युगऋषि की वेदना एवं उमंगें जानें तदनुसार कुछ करें

युगऋषि की अभिलाषा

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१. चोखे व्यक्तियों की तलाश —

हमारी परंपरा पूजा उपासना की अवश्य है पर व्यक्तिवाद की नहीं। अध्यात्म को हमने सदा उदारता, सेवा और परमार्थ की कसौटी से कसा है और स्वार्थी को खोटा एवं परमार्थी को खरा कहा है। अखण्ड ज्योति परिवार में दोनों ही प्रकार के खरे- खोटे लोग मौजूद हैं। अब इनमें से उन खरे लोगों की तलाश की जा रही है जो हमारे हाथ में लगी हुए मशाल को जलाए रखने में अपना हाथ लगा सकें, हमारे कंधे पर लदे हुए बोझ को हलका करने में अपना कंधा लगा सकें। ऐसे ही लोग हमारे प्रतिनिधि या उत्तराधिकारी होंगे।
 
इस छाँट में जो लोग आ जाएँगे उनसे हम आशा लगाए रहेंगे कि मिशन का प्रकाश एवं प्रवाह आगे बढ़ाते रहने में उनका श्रम एवं स्नेह अनवरत रूप से मिलता रहेगा। हमारी आशा के केन्द्र यही लोग हो सकते हैं।और उन्हें ही हमारा सच्चा वात्सल्य भी मिल सकता है। बातों से नहीं काम से ही किसी की निष्ठा परखी जाती है और जो निष्ठावान् हैं उनको दूसरों का हृदय जीतने में सफलता मिलती है। हमारे लिए भी हमारे निष्ठावान् परिजन ही प्राणप्रिय हो सकते हैं।                                                    -अखण्ड ज्योति, दिसंबर १९६४, पृष्ठ ५१

२.आन्तरिक निकटता चाहिए —

दूसरों की तरह हमारे भी दो शरीर हैं, एक हाड़- मांस का, दूसरा विचारणा एवं भावना का। हाड़- मांस से परिचय रखने वाले करोड़ों हैं। लाखों ऐसे भी हैं जिन्हें किसी प्रयोजन के लिए हमारे साथ कभी सम्पर्क करना पड़ा है। अपनी उपार्जित तपश्चर्या को हम निरन्तर एक सहृदय व्यक्ति की तरह बाँटते रहते हैं। विभिन्न प्रकार की कठिनाइयों एवं उलझनों में उलझे हुए व्यक्ति किसी दलदल में से निकलने के लिए हमारी सहायता प्राप्त करने आते रहते हैं। अपनी सामर्थ्य के अनुसार उनका भार हलका करने में कोई कंजूसी नहीं करते। इस संदर्भ में अनेक व्यक्ति हमारे साथ संपर्क बनाते और प्रयोजन पूरा होने पर उसे समाप्त कर देते हैं। कितने ही व्यक्ति साहित्य से प्रभावित होकर पूछताछ एवं शंका समाधान करने के लिए, कितने ही आध्यात्मिक साधनाओं के गूढ़ रहस्य जानने के लिए, कई अन्यान्य प्रयोजनों से आते हैं। इनकी सामयिक सेवा कर देने से हमारा कर्तव्य पूरा हो जाता है। उनके बारे में न हम अधिक सोचते हैं और न उनकी कोई शिकायत या चिंता करते हैं।

हमारे मन में भावनाएँ उनके लिए उफनती हैं जिनकी पहुँच हमारे अंतःकरण एवं भावना स्तर तक है। भावना शरीर ही वास्तविक शरीर होता है। हम शरीर से जो कुछ हैं, भावना की दृष्टि से कहीं अधिक है। हम शरीर से किसी की जो भलाई कर सकते हैं उसकी अपेक्षा अपनी भावनाओं, विचारणाओं का अनुदान देकर कहीं अधिक लाभ पहुँचाते हैं। पर अनुदान ग्रहण वे ही कर पाते हैं जो भावनात्मक दृष्टि से हमारे समीप हैं। जिन्हें हमारे विचारों से प्रेम है, जिन्हें हमारी विचारणा, भावना एवं अंतःप्रेरणा का स्पर्श करने में अभिरुचि है उन्हीं के बारे में यह कहना चाहिए कि वे तत्त्वतः हमारे निकटवर्ती एवं स्वजन संबंधी हैं। उन्हीं के बारे में हमें कुछ विशेष सोचना है, उन्हीं के लिए हमें कुछ विशेष करना है।
                                                    -अखण्ड ज्योति, जुलाई १९६६, पृष्ठ ४२

३. उद्देश्य पूर्ति में सहायक बनें —

आपत्तिग्रस्त व्यक्तियों की सहायता करना भी धर्म है। फिर जिसने कोई कुटुंब बनाया हो उस कुलपति का उत्तरदायित्व तो और भी अधिक है। गायत्री परिवार के परिजनों की भौतिक एवं आत्मिक कठिनाइयों के समाधान में हम अपनी तुच्छ सामर्थ्य का पूरा- पूरा उपयोग करते रहे। कहने वालों का कहना है कि इससे लाखों व्यक्तियों को असाधारण लाभ पहुँचा होगा। पहुँचा होगा-पर हमें उससे कुछ अधिक संतोष नहीं हुआ। हम चाहते थे कि वह माला जपने वाले लोग-हमारे शरीर से नहीं विचारों से प्रेम करें, स्वाध्यायशील बनें, मनन चिंतन करें, अपने भावनात्मक स्तर को ऊँचा उठावें और उत्कृष्ट मानव निर्माण करके भारतीय समाज को देव समाज के रूप में परिणत करने के हमारे उद्देश्य को पूरा करें। पर वैसा न हो सका। अधिकांश लोग चमत्कारवादी निकले। वे न तो आत्म निर्माण पर विश्वास कर सके और न लोक निर्माण में। आध्यात्मिक व्यक्तियों का जो उत्तरदायित्व होता है उसे अनुभव न कर सके। हम हर परिजन से बार- बार, हर बार अपना प्रयोजन कहते रहे, पर उसे बहुत कम लोगों ने सुना, समझा। मंत्र का जादू देखने के लिए वे लालायित रहे, हम उनमें से काम के आदमी देखते रहे। इस खींचतान को बहुत दिन देख लिया तो हमें निराशा भी उपजी और झल्लाहट भी हुई। मनोकामना पूर्ण करने का जंजाल अपने या गायत्री माता के गले बाँधना हमारा उद्देश्य कदापि न था। उपासना की वैज्ञानिक विधि व्यवस्था अपनाकर आत्मोन्नति के पथ पर क्रमबद्ध रूप से आगे बढ़ते चले जाना यही हमें अपने स्वजन परिजनों से आशा थी, पर वे उस कठिन दीखने वाले काम को झंझट समझकर कतराते रहे। ऐसे लोगों से हमारा क्या प्रयोजन पूरा होता?                 
                                                                 -अखण्ड ज्योति, अक्टूबर १९६६, पृष्ठ ४५,४६


४. अभिलाषा इतनी भर है कि अपने परिवार से जो आशाएँ रखी गई हैं, उन्हें कल्पना मात्र सिद्ध न होना पड़े। अखण्ड ज्योति परिजन अपना उत्साह खो न बैठें और जब त्याग, बलिदान की घड़ी आए, तब अपने को खोटा सिक्का सिद्ध न करने लगें। मनुष्य की महानता उसकी उन सत्प्रवत्तियों को चरितार्थ करने में है, जिनसे दूसरों को प्रकाश मिले। जिसमें ऐसा कुछ नहीं, जो उदरपूर्ति और प्रजनन प्रक्रियाओं तक सीमाबद्ध है, उसे नर- पशु ही कहा जा सकता है। हम नहीं चाहते कि हमारे बड़ी आशाओं के साथ सँजोए हुए सपनों की प्रतिमूर्ति परिजन उसी स्तर के चित्र हों, जिसका कि घर- घर में कूड़ा- करकट भरा पड़ा है।

        इस महत्त्वपूर्ण वेला में जो अपने कर्त्तव्यों का स्मरण रख सकें और जो उसके लिए वासना और तृष्णा को एक सीमा में नियंत्रित रखकर कुछ अवसर, युग की पुकार, ईश्वरीय पुकार को सुनने, समझने और तदनुसार आचरण करने में लगा सकें, वे ही हमारी आशाओं के केंद्र हो सकते हैं। उन साथी- सहचरों के संग हम आगे बढ़ते और निर्धारित मोर्चों पर लड़ते हुए आगे बढ़ेंगे।                               
                                                                              -अखण्ड ज्योति, दिसंबर १९६८, पृष्ठ ६३

५. मजबूत आधारशिला रखना है—

युग निर्माण योजना की मजबूत आधारशिला रखे जाने का अपना मन है। यह निश्चित है कि निकट भविष्य में ही एक अभिनव संसार का सृजन होने जा रहा है। उसकी प्रसव पीड़ा में अगले दस वर्ष अत्यधिक अनाचार, उत्पीड़न, दैवीय कोप, विनाश और क्लेश, कलह से भरे बीतने हैं। दुष्प्रवृत्तियों का परिपाक क्या होता है, इसका दंड जब भरपूर मिल लेगा, तब आदमी बदलेगा। यह कार्य महाकाल करने जा रहा है। हमारे हिस्से में नवयुग की आस्थाओं और प्रक्रियाओं को अपना सकने योग्य जनमानस तैयार करना है। लोगों को यह बताना है कि अगले दिनों संसार का एक राज्य, एक धर्म, एक अध्यात्म, एक समाज, एक संस्कृति, एक कानून, एक आचरण, एक भाषा और एक दृष्टिकोण बनने जा रहा है, इसलिए जाति, भाषा, देश, सम्प्रदाय आदि की संकीर्णताएँ छोड़ें और विश्वमानव की एकता की, वसुधैव कुटुंबकम् की भावना स्वीकार करने के लिए अपनी मनोभूमि बनाएँ।

लोगों को समझाना है कि पुराने से सार भाग लेकर विकृत्तियों को तिलाञ्जलि दे दें। लोकमानस में विवेक जाग्रत् करना है और समझाना है कि पूर्व मान्यताओं का मोह छोड़कर जो उचित उपयुक्त है केवल उसे ही स्वीकार शिरोधार्य करने का साहस करें। सर्वसाधारण को यह विश्वास कराना है कि धन की महत्ता का युग अब समाप्त हो चला, अगले दिनों व्यक्तिगत संपदाएँ न रहेंगी, धन पर समाज का स्वामित्व होगा। लोग अपने श्रम एवं अधिकार के अनुरूप सीमित साधन ले सकेंगे। दौलत और अमीरी दोनों ही संसार से विदा हो जाएँगी। इसलिए धन के लालची बेटे- पोतों के लिए जोड़ने- जाड़ने वाले कंजूस अपनी मूर्खता को समझें और समय रहते स्वल्प संतोषी बनने एवं शक्तियों को संचय उपयोग से बचाकर लोकमंगल की दिशाओं में लगाने की आदत डालें। ऐसी- ऐसी बहुत बातें लोगों के गले उतारनी हैं, जो आज अनर्गल जैसी लगती हैं।

संसार बहुत बड़ा है, कार्य अति व्यापक है, हमारे साधन सीमित हैं। सोचते हैं एक मजबूत प्रक्रिया ऐसी चल पड़े जो अपने पहिए पर लुढ़कती हुई उपरोक्त महान लक्ष्य को सीमित समय में ठीक तरह पूरा कर सके।
                                                     -अखण्ड ज्योति, मार्च १९६९, पृष्ठ ५९, ६०

६. सुसंस्कारी आत्माएँ चेतें—

अखण्ड ज्योति परिवार के परिजनों में अधिकांश बहुत सुसंस्कारी आत्माएँ हैं। उन्हें प्रयत्नपूर्वक ढूँढ़ा और परिश्रमपूर्वक एक टोकरी में संग्रह किया गया है। वही हमारा परिवार है। इनसे नव निर्माण की भूमिका संपादन करने की, अग्रिम मोर्चा सँभालने की हमारी आशा अकारण नहीं है। उसके पीछे एक तथ्य है कि उत्कृष्ट आत्माएँ कैसे ही मलीन आवरण में क्यों न फँस जाएँ, समय आने पर वे अपना स्वरूप और कर्तव्य समझ लेती हैं और दैवी प्रेरणा एवं संदेश को पहचानकर सामयिक कर्तव्यों की पूर्ति में विलंब नहीं करतीं। फायर ब्रिगेड वाले वैसे महीनों पड़े सोते रहें पर जब कहीं आग लगने की सूचना मिलती है, तो उनकी तत्परता देखने को ही मिलती है। अपने परिवार को भी यही सब करना है।

घंटों अँगड़ाई लेते रहने में वक्त की बरबादी होती है, सोने का समय चला गया। जगना- उठना पड़ेगा ही। फिर व्यर्थ करवटें बदलते रहने और अँगड़ाई मात्र लेते रहने, समय गँवाते रहने से क्या लाभ? जब जग ही गए तो उठ खड़ा होना ही उचित है। जो काम प्रतीक्षा कर रहे हैं उन्हें समय पर निपटा लेने में ही खूबसूरती और प्रशंसा है। रोते- झींकते, देर- सवेर में जब करना ही पड़ेगा, तो आत्मग्लानि और लोकनिंदा का कलंक ओढ़ने की क्या आवश्यकता? असामयिक आलस्य प्रमाद को छोड़ ही क्यों न दिया जाए?
                                                         -अखण्ड ज्योति, अगस्त १९६९, पृष्ठ ३

७. श्रद्धा है, तो सक्रिय हों—

हमारी इन दिनों अभिलाषा यह है कि अपने स्वजन- परिजनों को नव निर्माण के लिए कुछ करने के लिए कहते- सुनते रहने का अभ्यस्त मात्र न बना दें, वरन कुछ तो करने के लिए उनमें सक्रियता पैदा करें। थोड़े कदम तो उन्हें चलते- चलाते अपनी आँखों से देख लें। हमने अपना सारा जीवन जिस मिशन के लिए तिल- तिल जला दिया, जिसके लिए हम आजीवन प्रकाश प्रेरणा देते रहे उसका कुछ तो सक्रिय स्वरूप दिखाई देना ही चाहिए। हमारे प्रति आस्था और श्रद्धा व्यक्त करने वाले क्या हमारे अनुरोध को भी अपना सकते हैं? क्या हमारे पद- चिह्नों पर कुछ दूर चल सकते हैं? देखा यह भी जाना चाहिए। ताकि हम देख सकें कि हम सच्चे साथियों के रूप में परिवार का सृजन करते रहें अथवा शेखचिल्ली जैसी कल्पना के महल गढ़ते रहे? इस परख में वस्तुस्थिति सामने आ जाएगी और हम अपने परिवार के साथ जोड़े हुए प्रश्नों की यथार्थता, निरर्थकता के संबंध में किसी सुरक्षित निष्कर्ष पर पहुँच जाएँगे।                                              -अखण्ड ज्योति, अगस्त १९६९, पृष्ठ ९

८. काया से नहीं, प्राणों से प्यार करें—

जो हमें प्यार करता हो, उसे हमारे मिशन से भी प्यार करना चाहिए। जो हमारे मिशन की उपेक्षा, तिरस्कार करता है लगता है वह हमें ही उपेक्षित- तिरस्कृत कर रहा है। व्यक्तिगत रूप से कोई हमारी कितनी ही उपेक्षा करे, पर यदि हमारे मिशन के प्रति श्रद्धावान् है, उसके लिए कुछ करता, सोचता है तो लगता है मानो हमारे ऊपर अमृत बिखेर रहा है और चंदन लेप रहा है। किंतु यदि केवल हमारे व्यक्तित्व के प्रति ही श्रद्धा है, शरीर से ही मोह है, उसी की प्रशस्ति पूजा की जाती है और मिशन की बात उठाकर ताक पर रख दी जाती है तो लगता है हमारे प्राण का तिरस्कार करते हुए केवल शरीर पर पंखा ढुलाया जा रहा हो।               -अखण्ड ज्योति, अगस्त १९६९, पृष्ठ ९, १०

९. ज्ञान की मशाल का प्रयोजन—

        जनमानस का भावनात्मक नवनिर्माण करने के लिए जिस विचारक्रांति की मशाल इस ज्ञानयज्ञ के अंतर्गत जल रही है, उसके प्रकाश में अपने देश और समाज का आशाजनक उत्कर्ष सुनिश्चित है। स्वतंत्र चिंतन के अभाव ने हमें मूढ़ता और रूढ़िवादिता के गर्त में गिरा दिया। तर्क का परित्याग कर हम भेड़ियाधसान- अंधविश्वास के दलदल में फँसते चले गए। विवेक छोड़ा तो उचित- अनुचित का ज्ञान ही न रहा। गुण- दोष विवेचन की, नीर- क्षीर विश्लेषण की प्रज्ञा नष्ट हो जाए तो फिर अँधेरे में ही भटकना पड़ेगा।

        हम ऐसी ही दुर्दशाग्रस्त विपन्नता में पिछले दो हजार वर्ष से जकड़ गए हैं। मानसिक दासता ने हमें हर क्षेत्र में दीन- हीन और निराश निरुपाय बनाकर रख दिया है। इस स्थिति को बदले बिना कल्याण का और कोई मार्ग नहीं। मानसिक मूढ़ता में ग्रसित समाज के लिए उद्धार के सभी द्वार बंद रहते हैं। प्रगति का प्रारंभ स्वतंत्र चिंतन से होता है। लाभ में विवेकवान रहते हैं। समृद्धि साहसी के पीछे चलती है। इन्हीं सत्प्रवृत्तियों का जनमानस में बीजारोपण और अभिवर्द्धन करना अपनी विचारक्रांति का एकमात्र उद्देश्य है। ज्ञान की मशाल इसी दृष्टि से प्रज्वलित की गई है।

                      -अखण्ड ज्योति, सितंबर १९६९, पृष्ठ- ५९, ६०

१०. शपथ पूर्वक सृजन यात्रा—

        अब हम सर्वनाश के किनारे पर बिलकुल आ खड़े हुए हैं। कुमार्ग पर जितने चल लिए उतना ही पर्याप्त है। अगले कुछ ही कदम हमें एक दूसरे का रक्तपान करने वाले भेड़ियों के रूप में बदल देंगे। अनीति और अज्ञान से ओत- प्रोत समाज सामूहिक आत्महत्या कर बैठेगा। अब हमें पीछे लौटना होगा। सामूहिक आत्महत्या हमें अभीष्ट नहीं। नरक की आग में जलते रहना हमें अस्वीकार है। मानवता को निकृष्टता के कलंक से कलंकित बनी न रहने देंगे। पतन और विनाश हमारा लक्ष्य नहीं हो सकता।  दुर्बुद्धि एवं दुष्प्रवृत्तियों को सिंहासन पर विराजमान रहने देना सहन न करेंगे। अज्ञान और अविवेक की सत्ता शिरोधार्य किए रहना अब अशक्य है। हम इन परिस्थितियों को बदलेंगे, उन्हें बदलकर ही रहेंगे।

        शपथपूर्वक परिवर्तन के पथ पर हम चले हैं और जब तक सामर्थ्य की एक बूँद भी शेष है, तब तक चलते ही रहेंगे। अविवेक को पदच्युत करेंगे। जब तक विवेक को मूर्धन्य न बना लेंगे, तब तक चैन न लेंगे। उत्कृष्टता और आदर्शवादिता की प्रकाश किरणें हर अंतःकरण तक पहुँचाएँगे और वासना और तृष्णा के निकृष्ट दलदल से मानवीय चेतना को विमुक्त करके रहेंगे। मानव समाज को सदा के लिए दुर्भाग्यग्रस्त नहीं रखा जा सकता। उसे महान आदर्शों के अनुरूप ढलने और बदलने के लिए बलपूर्वक घसीट ले चलेंगे। पाप और पतन का युग बदला जाना चाहिए। उसे बदल कर रहेंगे।

        इसी धरती पर स्वर्ग का अवतरण और इसी मानव प्राणी में देवत्व का उदय हमें अभीष्ट है और इसके लिए भागीरथ तप करेंगे। ज्ञान की गंगा को भूलोक में लाया जाएगा और उसके पुण्य जल में स्नान कराके कोटि- कोटि नर- पशुओं को नर- नारायणों में परिवर्तित किया जाएगा। इसी महान शपथ और व्रत को ज्ञानयज्ञ के रूप में परिवर्तित किया गया है। विचारक्रान्ति की आग में गंदगी का कूड़ा- करकट जलाने के लिए होलिका- दहन जैसा अपना अभियान है। अनीति और अनौचित्य के गलित कुष्ठ से विश्वमानव का शरीर विमुक्त करेंगे। समग्र कायाकल्प का युग परिवर्तन का, लक्ष्य पूरा ही किया जाएगा। ज्ञानयज्ञ की चिनगारियाँ विश्व के कोने- कोने में प्रज्वलित होंगी। विचारक्रांति का ज्योतिर्मय प्रवाह जन- जन के मन को स्पर्श करेगा।

        -अखण्ड ज्योति, अक्टूबर १९६९, पृष्ठ ५७, ५८

११. रचनात्मक उमंग जागे—

        सृजन एक मनोवृत्ति है, जिससे प्रभावित हर व्यक्ति को अपने समय के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए कुछ न कुछ कार्य व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से निरंतर करना होता है। उसके बिना उसे चैन ही नहीं मिलता। किस परिस्थिति का, किस योग्यता का व्यक्ति, नवनिर्माण के लिए क्या रचनात्मक कार्य करे यह स्थानीय आवश्यकताओं को देखकर ही निर्णय किया जा सकता है। युग निर्माण योजना के ‘शत-सूत्रीय कार्यक्रमों में इस प्रकार के संकेत विस्तार पूर्वक किए गए हैं। रात्रि पाठशालाएँ, प्रौढ़ पाठशालाएँ, पुस्तकालय, व्यायामशालाएँ, स्वच्छता, श्रमदान, सहकारी संगठन, सुरक्षा, शाक- पुष्प- फल उत्पादन आदि अनेक कार्यों की चर्चा उस संदर्भ में की जा चुकी है।

        प्रगति के लिए यह नितांत आवश्यक है कि हर नागरिक के मन में यह दर्द उठता रहे कि विश्व का पिछड़ापन दूर करने के लिए, सुख- शांति की संभावनाएँ बढ़ाने के लिए उसे कुछ न कुछ रचनात्मक कार्य करने चाहिए। यह प्रयत्न कोटि- कोटि हाथों, मस्तिष्कों और श्रम सीकरों से सिंचित होकर इतने व्यापक हो सकते हैं कि सृजन के लिए सरकार का मुँह ताकने और मार्गदर्शन लेने की कोई आवश्यकता ही न रह जाए।

        -अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ ६०, ६१

१२. विभूतियाँ महाकाल के चरणों में समर्पित करें—

        परिजनों को अपनी जन्म- जन्मान्तरों की उस उत्कृष्ट सुसंस्कारिता का चिंतन करना चाहिए जिसकी परख से हमने उन्हें अपनी माला में पिरोया है। युग की पुकार, जीवनोद्देश्य की सार्थकता, ईश्वर की इच्छा और इस ऐतिहासिक अवसर की स्थिति, महामानव की भूमिका को ध्यान में रखते हुए कुछ बड़े कदम उठाने की बात सोचनी चाहिए। इस महाअभियान की अनेक दिशाएँ हैं जिन्हें पैसे से, मस्तिष्क से, श्रम सीकरों से सींचा जाना चाहिए। जिसके पास जो विभूतियाँ हैं उन्हें लेकर महाकाल के चरणों में प्रस्तुत होना चाहिए।

        लोभ, मोह के अज्ञान और अंधकार की तमिस्रा को चीरते हुए हमें आगे बढ़ना चाहिए और अपने पास जो हो उसका न्यूनतम भाग अपने और अपने परिवार के लिए रख कर शेष को विश्व मानव के चरणों में समर्पित करना चाहिए। नव निर्माण की लाल मशाल में हमने अपने सर्वस्व का तेल टपका कर उसे प्रकाशवान् रखा है। अब परिजनों की जिम्मेदारी है कि वे उसे जलती रखने के लिए हमारी ही तरह अपने अस्तित्व के सार तत्त्व को टपकाएँ। परिजनों पर यही कर्तव्य और उत्तरदायित्व छोड़कर इस आशा के साथ हम विदा हो रहे हैं कि महानता की दिशा में कदम बढ़ाने की प्रवृत्ति अपने परिजनों में घटेगी नहीं बढ़ेगी ही।

                      -अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ ६१

१३. सच्चे आत्मीय बनें—

        यदि किसी को हमारा वास्तविक परिचय प्राप्त करना हो तो नवयुग के प्रतीक प्रतिनिधि के रूप में ही हमारे समूचे जीवन का समूचे व्यक्तित्व का मूल्यांकन करना चाहिए। हमारे रोम- रोम में चेतना के रूप में बसा हुआ भगवान् यह रास रचाए हुए है।

        पंद्रह वर्ष की आयु में सारा जीवन जिस भगवान्, जिस सद्गुरु को समर्पित किया था, वह शरीर सत्ता नहीं, वरन युग चेतना की ज्वलंत ज्वाला ही कही जा सकती है। उसके प्रभाव से हम जो कुछ भी सोचते और करते हैं उसे असंदिग्ध रूप से भजन कहा जा सकता है। यह भजन मानवी आदर्शों को पुनर्जीवित करने के विविध प्रयोगों के रूप में समझा जा सकता है। हमारी दैनिक उपासना भी इसी का एक अंग है। उसके माध्यम से हम अपनी सामर्थ्य पर, अंतरात्मा पर प्रखरता की धार रखते हैं, इसलिए उसे साधना भर कहा जाएगा। साध्य तो वह भगवान् है, जिसकी झाँकी स्थूल शरीर में सत्कर्म, सूक्ष्म शरीर में सद्ज्ञान एवं कारण शरीर में सद्भाव के रूप में भासित होती है।

    एक वाक्य में कहना हो तो हमारा प्राण स्पंदन और मिशन, एक ही कहा जा सकता है। इस तथ्य के आधार पर जिनकी मिशन की विचारधारा के प्रति जितनी निष्ठा और तत्परता है, उन्हें हम अपने प्राण जीवन का उतना ही घना संबंधी मानते हैं। भले ही वे व्यक्तिगत रूप से हमारे शरीरगत संपर्क में कभी न आए हों, हमारी आशा भरी दृष्टि उन्हीं पर जा टिकती है।

                   -अखण्ड ज्योति, जुलाई १९७७, पृष्ठ ५२

१४. युगदूतों की भूमिका निभायें—

        नवयुग की चेतना घर- घर पहुँचाने और जन- जन को जागृति का संदेश सुनाने का ठीक यही समय है। इन दिनों हमारी भूमिका युगदूतों जैसी होनी चाहिए। इन दिनों हमारे प्रयास संस्कृति का सेतु बाँधने वाले नल- नील जैसे होने चाहिए। खाई कूदने वाले अंगद की तरह, पर्वत उठाने वाले हनुमान की तरह, यदि पुरुषार्थ न जगे तो भी गिद्ध- गिलहरी की तरह अपने तुच्छ को महान के सम्मुख समर्पित कर सकना तो संभव हो ही सकता है। गोवर्धन उठाते समय यदि हमारी लाठी भी सहयोग के लिए न उठी तो भी स्रष्टा का प्रयोजन पूर्णता तक रुकेगा नहीं। पश्चात्ताप का घाटा हमें ही सहना पड़ेगा।

        साहसिक शूरवीरों की तरह अब नवयुग के अवतरण में अपनी भागीरथी भूमिका आवश्यक हो गई है। इसके बिना तपती भूमि और जलती आत्माओं को तृप्ति देने वाली गंगा को स्वर्ग से धरती पर उतरने के लिए सहमत न किया जा सकेगा।

                     -अखण्ड ज्योति, मार्च १९७८, पृष्ठ ६०, ६१

१५. जनमानस का परिष्कार—

        युग विकृतियों का एक ही कारण है जनमानस में आदर्शों के प्रति अनास्था का बढ़ जाना। इस सड़ी कीचड़ से ही असंख्यों कृमि- कीटक उपजते हैं और समस्याओं तथा विभीषिकाओं के रूप में जन- जन को संत्रस्त करते हैं। उज्ज्वल भविष्य की संरचना का एक ही उपाय है-जनमानस का परिष्कार। चिंतन में उत्कृष्टता का समावेश किया जा सके, दृष्टिकोण में आदर्शवादिता को स्थान मिल सके, तो लोक प्रवाह में सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियों का बाहुल्य दीखेगा। ऐसी दशा में युग संकट के कुहासे को दूर होते देर न लगेगी। समस्या दार्शनिक है-आर्थिक, राजनैतिक या सामाजिक नहीं। जन मानस को परिष्कृत किया जा सके तो प्रस्तुत विभीषिकाओं का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। उनसे लड़ने की लंबी- चौड़ी तैयारी करने की आवश्यकता ही न रहेगी।

        मनुष्य को ध्वंस से विरत करके सृजन में लागू होने के लिए सहमत किया जा सके तो बड़े पैमाने पर जो खर्चीली योजनाएँ बन रही हैं उनमें से एक की भी आवश्यकता न पड़ेगी। जन- जन के बूँद- बूँद प्रयत्नों से इतना कुछ अनायास ही होने लगेगा जिस पर सैकड़ों पंचवर्षीय सृजन योजनाओं को निछावर किया जा सकेगा। इसके विपरीत जन सहयोग के अभाव में बड़ी से बड़ी खर्चीली योजनाएँ अपंग बनकर रह जाती हैं। हमें पत्तों पर भटकने के स्थान पर जड़ सींचने का प्रयत्न करना चाहिए। जनमानस का परिष्कार ही सामयिक समस्याओं का एकमात्र हल है। उज्ज्वल भविष्य की संरचना का लक्ष्य इस एक ही राजमार्ग पर चलते हुए निश्चित रूप से पूर्ण हो सकता है। ज्ञानयज्ञ का युग अनुष्ठान इसी निमित्त चल रहा है। विचारक्रांति की लाल मशाल का प्रज्ज्वलन इसी विश्वास के साथ हुआ है कि जन- जन के मन- मन में उत्कृष्टता की आस्थाओं का आलोक उत्पन्न किया जा सके।

        -अखण्ड ज्योति, फरवरी १९७९, पृष्ठ ५४

१६. जाग्रत् आत्माओं से याचना—

        ज्ञानयज्ञ के लिए समयदान, यही है प्रज्ञावतार की जाग्रत् आत्माओं से याचना, उसे अनसुनी न किया जाए। प्रस्तुत क्रिया- कलाप पर नए सिरे से विचार किया जाए, उस पर तीखी दृष्टि डाली जाए और लिप्सा में निरत जीवन क्रम में साहसिक कटौती करके उस बचत को युग देवता के चरणों पर अर्पित किया जाए। सोने के लिए सात घंटे, कमाने के लिए आठ घंटे, अन्य कृत्यों के लिए पाँच घंटे लगा देना सांसारिक प्रयोजनों के लिए पर्याप्त होना चाहिए। इनमें २० घंटे लगा देने के उपरांत चार घंटे की ऐसी विशुद्ध बचत हो सकती है जिसे व्यस्त और अभावग्रस्त व्यक्ति भी युग धर्म के निर्वाह के लिए प्रस्तुत कर सकता है। जो पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्त हो चुके हैं, जिन पर कुटुंबियों की जिम्मेदारियाँ सहज ही हलकी हैं, जिनके पास संचित पूँजी के सहारे निर्वाह क्रम चलाते रहने के साधन हैं, उन्हें तो इस सौभाग्य के सहारे परिपूर्ण समयदान करने की ही बात सोचनी चाहिए। वानप्रस्थों की, परिव्राजकों की, पुण्य परंपरा की अवधारणा है ही ऐसे सौभाग्यशालियों के लिए। जो जिस भी परिस्थिति में हो समयदान की बात सोचे और उस अनुदान को नवजागरण के पुण्य प्रयोजन में अर्पित करे।

        प्रतिभा, कुशलता, विशिष्टता से संपन्न कई विभूतिवान व्यक्ति इस स्थिति में होते हैं कि अनिवार्य प्रयोजनों में संलग्न रहने के साथ- साथ ही इतना कुछ कर या करा सकते हैं कि उतने से भी बहुत कुछ बन पड़ना संभव हो सके। उच्च पदासीन, यशस्वी, धनी- मानी अपने प्रभाव का उपयोग करके भी समय की माँग पूरी करने में अपनी विशिष्ट भूमिका निभा सकते हैं। विभूतिवानों का सहयोग भी अनेक बार कर्मवीर समयदानियों जितना ही प्रभावोत्पादक सिद्ध हो सकता है।

        -अखण्ड ज्योति, अगस्त १९७९, पृष्ठ ५६

१७. लोक सेवा इन दिनों क्या होनी चाहिए?—

        लोकसेवा इन दिनों क्या होनी चाहिए, इसकी जानकारी दूरदर्शी विवेकवानों को समय- समय पर कराई जाती रही है और कहा जाता रहा है कि दुर्मति ही दुर्गति का कारण है। चिंतन का भटकाव ही असंख्य समस्याओं का मूल है। सड़े कीचड़ में से दुर्गंधित कृमि कीटक उपजते हैं और रक्त के विषाक्त होने पर अनेकानेक चर्म रोगों का उद्भव होता है। प्रज्ञा युग के अवतरण के लिए हमें घर- घर युग चेतना का अलख जगाना और जन- जन के मन- मन में युग संदेश का आलोक पहुँचाना है। युग समस्याओं को प्राथमिकता देते हुए हम कुछ समय के लिए धर्मशाला, मंदिर, कूप, तालाब, औषधालय, प्याऊ, सदावर्त आदि ख्याति प्रदान करने वाले निर्माणों से हाथ खींच सकते हैं और सर्वप्रथम, सर्वोत्तम एवं सामयिक प्रज्ञा प्रसार को अग्रगामी बनाने के लिए प्रयत्नरत हो सकते हैं। इसके लिए जैसे- जैसे लोभ- मोह के बंधन शिथिल होते जाएँ, समय एवं साधन दान को आज की परम आवश्यकता मानते हुए हर परिजन को युगधर्म के निर्वाह में जुट जाना चाहिए।

        -अखण्ड ज्योति, मई १९८५, पृष्ठ ६२

१८. साँचे बनें, सम्पर्क करें—

        प्रज्ञा परिवार सृजन का संकल्प लेकर चला है। उसके सदस्यों, सैनिकों का स्तर ऊँचा होना चाहिए। ऐसा ऊँचा इतना अनुशासित कि उसके कर्तृत्व को देखकर अनेक की चेतना जाग पड़े और पीछे चलने वालों की कमी न रहे। बढ़िया साँचों में ही बढ़िया आभूषण, पुर्जे या खिलौने ढलते हैं। यदि साँचे ही आड़े- तिरछे हों तो उनके संपर्क क्षेत्र में आने वाले भी वैसे ही घटिया-वैसे ही फूहड़ होंगे। इसी प्रयास को संपन्न करने के लिए कहा गया है। इसी को उच्चस्तरीय आत्म परिष्कार कहा गया है। यही महाभारत जीतना है। जन- नेतृत्व करने वालों को आग पर भी, कसौटी पर भी खरा उतरना चाहिए। लोभ, मोह और अहंकार पर जितना अंकुश लगाया जा सके लगाना चाहिए। तभी वर्तमान प्रज्ञा परिजनों से यह आशा की जा सकेगी कि वे अपनी प्रतिभा से अपने क्षेत्र को आलोकित कर सकेंगे और सृजन का वातावरण बना सकेंगे।
        
        दूसरा कार्य यह है कि नवयुग के संदेश को और भी व्यापक बनाया जाए। इसके लिए जन- जन से संपर्क साधा जाए। घर- घर अलख जगाया जाए। मिशन की पृष्ठभूमि से अपने समूचे संपर्क क्षेत्र को अवगत कराया जाए। पढ़ाकर भी और सुनाकर भी। इन अवगत होने वालों में से जो भी उत्साहित होते दिखाई पड़ें उन्हें कुछ छोटे- छोटे काम सौंपे जाएँ। भले ही वे जन्मदिन मनाने जैसे अति सुगम और अति साधारण ही क्यों न हों। पर उनमें कुछ श्रम करना, कुछ सोचना और कुछ कहना पड़ता है। तभी वह व्यवस्था जुटती है। ऐसे छोटे आयोजन संपन्न कर लेने पर मनुष्य की झिझक छूटती है, हिम्मत बढ़ती है और वह क्षमता उदय होती है, जिसके माध्यम से नव सृजन प्रयोजन के लिए जिन बड़े- बड़े कार्यों की आवश्यकता है, उन्हें पूरा किया जा सके।

        जो कार्य अगले दिनों करने हैं, वे पुल खड़े करने, बाँध बाँधने, बिजली घर तैयार करने जैसे विशालकाय होंगे। इसके लिए इंजीनियर नहीं होंगे, और न ऊँचे वेतन पर उनकी क्षमता को खरीदा जा सकेगा। वे अपने ही रीछ वानरों में से होंगे। समुद्र पर पुल बाँधने जैसे कार्य में नल- नील जैसे प्रतिभावान भावनाशील ही चाहिए। इसके लिए बुद्ध, गाँधी, विनोबा जैसे चरित्र भी चाहिए और प्रयास भी।

        -अखण्ड ज्योति, अगस्त १९८५, पृष्ठ ६५

१९. समर्थ नाविक बनें—

        हमारी आंतरिक अभिलाषा एक ही है कि जो हमें अपना समझते हैं, जिन्हें हम अपना समझते हैं, वे युग नेतृत्व करें। अपने आपको आदर्शों के राजमार्ग पर चलाएँ और नैतिक, बौद्धिक, सामाजिक क्षेत्र में प्रगतिशीलता की क्रिया- प्रक्रिया अपनाएँ। समर्थ नाविक की तरह अपनी मजबूत पतवार वाली नाव पर बिठाकर स्वयं पार हों, अन्यान्य असंख्यों को पार लगाएँ, ऊँचा उठाएँ और ऐसा वातावरण बनाएँ जिससे सर्वत्र वसंत- सुषमा बिखरी दृष्टिगोचर हो।

        -अखण्ड ज्योति, सितंबर १९८६, पृष्ठ ५६


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