनी बढ़ी- चढ़ी होगी कि उसके सहारे प्रस्तुत संकटों के निवारण में कोई अड़चन शेष  न रहे।

आस्थाओं का उन्नयन, चिंतन का परिष्कार, सत्प्रवृत्तियों का अवगाहन, यह दीखते तो तीन हैं, पर वस्तुतः एक ही तथ्य के तीन रूप हैं। सत्कर्म और सद्ज्ञान वस्तुतः सद्भावों का ही उत्पादन है। यही है जाग्रत् आत्माओं के माध्यम से प्रज्ञावतार द्वारा कराया जाने वाला महा प्रयास। हर जाग्रत् आत्मा को अगले दिनों अपनी समस्त तत्परता और तन्मयता जन- मानस के परिष्कार पर केन्द्रीभूत करनी होगी।-अखण्ड ज्योति, अगस्त १९७९, पृष्ठ ३८

१६. अंध श्रद्धाओं का समर्थन हानिकारक है—

अंध श्रद्धाओं का समर्थन भी जोखिम भरा है। किसी के साथ अनगढ़, अधकचरे, अपरिपक्वों की मंडली हो, तो वह उसे जनशक्ति समझने की भूल करता रहता है। किसकी श्रद्धा एवं आत्मीयता कितनी गहरी है, इसका पता चलाने का एक मापदण्ड यह भी है कि वे विसंगतियों के बीच भी स्थिर रह पाते हैं या नहीं? जो अफवाहों की फूँक से उड़ सकते हैं वे वस्तुतः बहुत ही हलके और उथले होते हैं। ऐसे लोगों का साथ किसी बड़े प्रयोजन के लिए कभी कारगर सिद्ध नहीं हो सकता। उन्हें कभी भी, कोई भी, कुछ भी कहकर विचलित कर सकता है। ऐसे विवेकहीन लोगों की छँटनी कर देने के लिए कुचक्रियों द्वारा लगाए गए आरोप या आक्रमण बहुत ही उपयोगी सिद्ध होते हैं।

योद्धाओं की मंडली में शूरवीरों का स्तर ही काम आता है। शंकालु, अविश्वासी, कायर प्रकृति के सैनिकों की संख्या भी पराजय का एक बड़ा कारण होती है। ऐसे मूढ़मतियों को अनाज में से भूसा अलग कर देने की तरह यह आक्रमणकारिता बहुत ही सहायक सिद्ध होती है। दुरभिसंधियों के प्रति जनआक्रोश उभरने से सहयोगियों का समर्थन और भी अधिक बढ़ जाता है। उस उभार से सुधारात्मक आंदोलनों का पक्ष सबल ही होता है। कुसमय पर ही अपने पराए की परीक्षा होती है। इस कार्य को आततायी जितनी अच्छी तरह सम्पन्न करते हैं, उतना कोई और नहीं। अस्थिर मति और प्रकृति के साथियों से पीछा छूट जाना और विवेकवानों का समर्थन, सहयोग बढ़ना जिन प्रतिरोधों के कारण संभव होता है वह आक्रमणों की उत्तेजना उत्पन्न हुए बिना संभव ही नहीं होता। -अखण्ड ज्योति, अगस्त १९७९, पृष्ठ- ५३, ५४

१७. अभियान की व्यापकता—

एक ओर विनाश की विभीषिकाएँ अपना गर्जन- तर्जन करती हैं। दूसरी ओर सृजन की शक्तियाँ सुरक्षा एवं सृजन के प्रयत्नों में निरत हैं। इन परिस्थितियों में प्रत्येक जागरूक का कर्तव्य है कि वह पेट प्रजनन के पशु प्रयोजनों में निरत न रहे, वरन् यह सोचे कि क्या युग समस्याओं के समाधान में उसका कुछ योगदान हो सकता है? ध्वंस को निरस्त और सृजन को समर्थ बनाने के लिए इस विश्व संकट की घड़ी में अपना विशिष्ट कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व समझना ही दूरदर्शियों के लिए उपयुक्त है। युग चुनौती इसी के लिए झकझोरती है और युग साधकों को अग्रिम पंक्ति में खड़े होने की प्रेरणा उन सभी को देती है जिनमें अदृश्य को देखने और तथ्य को समझने की क्षमता विद्यमान है। -अखण्ड ज्योति, सितम्बर १९७९, पृष्ठ ३५

१८. विचार क्रांति हेतु सद्भाव सम्पन्न मनीषा भी आवश्यक—

विचारक्रांति अभियान किसी सामाजिक कुरीति, सांप्रदायिक प्रथा, मान्यता जैसी छोटी परिधि तक सीमित नहीं है। ऐसा होता तो उस क्षेत्र को प्रभावित करने वाले थोड़े से सुधारकों से भी काम चल सकता था। पर बात गहरी भी, विस्तृत भी और साथ ही अति महत्त्वपूर्ण भी है। इससे भी बड़ी एवं विचित्र कठिनाई यह है कि उसे वीर बलिदानी भी नहीं कर सकते। इसके लिए सद्भाव सम्पन्न मनीषा की आवश्यकता पड़ेगी। अकेली मनीषा तो सहज उपलब्ध है। उसे पैसा देकर कहीं भी खरीदा जा सकता है और उचित अनुचित कुछ भी कराया जा सकता है। मिशन के लिए इसे प्रयुक्त करना तो गरिमा के प्रतिकूल है ही, प्राप्त करना तक कठिन है। खरीदी हुई मनीषा श्रद्धा रहित होने पर अभीष्ट प्रयोजन में गहराई तक उतर भी न सकेगी। ऐसी लँगड़ी- लूली, कानी- कुबड़ी भीड़ किसी प्रकार किसी हद तक चल भी पड़ी तो वह निर्जीव होने के कारण वाँछित प्रयोजन सिद्ध करने में निरर्थक एवं असफल ही सिद्ध होगी।-अखण्ड ज्योति, दिसम्बर १९७९, पृष्ठ- ४०

१९. चाहिए परिष्कृत प्रतिभा—

बुद्धिमान मनुष्य आमतौर से धूर्त होते हैं। तथाकथित बुद्धिजीवियों पर आज दृष्टिपात करते हैं, तो लगता है कि इस विशिष्टता ने उन्हें चतुर, कुशल, प्रवीण तो बहुत बनाया पर आदर्शों के निर्वाह में वे एक प्रकार से असमर्थ ही बने रहे। लेखक, कवि, वक्ता, वकील, नेता, कलाकार वर्ग के बुद्धिवादी संख्या में थोड़े ही होते हैं पर यदि उनकी प्रतिभा सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन में लग सकी होती, तो उसका प्रभाव परिणाम निश्चिततः भविष्य निर्धारण की दृष्टि से अत्यंत श्रेयस्कर रहा होता। पर स्थिति निराशाजनक है। सच तो यह है कि बुद्धिमत्ता ने समाज को जितना लाभ दिया है उससे कहीं अधिक हानि पहुँचाई है।
चर्चा बुद्धि का महत्त्व घटाने की नहीं भाव संवेदनाओं को उभारने की हो रही है। यह भक्ति तत्त्व का पुनर्जीवन पुनर्जागरण है। अमृत इसी को कहते हैं। मस्तिष्क में बुद्धि बढ़े, यह प्रयत्न दूसरे लोग कर रहे हैं। हमें चिंतन की उत्कृष्टता और अंतःकरण की भावश्रद्धा के संवर्द्धन में लगना है।                                                 -अखण्ड ज्योति, दिसम्बर १९७९, पृष्ठ ४०

२०. प्रतिभाएँ विभिन्न मोर्चों पर लगें—

इन दिनों युग परिवर्तन के लिए कई प्रकार की प्रतिभाएँ चाहिए। विद्वानों की आवश्यकता है, जो लोगों को अपने तर्क, प्रमाणों से सोचने की नई पद्धति प्रदान कर सकें। कलाकारों की आवश्यकता है, जो चैतन्य महाप्रभु, मीरा, सूर, कबीर की भावनाओं को इस प्रकार लहरा सकें, जैसे सपेरा साँप को लहराता रहता है। धनवानों की जरूरत है, जो अपने पैसे को विलास में खर्च करने की अपेक्षा सम्राट अशोक की तरह अपना सर्वस्व समय की आवश्यकता पूरी करने के लिए लुटा सकें। राजनीतिज्ञों की जरूरत है, जो गाँधी, रूसो और कार्लमार्क्स, लेनिन की तरह अपने सम्पर्क के प्रजाजनों को ऐसे मार्ग पर चला सकें, जिसकी पहले कभी भी आशा नहीं की गई थी।

भावनाशीलों का क्या कहना? संत सज्जनों ने न जाने कितनों को अपने संपर्क से लोहे जैसे लोगों को पारस की भूमिका निभाते हुए कुछ से कुछ बना दिया। हमारे वीरभद्र अब यही करेंगे। हमने भी यही किया है। लाखों लोगों की विचारणा और क्रियापद्धति में आमूल- चूल परिवर्तन किया है और उन्हें गाँधी के सत्याग्रहियों की तरह, विनोबा के भूदानियों की तरह, बुद्ध के परिव्राजकों की तरह अपना सर्वस्व लुटा देने के लिए तैयार कर दिया। प्रज्ञापुत्रों की इतनी बड़ी सेना हनुमान के अनुयायी वानरों की भूमिका निभाती है।
-अखण्ड ज्योति, अप्रैल १९८५, पृष्ठ ६१

२१. सफलता का आधार संकल्प एवं प्रचण्ड मनोबल—

कितने ही महान आन्दोलन संसार में चले और व्यापक बने हैं इनके मूल में एक- दो व्यक्तियों का ही पराक्रम काम करता रहा है। जो अपनी उड़ाई आँधी के साथ अनेक को आसमान तक उड़ा ले गए, वे न तो महाबली योद्धा थे और न साधन सम्पन्न करोड़पति। गाँधी ने जो आँधी चलाई उसके साथ लाखों पत्ते और तिनके जैसी हस्ती वाले गगनचुम्बी भूमिकाएँ निभाने लगे। ऐसे आन्दोलन समय- समय पर अपने देश और विदेशों में उठते रहे और व्यापक बनते रहे हैं। इनके मूल में एक- दो मनस्वी लोगों के संकल्प और प्रयत्न ही काम करते रहे हैं। इसीलिए संसार के मनुष्यों में सबसे बड़ा बल मनोबल ही माना गया है। संकल्प और निश्चय तो कितने ही व्यक्ति करते हैं, पर उन पर टिके रहना और अंत तक निर्वाह करना हर किसी का काम नहीं। विरोध, अवरोध सामने आने पर कितने ही हिम्मत हार बैठते हैं और किसी बहाने पीछे लौट पड़ते हैं पर जो हर परिस्थिति से लोहा लेते हुए अपने पैरों अपना रास्ता बनाने और अपने हाथों अपनी नाव खेकर उस पार तक पहुँचते हैं, ऐसे मनस्वी बिरले ही होते हैं। मनोबली ऐसे साहसी का नाम है जो सोच- समझकर कदम उठाता और उसे प्राणपण से पूरा करता है।

-अखण्ड ज्योति, अगस्त १९८७, पृष्ठ २२
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