युगऋषि की वेदना एवं उमंगें जानें तदनुसार कुछ करें

प्रामाणिक सत्पात्रों की खोज

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१.चाहिए साहसी, जिम्मेदार—

युग निर्माण योजना, शतसूत्री कार्यक्रमों में बँटी हुई है। वे यथास्थान, यथास्थिति, यथासंभव कार्यान्वित भी किए जा रहे हैं, पर एक कार्यक्रम अनिवार्य है और वह यह कि इस विचारधारा को जन- मानस में अधिकाधिक गहराई तक प्रविष्ट कराने, उसे अधिकाधिक व्यापक बनाने का कार्यक्रम पूरी तत्परता के साथ जारी रखा जाए। हम थोड़े व्यक्ति युग को बदल डालने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। धीरे- धीरे समस्त मानव समाज को सद्भावना सम्पन्न एवं सन्मार्ग मार्गी बनाना होगा और यह तभी संभव है जब यह विचारधारा गहराई तक जन- मानस में प्रविष्ट कराई जा सके। इसलिए अपने आस- पास के क्षेत्र में इस प्रकाश को व्यापक बनाए रखने का कार्य तो परिवार के प्रत्येक प्रबुद्ध व्यक्ति को करते ही रहना होगा।

अन्य कोई कार्यक्रम कहीं चले या न चले, पर यह कार्य तो अनिवार्य है कि इस विचारधारा से अधिकाधिक लोगों को प्रभावित करने के लिए निरंतर समय, श्रम, तन एवं मन लगाया जाता रहे। जो ऐसा कर सकते हैं, जिनमें ऐसा करने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो गई है, उन्हें हम अपना उत्तराधिकारी कह सकते हैं। धन नहीं, लक्ष्य हमारे हाथ में है, उसे पूरा करने का उत्तरदायित्व भी हमारे उत्तराधिकार में किसी को मिल सकता है। उसे लेने वाले भी कोई बिरले ही होंगे। इसलिए उनकी खोज तलाश आरंभ करनी पड़ रही है।
-अखण्ड ज्योति, दिसम्बर १९६४, पृष्ठ ४९, ५०

२. हमें अपने परिवार में से अब ऐसे ही व्यक्ति ढ़ूँढ़ने हैं, जिन्होंने अध्यात्म का वास्तविक स्वरूप समझ लिया हो और जीवन की सार्थकता के लिए चुकाए जाने वाले मूल्य के बारे में जिन्होंने अपने भीतर आवश्यक साहस एकत्रित करना आरंभ कर दिया हो। हम अपना उत्तराधिकार उन्हें ही सौंपेंगे। बेशक, धन- दौलत की दृष्टि से कुछ भी मिलने वाला नहीं है, हमारे अंतःकरण में जलने वाली आग की एक चिनगारी ही उनके हिस्से में आएगी, पर वह इतनी अधिक मूल्यवान है कि उसे पाकर कोई भी व्यक्ति धन्य हो सकता है।
-अखण्ड ज्योति, जनवरी १९६५, पृष्ठ ५०


३. जिनमें साहस हो, आगे आवें। हमारा निज का कुछ भी कार्य या प्रयोजन नहीं है। मानवता का पुनरुत्थान होने जा रहा है। ईश्वर उसे पूरा करने ही वाले हैं। दिव्य आत्माएँ उस दिशा में कार्य कर भी रही हैं। उज्ज्वल भविष्य की आत्मा उदय हो रही है, पुण्य प्रभात का उदय होना सुनिश्चित है। हम चाहें तो उसका श्रेय ले सकते हैं और अपने आप को यशस्वी बना सकते हैं।

देश को स्वाधीनता मिली, उसमें योगदान देने वाले अमर हो गए। यदि वे नहीं भी आगे आते तो भी स्वराज्य तो आता ही, पर वे बेचारे और अभागे मात्र बनकर रह जाते। ठीक वैसा ही अवसर अब है। बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक क्रांति अवश्यंभावी है। उसका मोर्चा राजनीतिक लोग नहीं धार्मिक कार्यकर्ता सँभालेंगे। यह प्रक्रिया युग निर्माण योजना के रूप में आरंभ हुई है। हम चाहते हैं इसके संचालन का भार मजबूत हाथों में चला जाए। ऐसे लोग अपने परिवार में जितने भी हों, जो भी हों, जहाँ भी हों, एकत्रित हो जाएँ और अपना काम सँभाल लें। उत्तरदायित्व सौंपने को प्रतिनिधि नियुक्त करने की योजना के पीछे हमारा यही उद्देश्य है।-अखण्ड ज्योति, जनवरी १९६५, पृष्ठ ५२

४. मशाल किन्हें सौंपें ?—

इस भीड़- भाड़ में से हम ऐसे लोगों को तलाश करने में कुछ दिन से लगे हुए हैं, जो हमारे सच्चे आत्मीय साथी एवं कुटुंबी के रूप में अपनी निष्ठा का परिचय दे सकें। बात यह है कि हमारा कार्यकाल समाप्त होने जा रहा है। हमें अपनी वर्तमान गतिविधियाँ देर तक चलाते रहने का अवसर नहीं मिलेगा। किसी महान शक्ति के मार्गदर्शन एवं संकेत पर हमारा अब तक का जीवनयापन हुआ है। आगे भी इस शरीर का एक- एक क्षण उसी की प्रेरणा से बीतेगा। वह शक्ति हमें वर्तमान कार्यक्रमों से विरत कर दूसरी दिशा में नियोजित कर देगी, ऐसा आभास मिल गया है। अतएव हमारा यह सोचना उचित ही है कि जो महान उत्तरदायित्व हमारे कंधों पर है, उसका भार- वहन करने की जिम्मेदारी किन के कंधों पर डालें? जो मशाल हमारे हाथ में थमाई गई है, उसे किन हाथों में सौंप दें? उस दृष्टि से हमें अपने उत्तराधिकारियों की तलाश करनी पड़ रही है। -अखण्ड ज्योति, मई १९६६, पृष्ठ ४५, ४६

५. इस थोड़ी-सी अवधि में कुछ अधिक ऊँचे स्तर के साथी ढ़ूँढ़ने हैं, जिनके हाथों में उस मशाल को सौंपा जा सके जो आज हमारे हाथ में है। इसके लिए अधिक मजबूत अधिक साहसी और अधिक सच्चे आदमी चाहिए। अखण्ड ज्योति परिवार पर जब नजर डालते हैं, तो उनमें से अधिकतर ‘ पढ़ाकू ’ लोग दीखते है। पढ़ना भी एक व्यसन है। अच्छी वस्तुएँ पढ़ने को अच्छा व्यसन कहा जा सकता है। ऐसे विद्या व्यसनी लोग अभी हमारा साहित्य रुचि से पढ़ते हैं, पीछे अपनी रुचि की चीजें कहीं अन्यत्र से प्राप्त कर लेंगे। उनकी गाड़ी तो चलती रहेगी, पर हमारी गाड़ी रुक जाएगी।

जो उच्च विचारों को पढ़ते हैं, पर उन्हें गले में नीचे नहीं उतारते, उन्हें व्यवहारिक जीवन में स्थान नहीं देना चाहते, ऐसे लोगों से कोई बड़ी आशा किस प्रकार की जाए? हमें कर्मठ और प्रबुद्ध साथी चाहिए— ऐसे जो युग निर्माण की भूमिका प्रस्तुत करने के लिए अपने तुच्छ स्वार्थों की उपेक्षा, अवहेलना कर सकें; जो निजी समस्याओं में उलझे रहकर ही जिंदगी व्यतीत कर डालने की व्यर्थता और भारतीय आदर्शों के लिए कुछ त्याग और बलिदान की साध अपने भीतर सँजो सकें।                                                                  -अखण्ड ज्योति, अक्टूबर १९६६, पृष्ठ ४६, ४७

जिस मशाल को हम पिछले ४२ वर्ष से जला रहे हैं, अब उसे दूसरे उत्तरदायी उत्तराधिकारियों के हाथ में सौंपना होगा। इसलिए उनका आह्वान किया जा रहा है, जिनमें जीवन है। उन्हें जानना चाहिए कि यह सामान्य समय नहीं है। इसमें प्रबुद्ध आत्माओं को सामान्य स्तर का जीवन नहीं जीना है। कुछ अतिरिक्त कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व उनके कंधे पर हैं, जिनकी यदि उपेक्षा की जाती रही, तो आत्म- प्रताड़ना की इतनी बड़ी वेदना उनके अंतरंग में उठती रहेगी कि वह आत्म- ग्लानि का कष्ट शारीरिक विषम वेदनाओं से भी अधिक भारी पड़ेगा और उसे सहन करना कठिन हो जाएगा। धन, स्वास्थ्य, यश, पद आदि की क्षति आसानी से पूरी हो सकती है, पर कर्तव्य की उपेक्षा करते हुए, जीवन का अमूल्य अवसर गँवा बैठने पर, जब समय निकल जाता है, तब अपनी चूक पर ऐसा पश्चात्ताप होता है, जिसकी व्यथा सहन कर सकना कठिन हो जाता है।                        -अखण्ड ज्योति, नवम्बर १९६८, पृष्ठ ६३

७. मूर्धन्य महामानवों की आवश्यकता—

भारत को अपना घर ही नहीं सँभालना है। हर क्षेत्र में विश्व का नेतृत्व भी करना है। इसके लिए उपयुक्त स्थिति उत्पन्न कर सकने वाले ऐसे महामानवों की आवश्यकता है, जो स्वतंत्रता संग्राम वालों से भी अधिक भारी हों। लड़ने से निर्माण का कार्य अधिक कुशलता और क्षमता का है, सो हमें अगले दिनों ऐसे मूर्धन्य महामानवों की आवश्यकता पड़ेगी, जो अपने उज्ज्वल प्रकाश से सारा वातावरण प्रकाशवान् कर दें।
-अखण्ड ज्योति, मार्च १९६९, पृष्ठ ६०

८. बड़े आदमी नहीं, महान बने—

बड़े आदमी बनने की हविस और ललक स्वभावतः हर मनुष्य में भरी पड़ी है। उसके लिए किसी को सिखाना नहीं पड़ता। धन, पद, इंद्रिय सुख, प्रशंसा, स्वास्थ्य आदि कौन नहीं चाहता? वासना और तृष्णा की पूर्ति में कौन व्याकुल नहीं हैं? पेट और प्रजनन के लिए किसका चिंतन नियोजित नहीं है। अपने परिवार को हमने बड़े आदमियों का समूह बनाने की बात कभी नहीं सोची। उसे महापुरुषों का देव समाज देखने की ही अभिलाषा सदा से रही है। वस्तुतः महामानव बनना ही व्यक्तिगत जीवन का साफल्य और समाज का सौभाग्य माना जा सकता है।

मनुष्य जीवन की सार्थकता महामानव बनने में है। इसके अतिरिक्त आज की परिस्थितियाँ महामानवों की इतनी आवश्यकता अनुभव करती हैं कि उन्हीं के लिए सर्वत्र त्राहि- त्राहि मची हुई है। हर क्षेत्र उन्हीं के अभाव में वीरान और विकृत हो रहा है। वे बढ़ें तो ही विश्व के हर क्षेत्र में संव्याप्त उलझनों और शोक- संतापों का समाधान होगा। अपने परिवार का गठन हमने इसी प्रयोजन के लिए किया था कि इस खान से नर- रत्न निकलें और विश्व इतिहास का एक नया अध्याय आरंभ करें। युग परिवर्तन जैसे महान अभियान को उथले स्तर के व्यक्तियों द्वारा नहीं केवल उन्हीं लोगों से सम्पन्न किया जा सकता है जिनको महापुरुषों की श्रेणी में खड़ा किया जा सके। 
-अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ ५५

९. अगले चरण की तैयारी—

युग निर्माण के लिए अगले ही दिनों हमें अनेक रचनात्मक और संघर्षात्मक प्रक्रियाएँ, हलचलें आरंभ करनी पड़ेंगी। उसके लिए ऐसे कर्मठ, भावनाशील, प्रतिभाशाली और प्रबुद्ध व्यक्तियों की आवश्यकता पड़ेगी, जो अपना सारा जीवन ही इस पुण्य प्रयोजन के लिए समर्पित करें और सारी विचारणा एवं आकांक्षा उसी केन्द्र पर केन्द्रीभूत कर दें। अपने आपको और अपने संकीर्ण स्वार्थों को भूलकर विश्व मंगल के लिए अपने को उत्सर्ग करने में गर्व- गौरव का अनुभव करें। ऐसी प्रबुद्ध आत्माओं से रहित भारत भूमि नहीं है। वे हैं, उन्हें जगाया, उठाया और लगाया जाएगा।
-अखण्ड ज्योति, अगस्त १९६९, पृष्ठ ४

१०. तपोनिष्ठों की जरूरत है—

एक नया युद्ध हम लड़ेंगे। परशुराम की तरह लोक मानस में जमी हुई अवांछनीयता को विचार अस्त्रों से हम काटेंगे। सिर काटने का मतलब विचार बदलना भी है। परशुराम की पुनरावृत्ति हम करेंगे। जन- जन के मन- मन पर गहराई तक गड़े हुए अज्ञान और अनाचार के आसुरी झंडे हम उखाड़ फेकेंगे। इस युग का सबसे बड़ा और सबसे अंतिम युद्ध हमारा ही होगा, जिसमें भारत एक देश न होगा महाभारत बनेगा और उसका दार्शनिक साम्राज्य विश्व के कोने- कोने में पहुँचेगा। निष्कलंक अवतार यही है। सद्भावनाओं का चक्रवर्ती सार्वभौम साम्राज्य जिस युग अवतारी निष्कलंक भगवान् द्वारा होने वाला है वह और कोई नहीं विशुद्ध रूप में अपना युग निर्माण आंदोलन ही है।

महान संभावनाएँ हम उत्पन्न करेंगे। उसके लिए सच्चाई और सद्भावना भरे उत्कृष्ट तपोनिष्ठों की जरूरत है। इसी को इन दिनों विरजा और बीना जा रहा है।
-अखण्ड ज्योति, मई १९७०, पृष्ठ ६०, ६१

११. उद्देश्यों की पूर्ति हेतु साधन और उनकी पूर्ति—

यह हमारी वास्तविकता की परीक्षा वेला है। अज्ञान- असुर के विरुद्ध लड़ने के लिए प्रचुर साधनों की आवश्यकता पड़ेगी। जनशक्ति, बुद्धिशक्ति, धनशक्ति जितनी भी जुटाई जा सके उतनी कम है। बाहर के लोग आपाधापी की दलदल में आकंठ मग्न हैं। इस युग पुकार को अखण्ड ज्योति परिवार ही पूरा करेगा।

जिनको पारिवारिक उत्तरदायित्वों का न्यूनतम निर्वाह करने के लिए जितना समय लगाना अनिवार्य है, वे उस कार्य में उतना ही लगाएँ और शेष समय अज्ञान के असुर से लड़ने के लिए लगाएँ। जिनके बच्चे बड़े हो चुके, जिनके घर में निर्वाह व्यवस्था करने वाले दूसरे लोग मौजूद हैं वे वह उत्तरदायित्व उन लोगों पर मिल- जुलकर पूरा करने की व्यवस्था बनाएँ। जिनने संतान के उत्तरदायित्व पूरे कर लिए वे पूरी तरह वानप्रस्थ में प्रवेश करें और परिव्राजक बनकर जन- जागरण का अलख जगाएँ। जगह- जगह छोटे- छोटे आश्रम बनाने की आवश्यकता नहीं है। इस समय तो हमें परिव्राजक बनकर भ्रमण करने के अतिरिक्त दूसरी बात सोचनी ही नहीं चाहिए।

बूढ़े होने पर संन्यास लेने की कल्पना निरर्थक है। जब शरीर अर्द्धमृतक हो जाता है और दूसरों की सहायता के बिना दैनिक निर्वाह ही कठिन हो जाता है, तो फिर सेवा- साधना कौन करेगा। युग सैनिकों की भूमिका तो वे ही निभा सकते हैं, जिनके शरीर में कड़क मौजूद है। जो शरीर और मन से समर्थ हैं। इस तरह भी भावनाशील एवं प्रबुद्ध जनशक्ति की अधिक मात्रा में आवश्यकता है। सड़े- गले, अधपगले, हरामखोर और दुर्व्यसनी तो साधु- बाबाओं के अखाड़ों में वैसे ही बहुत भरे पड़े हैं। युग देवता को तो वह प्रखर जनशक्ति चाहिए, जो अपना बोझ किसी पर न डाले वरन् दूसरों को अपनी बलिष्ठ भुजाओं से ऊँचा उठा सकने में समर्थ हों।

अखण्ड ज्योति परिवार में से ऐसी ही समर्थ एवं सुयोग्य जनशक्ति का आह्वान किया जा रहा है। योग, तप, सेवा, पुरुषार्थ जवानों द्वारा ही किया जा सकता है। वोल्टेज कम पड़ जाने पर पंखा, बत्ती आदि सभी टिमटिम जलते हैं। नवनिर्माण के लिए भी प्रौढ़शक्ति ही काम देगी। बुड्ढे- बीमारों से वह काम भी चलने वाला नहीं है। अस्तु, आह्वान उसी समर्थ जनशक्ति का किया जा रहा है।
-अखण्ड ज्योति, मार्च १९७५, पृष्ठ ५६- ५७

१२. मणिमुक्तकों की तलाश—

इन दिनों ऐसे मणिमुक्तकों की तलाश हो रही है जिनका सुगठित हार युग चेतना की महाशक्ति के गले में पहनाया जा सके। ऐसे सुसंस्कारियों की तलाश युग निमंत्रण पहुँचा कर की जा रही है, जो जीवित होंगे करवट बदलने में उठ खड़े होंगे और संकट काल में शौर्य प्रदर्शित करने वाले सेनापतियों की तरह अपने को विजयश्री वरण करने के अधिकारी के रूप में प्रस्तुत करेंगे। कृपण और कायर ही कर्तव्यों की पुकार सुनकर काँपते, घबराते और किसी कोटर में अपना मुँह छिपाने की विडंबना रचते हैं। एक दिन मरते तो वे भी हैं, पर खेद पश्चात्ताप की कलंक कालिमा सिर पर लादे हुए।

महाविनाश की विभीषिकाएँ अपनी मौत मरेंगी। अरुणोदय अगले ही क्षणों जाज्वल्यमान दिवाकर की तरह उगेगा। यह संभावना सुनिश्चित है। देखना इतना भर है कि इस परिवर्तन काल में युग शिल्पी की भूमिका संपादन करने के लिए श्रेय कौन पाता है? किसके कदम                                             -अखण्ड ज्योति, सितम्बर १९८८, पृष्ठ ६१

पुनर्गठन का उद्देश्य—

युग निर्माण परिवार यों चल तो बहुत समय से रहा था, पर उसके अनेक मणि- माणिक ऐसे ही लुके- छिपे पड़े थे। अब इनमें से प्रत्येक को सजग, सुगठित, समुन्नत और सक्रिय बनाने का निश्चय किया गया है। अब तक जिज्ञासाओं का समाधान ही करते बन पड़ा। क्रियाशीलों को प्रोत्साहन भर दिया। अब निष्क्रियता को सक्रियता में परिणत करने का विचार है। जो प्रतिभाएँ अब तक हमारे विचारों के प्रति श्रद्धा रखने तक सीमित रही हैं, अब उन्हें कंधे से कंधा और कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए कहा जाएगा। पुनर्गठन का यही प्रधान उद्देश्य है।
 -अखण्ड ज्योति, जुलाई १९७७, पृष्ठ ५१

१४. शरीर नहीं, चेतना के संबंधी चाहिए—

अब हम युग निर्माण परिवार का प्रारंभिक सदस्य उन्हें मानेंगे, जिनमें मिशन की विचारधारा के प्रति आस्था उत्पन्न हो गई है, जो उसका मूल्य, महत्त्व समझते हैं, उसके लिए जिनके मन में उत्सुकता एवं आतुरता रहती है। जिनमें यह उत्सुकता उत्पन्न न हुई हो उनका हमसे व्यक्तिगत संबंध परिचय भर माना जा सकता है, मिशन के साथ उन्हें संबद्ध नहीं माना जाएगा।

यहाँ इन दो बातों का अंतर स्पष्ट समझ लिया जाना चाहिए कि हमारा व्यक्तिगत परिचय एक बात है और मिशन के साथ संबंध दूसरी। व्यक्तिगत परिचय को शरीरगत संपर्क कहा जा सकता है और मिशन के प्रति घनिष्ठता को हमारे प्राणों के साथ लिपटना। शरीर संबंधी तो नाते- रिश्तेदारों से लेकर भवन निर्माण, प्रेस, खरीद-फरोख्त आदि के सिलसिले में हमारे संपर्क में आने वाले ढेरों व्यक्ति हैं। वे भी अपने संपर्क का गौरव अनुभव करते हैं। किंतु हमारे अंतःकरण का, हमारी आकांक्षाओं एवं प्रवृत्तियों का न तो उन्हें परिचय ही है और न उस नाते संबंध सहयोग ही है। उसी श्रेणी में उन्हें भी गिना जाएगा जिन्होंने कभी गुरु दीक्षा अथवा भेंट वार्तालाप के नाते सामयिक संपर्क बनाया था। इस बहिरंग शरीरगत संपर्क को भी झुठलाया नहीं जा सकता। उनके स्नेह, सद्भाव के लिए हमारे मन में स्वभावतः जीवन भर कृतज्ञता एवं आभार के भाव बने रहेंगे। किंतु जो हमारे अंतःकरण को भी छू सके हैं, छू सकते हैं, उनकी तलाश हमें सदा से रही है, रहेगी भी।  -अखण्ड ज्योति, जुलाई १९७७, पृष्ठ ५१, ५२

१५. जाग्रत् आत्माएँ उत्तरदायित्व सँभालें—

जाग्रत् आत्माएँ इस अवसर पर अपना दायित्व सँभालें, इसलिए उन्हें खदानों में छिपे मुक्तकों की तरह प्रयत्नपूर्वक खोजा जा रहा है। जगाया और बुलाया जा रहा है। इस ढ़ूँढ़ खोज के लिए दीपयज्ञों की पुनीत ज्वाला जलाई गई है। अंधकार में खोई हुई वस्तुओं को प्रकाश जलाकर ही खोजा- उठाया जाता है। जन- जन को झकझोरने वाली शृंखला के सुविस्तृत और सुनिश्चित अभियान की तरह ही दीपयज्ञ अभियान को चलाया जा रहा है। धार्मिकता के भावनात्मक वातावरण में ऐसी ढ़ूँढ़- खोज सहज ही बन भी पड़ती है।

देव आरती में बच्चे तो पाई- पैसा चढ़ाकर भी मन बहला लेते हैं, पर प्रतिभाओं को तो छोटी नाली की तरह गंगा नर्मदा जैसी दिव्य धारा में अपने को समर्पित ही करना पड़ता है। हनुमान, अंगद, अर्जुन, भागीरथ, हरिश्चन्द्र, शिवा, भामाशाह, विनोबा, दयानंद, विवेकानन्द जैसे महामना ऐसा ही साहस दिखाकर कृतकृत्य हुए थे। कृपण तो सड़ी कीचड़ में जन्मने वाले कृमि कीटकों की तरह उपजते और उसी नरक में मरकर अंतर्ध्यान हो जाते हैं।

दीपयज्ञों के प्रकाश में ज्योतिर्मय आत्माएँ उभरती, झिलमिलाती दीख पड़ेंगी और अपनी उपयुक्त जगह ग्रहण करेंगी ऐसी आशा रखी गई है। महाकाल का यह शंखनाद निष्फल नहीं जा सकता। उसे सुनकर मूर्च्छितों, प्रसुप्तों में भी चेतना का संचार होगा। जो सर्वथा मर चुके हैं उनकी बात दूसरी है।

-अखण्ड ज्योति, सितम्बर १९८८, पृष्ठ ६१

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