युगऋषि की वेदना एवं उमंगें जानें तदनुसार कुछ करें

युगऋषि का आश्वासन

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१. युग निर्माण आन्दोलन अगले दिनों जिस प्रचण्ड रूप में मूर्तिमान होगा उसकी रहस्यमय भूमिका कम ही लोगों को विदित होगी, पर यह निश्चित है कि वह आन्दोलन बहुत ही प्रखर और प्रचण्ड रूप से उठेगा और पूर्ण सफल होगा। सफलता का श्रेय किन व्यक्तियों को, किन आस्थाओं को मिलेगा इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं। पर होना यह निश्चित रूप से है।

        -अखण्ड ज्योति, नवम्बर १९६६, पृष्ठ- ४७


२. अगला कार्य महाकाल स्वयं करेंगे—

        हमने अपना जीवन नवयुग की पूर्व सूचना देने, महाकाल के इस महान प्रयोजन में सम्मिलित होने के लिए प्रबुद्ध आत्माओं को निमंत्रण देने में लगा दिया। जिस काम के लिए हम आए थे पूरा होने को है। अगला काम महाकाल स्वयं करेंगे। अगले दिन उनकी प्रेरणा से एक- से बढ़कर प्रतिभाशाली और प्रबुद्ध आत्माएँ आएँगी। ये ऐसा एक व्यापक संघर्ष विश्वव्यापी परिमाण में प्रस्तुत करेंगी, जो असमानता के सारे कारणों को तोड़- मरोड़कर फेंक दे और समता की मंगलमयी परिस्थितियों का शुभारंभ करके इसी धरती पर स्वर्ग का वातावरण संभव कर दिखावे।

        -अखण्ड ज्योति, जुलाई १९६९, पृष्ठ ६५


३. मशाल जलती रहेगी—

        ईश्वरीय प्रेरणा ने इन दिनों एक ऐसे ही युग निर्माण आन्दोलन का सृजन किया है जिसका उद्देश्य जनमानस की विपन्न विचारशैली को बदलकर फिर विवेक और औचित्य के आधार पर सोचने और करने का अवसर मिले। जड़ विचारणा में सन्निहित है पर विचारों के साथ क्रिया संबद्ध है और क्रिया सुधरे, तो परिस्थितियों के सुधरने में कुछ देर नहीं लगती। अस्तु, विचार परिवर्तन का एक विश्वव्यापी अभियान इन दिनों आरम्भ हुआ है। यद्यपि उसका स्वरूप असुरता के विशाल कलेवर की तुलना में नगण्य जैसा है, पर जो सच्चाई की शक्ति जानते हैं, उन्हें यह विश्वास करने में कठिनाई नहीं होती कि छोटे से प्रकाश के आगे अंधकार का विशाल कलेवर गल जाता है और छोटी- सी चिनगारी सुविस्तृत वनों को जलाकर राख कर देती है। विवेकशीलता का तेल और औचित्य के कपड़े को लेकर मशाल जलाई गई है, वह यों ही बुझ जाने वाली नहीं है। यह अपने युग की महत्तम आवश्यकता एवं ईश्वरीय इच्छा पूरी होने तक जलती ही रहेगी।

        -अखण्ड ज्योति, अगस्त १९६९, पृष्ठ २, ३


४ विराट् योजना पूरी होकर रहेगी—

        भारत के पिछले राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में कितनी जनशक्ति और कितनी धनशक्ति लगी थी, यह सर्वविदित है। यह भारत तक और उसके राजनैतिक क्षेत्र तक सीमित थी। अपने अभियान का कार्यक्षेत्र उससे सैकड़ों गुना बड़ा है। अपना कार्यक्षेत्र समस्त विश्व है और राजनीति में ही नहीं वरन व्यक्ति तथा समाज के हर क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन प्रस्तुत करने हैं। इसके लिए कितने सृजनात्मक और कितने संघर्षात्मक मोर्चे खोलने पड़ेंगे, इसकी कल्पना कोई भी दूरदर्शी कर सकता है। वर्तमान अस्त- व्यस्तता को सुव्यवस्था में परिवर्तित करना एक बड़ा काम है। मानवीय मस्तिष्क की दिशा, विचारणा, आकांक्षा, अभिरुचि और प्रवृत्ति को बदल देना, निष्कृष्टता के स्थान पर उत्कृष्टता की प्रतिष्ठापना करना, सो भी समस्त पृथ्वी पर रहने वाले चार अरब व्यक्तियों में निस्संदेह एक बहुत बड़ा ऐतिहासिक काम है। इसमें अग्रणी व्यक्तियों, असंख्य आंदोलनों और असीम क्रिया तन्त्रों का समन्वय होगा। यह एक अवश्यंभावी प्रक्रिया है, जिसे महाकाल अपने ढंग से नियोजित कर रहे हैं। हर कोई देखेगा कि आज की वैज्ञानिक प्रगति की तरह कल भावनात्मक उत्कर्ष के लिए भी प्रबल प्रयत्न होंगे और उसमें एक से एक बढ़कर व्यक्तित्व एवं संगठन गजब की भूमिका प्रस्तुत कर रहे होंगे। यह सपना नहीं, सचाई है। जिसे अगले दिनों हर कोई मूर्तिमान होते हुए देखेगा। इसे भविष्यवाणी नहीं समझना चाहिए, एक वस्तुस्थिति है जिसे हम आज अपनी आँखों पर चढ़ी दूरबीन से प्रत्यक्षतः देख रहे हैं। कल वह निकट आ पहुँचेगी और हर कोई उसे प्रत्यक्ष देखेगा। अगले दिनों संसार का समग्र परिवर्तन करके रख देने वाला एक भयंकर तूफान विद्युत गति से आगे बढ़ता चला आ रहा है जो इस सड़ी दुनियाँ को समर्थ, प्रबुद्ध, स्वस्थ और समुन्नत बनाकर ही शांत होगा।

        -अखण्ड ज्योति, सितम्बर १९६९, पृष्ठ ६४, ६५


५. लोगों की निगाह से दूर रहें, यह हो सकता है, पर हर जाग्रत् और जीवित आत्मा यह अनुभव करेगी कि हम उसकी अंतरात्मा में बैठकर कोहराम मचा रहे हैं और नर- कीटक एवं नरपशु की जिंदगी को नर- नारायण के रूप में परिणत होने की प्रबल प्रेरणा कर रहे हैं। जो आगे बढ़ेंगे उन्हें भरपूर शक्ति देंगे, जो लड़खड़ा रहे होंगे, उन्हें सँभालेंगे और जो सँभल गए हैं, उन्हें आगे बढ़ने के लिए आवश्यक उपकरणों से सुसज्जित करेंगे। सृजनात्मक एवं संघर्षात्मक अभियानों का नेतृत्व दूसरे लोग करेंगे पर बाजीगर की उँगलियों की तरह अगणित नर पुतलियों को नचाने में हमारी भूमिका भली प्रकार सम्पादित होती रहेगी, भले ही उसे कोई जाने या न जाने। हमारी तपश्चर्या भी वस्तुतः नव निर्माण के महान अभियान की तैयारी के लिए अभीष्ट शक्ति जुटाने की विशिष्ट प्रक्रिया भर है। हमें जिस प्रयोजन के लिए भेजा गया है, उसे पूरा किए बिना एक कदम भी पीछे हटने वाले नहीं हैं। युग परिवर्तन की महान प्रक्रिया अधूरी नहीं रहने दी जा सकती। नवनिर्माण की ईश्वरीय आकांक्षा अपूर्ण नहीं रह सकती। उसको नियोजित करने के लिए प्रतिभाओं को आगे लाया ही जाएगा। उन्हें इच्छा या अनिच्छा से, देर या सबेर से आगे आना ही पड़ेगा।

        -अखण्ड ज्योति, मई १९७०, पृष्ठ ५८, ५९

६. किसी के मन में यह आशंका नहीं रहनी चाहिए कि आचार्य जी के चले जाने के बाद अपना आन्दोलन शिथिल या बन्द हो जाएगा। ऐसी आशंका करने वाले यह भूल जाते हैं कि यह किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा आरम्भ की हुई प्रवृत्ति नहीं है। इसके पीछे विशुद्ध रूप से ईश्वरीय इच्छा और प्रेरणा काम कर रही है। जिसके पीछे यह शक्ति काम कर रही हो, उसके सम्बन्ध में किसी को आशंका नहीं करनी चाहिए। व्यक्ति असफल हो सकते हैं, भगवान् के असफल होने का कोई कारण नहीं। व्यक्ति की इच्छाएँ अधूरी रह सकती हैं, भगवान् की इच्छा पूरी क्यों न होगी। अब तक के आन्दोलन की प्रगति को जिन लोगों ने बारीकी से देखा समझा है उन्हें यह विश्वास करना ही चाहिए कि उपलब्ध सफलताएँ हमारे जैसे नगण्य व्यक्ति के माध्यम से किसी भी प्रकार संभव न थी। हमें निमित्त बनाकर कोई महाशक्ति अदृश्य रूप से काम कर रही है। केवल आँखों के सामने कठपुतली नाचने से लोग प्रशंसा उस लकड़ी के टुकड़े की करते हैं जो नाचता दीखता है। वस्तुतः श्रेय उस बाजीगर को है जिसकी उँगलियाँ अपनी अदृश्य संचालन कला के द्वारा उस खेल का सरंजाम जुटा रही हैं।

        -अखण्ड ज्योति, नवम्बर १९७०, पृष्ठ ५७


७. हमारा प्रयोजन समझने में किसी को भूल नहीं करनी चाहिए। हम प्रचण्ड आत्मशक्ति की एक ऐसी गंगा को लाने जा रहे हैं, जिससे अभिसप्त सगर- सुतों की तरह आग में जलते और नरक में बिलखते जन समाज को आशा और उल्लास का लाभ दे सकें। हम लोकमानस को बदलना चाहते हैं। इन दिनों हर व्यक्ति का मन ऐषणाओं से भरपूर है। लोग अपने व्यक्तिगत वैभव और वर्चस्व से, तृष्णा और वासना से, एक कदम आगे की बात नहीं सोचना चाहते। उनका पूरा मनोयोग इसी केन्द्र बिन्दु पर उलझा पड़ा है।     

        हमारी चेष्टा है कि लोग जीने भर के लिए सुख- सुविधा पाकर सन्तुष्ट रहें। उपार्जन हजार हाथों से करें, पर उसका लाभ अपने और अपने बेटे तक सीमित न रखकर समस्त समाज को वितरण करें। व्यक्ति की विभूतियों का लाभ उसके शरीर और परिवार तक ही सीमित न रहे वरन उसका बड़ा अंश देश, धर्म, समाज और संस्कृति को, विश्वमानव को, लोकमंगल को मिले। इसके लिए व्यक्ति के वर्तमान कलुषित अंतरंग को बदलना अत्यन्त आवश्यक है। व्यक्तिवाद के असुर को समूहवाद के देवत्व में परिणत न किया गया, तो सर्वनाश के गर्त में गिरकर मानवीय सभ्यता को आत्महत्या करने के लिए विवश होना पड़ेगा।     

        इस विभीषिका को रोकने के लिए हम अग्रिम मोर्चे पर लड़ने जा रहे हैं। स्वार्थपरता और संकीर्णता की अंधतमिस्रा, असुरता में पैर से लेकर सर तक डूबे हुए जनमानस को उभारने और सुधारने में हम अधिक तत्परता और सफलता के साथ कुछ कहने लायक कार्य कर सकें, हमारी भावी तपश्चर्या का प्रधान प्रयोजन यही है। आत्मविद्या की महत्ता को भौतिक विज्ञान की तुलना में अधिक उपयोगी और अधिक समर्थ सिद्ध करने से ही उस उपेक्षित क्षेत्र के प्रति लोक रुचि मुड़ेगी, सो उसे प्रामाणिकता की हर कसौटी पर खरी सिद्ध कर सकने लायक उपलब्धियाँ प्राप्त करने हम जा रहे हैं। हमारा भावी जीवन इन्हीं क्रियाकलापों में लगेगा, सो परिवार के किसी स्वजन को हमारे इस महाप्रयाण के पीछे आशंका या निराशाजनक बात नहीं सोचनी चाहिए।

        -अखण्ड ज्योति, मार्च १९७१, पृष्ठ ५०


८. प्रचारात्मक, संगठनात्मक, रचनात्मक और संघर्षात्मक चतुर्विध कार्यक्रमों को लेकर युग निर्माण योजना क्रमशः अपना क्षेत्र बनाती और बढ़ाती चली जाएगी। निःसन्देह इसके पीछे ईश्वरीय इच्छा और महाकाल की विधि व्यवस्था काम कर रही है, हम केवल उसके उद्घोषक मात्र हैं। यह आंदोलन न तो शिथिल होने वाला है, न निरस्त। हमारे तपश्चर्या के लिए चले जाने के बाद वह घटेगा नहीं-हजार लाख गुना विकसित होगा। सो हममें से किसी को शंका- कुशंकाओं के कुचक्र में भटकने की अपेक्षा अपना वह दृढ़ निश्चय परिपक्व करना चाहिए कि विश्व का नवनिर्माण होना ही है और उससे अपने अभियान को, अपने परिवार को अति महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक भूमिका का सम्पादन करना ही है।

        -अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ ६१


९. ईश्वरीय योजना यों लागू होगी—

        ईश्वर को यह किसी प्रकार मंजूर नहीं। बच्चों को बारूद से खेलने की छूट नहीं दी जा सकती। महाकाल ने इस अव्यवस्था को व्यवस्था में पलटने के लिए अपना शस्त्र उठा ही लिया है। उसकी प्रत्यावर्तन प्रक्रिया चल पड़ी है। हम साँस रोक कर देखें कि अगले दिनों क्या होता है; प्रवाह कैसे बदलता है, दुनिया कैसे उलटती है और असंभव लगने वाला प्रसंग कैसे संभव बनता है। मनुष्य को बदलना ही पड़ेगा। इच्छा से भी और अनिच्छा से भी। यह रीति- नीति देर तक नहीं चल सकती। युग परिवर्तन एक निश्चित तथ्य है। उसके बिना और कोई गति नहीं। इस हेर- फेर के लिए अब अधिक समय प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। इन दिनों अंतरिक्ष में चल रही हलचलें अगले ही दिनों साकार रूप धारण करेंगी और हम एक ऐसी महाक्रान्ति का इन्हीं आँखों से दर्शन करेंगे जिसमें सब कुछ उलट- पुलट करने की सामर्थ्य भरी होगी।

        -अखण्ड ज्योति, मई १९७२, पृष्ठ ३१


१०. नवनिर्माण के अवतरण की किरणें अगले दिनों प्रबुद्ध एवं जीवन्त आत्माओं पर बरसेंगी। वे व्यक्तिगत लाभ में संलग्न रहने की लिप्सा को लोकमंगल के लिए उत्सर्ग करने की आंतरिक पुकार सुनेंगे। यह पुकार इतनी तीव्र होगी कि चाहने पर भी वे संकीर्ण स्वार्थपरता भरा व्यक्तिवादी जीवन जी ही न सकेंगे। लोभ और मोह की जटिल जंजीरें वैसी ही टूटती दीखेंगी जैसे कृष्ण जन्म के समय बंदीगृह के ताले अनायास ही खुल गए थे?     
        
        यों मायाबद्ध कृमि कीटकों के लिए वासना और तृष्णा की परिधि तोड़कर परमार्थ के क्षेत्र में कदम बढ़ाना लगभग असंभव जैसे लगता है। पेट और प्रजनन की विडम्बनाओं के अतिरिक्त वे क्या आगे की और कुछ बात सोच या कर सकेंगे? पर समय ही बतायेगा कि इसी जाल जंजाल में जकड़े हुए वर्गों में से कितनी प्रबुद्ध आत्माएँ उछलकर आगे आती हैं और सामान्य स्थिति में रहते हुए कितने ऐसे अद्भुत क्रियाकलाप सम्पन्न करती हैं, जिन्हें देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ेगा। जन्मजात रूप से तुच्छ स्थिति में जकड़े हुए व्यक्ति अगले दिनों जब महामानवों की भूमिका प्रस्तुत करते दिखाई पड़ें, तो समझना चाहिए युग परिवर्तन का प्रकाश एवं चमत्कार सर्वसाधारण को प्रत्यक्ष हो चला।                

        -अखण्ड ज्योति, मई १९७२, पृष्ठ ३४

११. अगले दिनों ज्ञानतन्त्र ही धर्मतन्त्र होगा। चरित्र निर्माण और लोकमंगल की गतिविधियाँ धार्मिक कर्मकाण्डों का स्थान ग्रहण करेंगी। तब लोग प्रतिमा पूजक देव मंदिर बनाने की तुलना में पुस्तकालय विद्यालय जैसे ज्ञान मंदिर बनाने को महत्त्व देंगे। तीर्थयात्राओं और ब्रह्मभोजों में लगने वाला धन लोक शिक्षण की भावभरी सत्प्रवृत्तियों के लिए अर्पित किया जाएगा। कथा पुराणों की कहानियाँ तब उतनी आवश्यक न मानी जाएँगी जितनी जीवन समस्याओं को सुलझाने वाली प्रेरणाप्रद अभिव्यंजनाएँ। धर्म अपने असली स्वरूप में निखर कर आएगा और उसके ऊपर चढ़ी हुई सड़ी गली केंचुली उतरकर कूड़े करकट के ढेर में जा गिरेगी। ज्ञानतन्त्र वाणी और लेखनी तक ही सीमित न रहेगा, वरन् उसे प्रचारात्मक, रचनात्मक एवं संघर्षात्मक कार्यक्रमों के साथ बौद्धिक, नैतिक और सामाजिक क्रांति के लिए प्रयुक्त किया जाएगा। साहित्य, संगीत, कला के विभिन्न पक्ष विविध प्रकार से लोकशिक्षण का उच्चस्तरीय प्रयोजन पूरा करेंगे। जिनके पास प्रतिभा है, जिनके पास सम्पदा है, वे उससे स्वयं लाभान्वित होने के स्थान पर समस्त समाज को समुन्नत करने के लिए समर्पित करेंगे।

        -अखण्ड ज्योति, मई १९७२, पृष्ठ ३५


१२. अभी भारत में, हिन्दू धर्म में, धर्ममंच से, युग निर्माण परिवार में यह मानव जाति का भाग्य निर्माण करने वाला अभियान केन्द्रित दिखाई पड़ता है, पर अगले दिनों उसकी वर्तमान सीमाएँ अत्यंत विस्तृत होकर असीम हो जाएँगी। तब किसी एक संस्था- संगठन का नियन्त्रण- निर्देश नहीं चलेगा, वरन् कोटि- कोटि घटकों से विभिन्न स्तर के ऐसे ज्योति पुंज फूटते दिखाई पड़ेंगे, जिनकी अकूत शक्ति द्वारा सम्पन्न होने वाले कार्य अनुपम और अद्भुत ही कहे समझे जाएँगे। महाकाल ही इस महान परिवर्तन का सूत्रधार है और वही समयानुसार अपनी आज की मंगलाचरण थिरकन को क्रमशः तीव्र से तीव्रतर, तीव्रतम करता चला जाएगा। ताण्डव नृत्य से उत्पन्न गगनचुम्बी जाज्वल्यमान आग्नेय लपटों द्वारा पुरातन को नूतन में परिवर्तित करने की भूमिका किस प्रकार, किस रूप में अगले दिनों सम्पन्न होने जा रही है आज उस सब को सोच सकना, कल्पना परिधि में ला सकना सामान्य बुद्धि के लिए प्रायः असंभव ही है। फिर भी जो भवितव्यता है वह होकर रहेगी। युग को बदलना ही है। आज की निविड़ निशा का कल के प्रभातकालीन अरुणोदय में परिवर्तन होकर ही रहेगा।

        -अखण्ड ज्योति, अप्रैल १९७३, पृष्ठ ५९


१३. जिस भ्रष्टाचार को, अपराधी दुष्प्रवृत्तियों को पुलिस और अदालतें रोक नहीं पा रही हैं, यदि जाग्रत् जनता इन गुण्डा- तत्त्वों के विरुद्ध भवें तरेर दे, तो इन मुट्ठी भर अनाचारियों का जीवित रहना कठिन हो जाएगा। अनाचारी आतंकवाद इसीलिए जीवित है कि मुट्ठी भर अवांछनीय तत्त्वों की असामाजिक गतिविधियों के विरुद्ध रोष, आक्रोश जगाया नहीं गया है। जिस दिन जनशक्ति की चंडी जगेगी, उस दिन अभाव, अशक्ति और अज्ञान के दुर्दांत असुरों का अस्तित्व इस धरती पर बना रहना संभव न होगा। इन सबकी दुर्गति महिषासुर, मधुकैटभ और शुंभ- निशुम्भ जैसी होगी।     
        
        संघशक्ति का ही दूसरा नाम चण्डी है। पौराणिक कथा- प्रसंग के अनुसार देवताओं की सम्मिलित शक्ति इकट्ठी करके ही तो भगवती दुर्गा को सृजा गया था। देवताओं को विजेता और असुरों को पराजित करने के लिए उसी प्रयोग की पुनरावृत्ति अब फिर की जाए, इसके लिए आज का ही उपयुक्त समय है।

        -अखण्ड ज्योति, जनवरी १९७४, पृष्ठ ४१


१४. महाकाल की अवतरण प्रक्रिया—

        युग अवतरण के पीछे महाकाल की इच्छा और प्रेरणा का अनुमान लगाने में जिन्हें असमंजस था, वे इस पुण्य प्रक्रिया को उसी प्रकार सुविस्तृत होते देख रहे हैं, जैसे कि ऊषा का हलका- सा आलोक क्रमशः अधिक प्रखर होता और अरुणोदय की प्रत्यक्ष स्थिति तक जा पहुँचता है। इन दिनों ध्वंसात्मक शक्तियाँ भी जीवन- मरण की बाजी लगाकर विघातक विभीषिकाएँ उत्पन्न करने में कोई कमी नहीं रहने दे रही हैं। फिर भी आशा का केन्द्र यह है कि उसका सामना करने वाले देवत्व का शौर्य और पराक्रम भी निखरता और प्रखर होता चला आ रहा है। निराशा तभी तक रहती है जब तक पराक्रम नहीं जगता। चेतना के ऊँचे स्तर जब उभरते हैं तो न दुष्टता ठहर सकती हैं न भ्रष्टता।     

        जीतता सत्य ही है असत्य नहीं। जीवन ही शाश्वत है, मरण तो उससे आँख मिचौनी खेलने भर जब तब ही आता है। सूर्य और चंद्र का आलोक अमर है-उस पर ग्रहण तो जब- तब ही चढ़ता है। स्रष्टा की इस सुंदर कलाकृति की गरिमा शाश्वत है। विकृतियाँ तो बुलबुलों की तरह उठती और उछल- कूद का कौतुक दिखा कर अपनी लीला समेट लेती हैं। ‘यदा- यदा हि धर्मस्य’ का आश्वासन देने वाला युग विकृतियों का निराकरण करने के लिए समय- समय पर सन्तुलन को सँभालने के लिए आता रहा है। आज की विभीषिकाएँ उस दिव्य अवतरण की पुकार करती हैं तो आना कानी क्यों होती? विलम्ब क्यों लगता? युग चेतना के रूप में महाकाल की अवतरण प्रक्रिया का परिचय हम सब इन्हीं दिनों प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त कर रहे हैं। जाग्रत् आत्माओं को युग की चुनौती को स्वीकार करने के लिए इन दिनों जो उत्साह उमड़ा है वह देखते ही बनता है। मूर्छितों और अर्धमृतकों को छोड़कर महाकाल की हुँकार ने हर प्राणवान को युग धर्म का पालन करने की, युग साधना में संलग्न होने की प्रेरणा दी है। फलतः युग सृजन में योगदान देने के लिए हर समर्थ- असमर्थ के चरण बढ़ रहे हैं।

        -अखण्ड ज्योति, सितम्बर १९७८, पृष्ठ- ५४


१५. विपत्तियाँ भौतिक क्षेत्र में बढ़ रही हैं और विकृतियों से आत्मिक क्षेत्र उद्विग्न होता जा रहा है। सुधार और बचाव के प्रयास अपेक्षाकृत बहुत धीमे हैं। लगता है मनुष्य द्वारा अन्यमनस्क भाव से किया गया आधा- अधूरा प्रयास वर्तमान की समस्याओं को सुलझाने तथा भविष्य की विभीषिकाओं को परास्त करने में सफल नहीं हो सकेगा, एक गज जोड़ने के साथ- साथ दस गज टूटने का क्रम चल रहा है। ऐसी दशा में विश्व के महाविनाश के गर्त में जा गिरने की ही आशंका है। अवतार ऐसे ही समय में प्रकट होते हैं। मनुष्य का बाहुबल थक जाता है और विनाश की आशंका बलवती हो जाती है, तो प्रवाह को उलटने का पुरुषार्थ महाकाल ही करता है। सृष्टि को अपनी उस सुरम्य विश्व वाटिका का दर्द भरा अवसान सहन नहीं हो सकता। वे धर्म की ग्लानि और अधर्म की अभिवृद्धि को एक सीमा तक ही सहन कर सकते है। मानवी पुरुषार्थ जब सन्तुलन बनाए रहने में असफल होता है तो व्यवस्था को भगवान् स्वयं सँभालते हैं। राष्ट्रपति शासन तभी लागू होता है, जब राज्य की सामान्य व्यवस्था लड़खड़ा जाती है। पागलों और बालकों के अधिकार का उत्तरदायित्व किन्हीं अन्य संस्थाओं को सौंप दिया जाता है।     

        इन दिनों ऐसा ही होने जा रहा है। महाकाल की चेतना सूक्ष्म जगत् में ऐसी महान हलचलें विनिर्मित कर रही है जिसके प्रभाव परिणाम को देखते हुए उसे अप्रत्याशित और चमत्कारी ही माना जाएगा। अवतार सदा ऐसे ही कुसमय में होते रहे हैं जैसे कि आज हैं। अवतारों ने लोक चेतना में ऐसी प्रबल प्रेरणा भरी है जिससे अनुपयुक्त को उपयुक्त में बदल देने की सम्भावना सरल हो सके। दिव्य चक्षुओं की युगान्तरीय चेतना को गंगावतरण की तरह धरती पर उतरते देखा जा सकता है। चर्म चक्षुओं को भी कुछ ही दिनों में अवतार के लीलासंदोह का परिचय प्रत्यक्ष एवं सुनिश्चित रूप से देखने को मिलेगा।

        -अखण्ड ज्योति, अगस्त १९७९, पृष्ठ १३


१६. प्रज्ञावतार की सक्रिय भूमिका—

        बाह्योपचारों के लिए कोई मनाही नहीं। वे होते हैं और होते रहने चाहिए। किन्तु महत्त्व अंतःउपचार का भी समझा जाना चाहिए। युग परिवर्तन का वास्तविक तात्पर्य है अंतःकरण में जमी हुई आस्थाओं का उत्कृष्टतावादी पुनर्निर्धारण, समस्त समस्याओं का समाधान इस एक ही उपाय पर केंद्रित है, क्योंकि गुत्थियों का निर्माण इसी क्षेत्र में विकृतियाँ उत्पन्न होने के कारण हुआ है। खाद्य संकट, ईंधन संकट, स्वास्थ्य संकट, सुरक्षा संकट की तरह आस्था संकट के व्यापक क्षेत्र और प्रभाव को भी समझा जाना चाहिए। युग की समस्याओं के समाधान में इससे कम में काम चलेगा नहीं और इससे अधिक और कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। यों लोगों को आश्वासन देने की दृष्टि से सुधार और संवर्द्धन के बहिर्मुखी प्रयास भी चलते रहने चाहिए। किन्तु ठोस बात तभी बनेगी, जब समष्टि के अंतःकरण में उत्कृष्टता की आस्थाओं का आरोपण और अभिवर्द्धन युद्धस्तरीय आवेश के साथ किया जाएगा। एक ही समस्या है और एक ही समाधान। मनुष्य इसे भले ही समझ न पाए, पर महाकाल को यथार्थता की जानकारी है। वह लोक मानस में आस्थाओं को पुनर्जीवन प्रदान करने के लिए प्रज्ञावतार को भेज रहा है। उसका प्रधान उद्देश्य अनास्था को आस्था में बदल देना ही होगा।

        -अखण्ड ज्योति, अगस्त १९७९, पृष्ठ १७


१७. आमतौर से लोभ, मोह और अहंकार के दैत्य ही जनसाधारण को कठपुतली की तरह नचाते हैं। यही प्रभाव सर्वत्र चल रहा है। समर्थ, असमर्थ, धनी, निर्धन, शिक्षित, अशिक्षित इन दिनों सभी अपने तुच्छ स्वार्थों की सिद्धि में बुरी तरह संलग्न हैं। लिप्सा और लालसा की कीचड़ में लोक चेतना गहराई तक धँसी हुई है। सामान्य प्रयत्नों से इसमें हेर- फेर होते दिखाई नहीं पड़ रहा है, किन्तु प्रज्ञावतार की प्रेरणा नए आयाम प्रस्तुत करेगी। अंतःप्रेरणा का उद्गम ही बदलने लगेगा। लोग अपना स्तर उत्कृष्टता की ओर उठाने और आदर्शवादिता की ओर बढ़ाने का प्रयत्न करेंगे। यह परिवर्तन बाहर से थोपा हुआ नहीं; भीतर से उभरा हुआ होगा। कहने, सुनने को तो धर्म और अध्यात्म की, भक्ति और शांति की, सज्जनता और उदारता की चर्चा आए दिन कहने, सुनने को मिलती रहती है। कइयों का विनोद विषय भी यही होता है। तथाकथित धर्मगुरु, लोक नेता, लेखक, वक्ता उत्कृष्टता की चर्चा आए दिन करते रहते हैं किंतु उन प्रतिपादनों को क्रियान्वित करते इनमें से कोई बिरले ही देखे जाते हैं। फिर सर्वसाधारण के लिए तो उन्हें आचरण में उतारना और भी अधिक कठिन होता है। उदाहरण तो केवल समझाने के लिए प्रचार प्रक्रिया अपनाने के रूप में ही हो सकता है, सो हो भी रहा है। लेखनी और वाणी से आदर्शवादिता का प्रतिपादन भी कम नहीं हो रहा है किंतु सफलता इसलिए नहीं मिलती कि लोक चेतना की अंतःस्थिति उसे स्वीकारने और अपनाने को सहमत नहीं होती। कानों के सुनने या मस्तिष्क से समझने से काम बनता नहीं। व्यक्ति की स्थिति और कृति तो अंतःप्रेरणा से ही बदलती है। इन दिनों उसी क्षेत्र के ऊसर हो जाने से जो बोया जाता है वह निष्फल होकर रह जाता है। प्रज्ञावतार इस कठिनाई का समाधान करेगा।

        -अखण्ड ज्योति, अगस्त १९७९, पृष्ठ ३६

१८. स्पष्ट उद्घोष—

        हमें पूरा विश्वास है कि मनुष्य की समझ लौटेगी। परमसत्ता का सहयोग मिलेगा, प्रकृति अनुग्रह करेगी। बुरे समय की संभावना अब समाप्त ही होने जा रही है, यह हमारी आने वाले कल के सम्बन्ध में भविष्यवाणी है।

        इस परम पुरुषार्थ के निमित्त ही इन दिनों हम अपने पाँच प्रतिनिधि विनिर्मित करने में लगे हुए हैं। मौन और एकान्त साधना के उपक्रम के साथ- साथ प्रजनन जैसी अतीव कठोर तपश्चर्या चल रही है। यह प्रतिनिधि अथवा वंशज हमसे किसी प्रकार दुर्बल न होंगे। वरन् सूक्ष्म शरीरधारी होने के कारण संसार में फैले हुए प्रतिभावानों को झकझोर कर नवसृजन योजना में उसी प्रकार बलपूर्वक संलग्न करेंगे, जैसा कि हमारे मार्गदर्शक ने हमें किया है।

        (१) बुद्धिजीवी (२) शासक (३) कलाकार (४) सम्पन्न तथा (५) भावनाशील वर्ग के लोग कम नहीं है। इनमें से कितने ही निकट भविष्य में अपनी क्षमताओं को स्वार्थ से हटाकर परमार्थ में नियोजित करेंगे और वातावरण आश्चर्यजनक रूप से बदला हुआ प्रतीत होगा।

        हमारा अस्तित्व बना रहेगा और हम अपनी भूमिका अब से भी अधिक अच्छी तरह निभाते रहेंगे। यह हो सकता है कि इस बीच हम वर्तमान शरीर को त्याग दें। हिमालय के ऋषि क्षेत्र में रहकर उनके साथ मिल- जुलकर सूक्ष्म शरीर से काम करें। जो भी करना होगा उसमें हमारा मार्गदर्शक साथ रहेगा। उसके मार्गदर्शन में हमारे सम्पर्क क्षेत्र में कल्याण मार्ग का ही नियोजन हुआ है। आगे जो होने वाला है उस भविष्य को विगत भूतकाल की तुलना में अधिक श्रेष्ठ और शानदार ही माना जाना चाहिए।

        -अखण्ड ज्योति, मार्च १९८५, पृष्ठ- ६५


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