युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव का युवा जीवन आज के युवाओं के लिए प्रेरक है। उसमें युवकों को दिशा देने के लिए, उन्हें गढ़ने के लिए वाँछित सभी तत्त्व हैं। गुरुदेव के स्वयं के हाथों से लिखी गयी उनकी जीवन कथा ‘हमारी वसीयत और विरासत’ प्रायः बहुतों ने पढ़ी होगी। ‘प्रज्ञावतार हमारे गुरुदेव’ के पृष्ठों से भी कुछ लोग गुजरे होंगे। हाल ही में प्रकाशित उनके जीवन की सरस कथा ‘चेतना की शिखर यात्रा’ ने भी अनेकों की अंतश्चेतना को छुआ होगा। इसमें उनके जीवन के अनेकों प्रसंग ऐसे हैं, जो युवाओं के अंतस् में प्रकाश उड़ेलते हैं। उनके युवा जीवन की हवाओं में आज के युवकों के दिलों में छुपे हुए आदर्शों के अंगारों को धधकने के लिए पर्याप्त ऊर्जा है। यहाँ कुछ ऐसा है जो साहस, सृजन और संवेदना की चिन्गारियों को दावानल में बदल देने की सामर्थ्य रखता है।
जो कहा जा चुका है, उसे दुहराने का मन नहीं है। चर्चा उन प्रसंगों की करनी है, जो अभी तक अनछुये हैं। जिन्हें गुरुदेव ने कहीं लिखा तो नहीं है, पर अपनी निजी वार्ताओं में उजागर किया है। ऐसी ही एक निजी वार्ता में गुरुदेव ने कहा था-‘बेटा हम जब तुम लोगों की उम्र (२०-२५ वर्ष की आयु) के थे, तब हमारा अंतःकरण केवल दो ही बातों को लेकर भावविह्वल होता था। या तो हम जब उपासना में बैठते, तब जगन्माता की भक्ति में हमारी आँखों से आँसू झरते थे। एक तब हमारी आँखें भीगती थीं, जब अपने देश की दुर्दशा मन को कचोटती थी। उन दिनों अपने निजी जीवन की सुख-सुविधाओं की ओर कभी मन जाता ही नहीं था। बस देशसेवा और ईश्वर भक्ति की लगन लगी रहती थी।’ फिर हँसते हुए बोले-‘हमारा हाल तो आज भी यही है। इस नजर से हम तो अभी बूढ़े हुए ही नहीं।’
एक प्रसंग जिसकी चर्चा करते हुए उनकी आँखें छलक आयी, वह क्रान्तिकारियों के जीवन से जुड़ा हुआ है। उन्होंने लगभग भर्राये गले से बताया था-बेटा! यूँ तो हमारे जीवन में दुःख के कई अवसर आये हैं, लेकिन इन सभी को मैंने भगवान का वरदान और मंगल विधान माना है। लेकिन भगतङ्क्षसह की फाँसी के दुःख को मैं सह नहीं सका। इस दुःख ने मुझे महीनों तक विकल किये रखा। इस चर्चा में उन्होंने यह बताया-वैसे तो हम जाहिर तौर पर कांग्रेस के कार्यक्रमों में भागीदार होते थे, लेकिन इन देशभक्त क्रान्तिकारियों के साथ मेरा जबरदस्त भावनात्मक रिश्ता था। कानपुर की ही तरह आगरा भी उन दिनों क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र बना हुआ था। ‘सैनिक’ समाचार पत्र के पालीवाल जी इनकी कई तरह से मदद किया करते थे। उनकी इस मदद को इन क्रान्तिवीरों तक पहुँचाने की जिम्मेदारी मेरी थी।इसी क्रम में मुझे इन क्रान्तिकारियों के कई गुप्त ठिकाने पता थे। वहाँ जाकर मैं चन्द्रशेखर ‘आजाद’, भगतङ्क्षसह, राजगुरु आदि से मिला करता था। कई खतरों से गुजरकर इन्हें खाने-पीने की चीजें, जरूरत के दूसरे समान मैंने कई बार पहुँचाए हैं। इन सबकी मस्ती और मतवालापन देखने ही लायक था। संघर्षों की अग्नि में निरन्तर तपने के बावजूद इनके हँसी-ठहाके गूँजते रहते थे।
डर-भय तो इनमें से किसी को छू ही नहीं गया था। कितनी ही बार मुझे इन सबके साथ रहने का अवसर मिला। इनकी अंतरंग चर्चाओं में कई बार मेरी भागीदारी रही। ऐसे में जब भगतङ्क्षसह के शहीद होने की खबर मुझे मिली, तो मैं अपने को रोक नहीं पाया, फफककर रो पड़ा। महीनों तक उनका वही हँसता हुआ चेहरा, उनकी हँसी-मजाक, उनकी वही अल्हड़ मस्ती मेरी आँखों के सामने छायी रही। जिस दिन यह खबर मुझे मिली, उसी दिन मैंने संकल्प किया-ऐ अमर शहीद! और तो मैं तेरे लिए कुछ नहीं कर सकता, पर जब तक मैं जिन्दा हूँ, जिन्दगी के अंतिम क्षण तक मैं भारत माता की सेवा करता रहूँगा।
भावभरे मन से गुरुदेव ने बताया कि मैं अपने युवा जीवन के उस संकल्प को अभी तक निभा रहा हूँ। मेरे लिए अपने देश की धरती की सेवा किसी भी अध्यात्म साधना से ज्यादा कीमती है। सच तो यह है कि मेरी अध्यात्म साधना की सभी विधियाँ और इनके परिणाम मेरी भारत माता के लिए हैं। गुरुदेव कहते थे कि अपनी युवावस्था में मुझे हर पल यही लगता रहता था कि अपने देश के लिए, इसकी सामाजिक-सांस्कृतिक उन्नति के लिए मैं और क्या करूँ? कितने अधिक कष्ट सहन करूँ?
उनकी युवावस्था का ऐसा ही एक माॢमक प्रसंग और है। तब गुरुदेव विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिलने के लिए शान्ति निकेतन गये हुए थे। इस भावमयी चर्चा के समय उन्होंने टैगोर का मानसिक स्मरण करते हुए बताया कि वह एकदम ऋषि जैसे लगते थे। फिर बोले-अरे लगते क्या थे, वे तो ऋषि थे ही। ऐसा कहते हुए वह चुप हो गये। एक पल का मौन पसरा रहा, फिर उन्होंने धीमे स्वरों में कहा-हिमालय की एक दिव्य सत्ता ने ही टैगोर के रूप में जन्म लिया था। भारतभूमि के कल्याण के लिए उनका जन्म हुआ था। टैगोर भाव-संवेदना के सघन पुँज थे। उनकी वाणी में अपूर्व संगीत था।
गुरुदेव ने अपनी अतीत की स्मृतियों को कुरेदते हुए कहा-जिस दिन मैं उनसे मिला, उस समय उनके साथ दीनबन्धु कहे जाने वाले एण्ड्रूज भी थे। अंग्रेज होते हुए उनकी भारत भक्ति असाधारण थी। वह कहा करते थे कि भारत की सेवा करके मैं अपनी कौम के पापों का प्रायश्चित कर रहा हूँ। जिस समय परम पूज्य गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर से मिले, उस समय शाम हो रही थी। गुरुदेव ने उन महामानव को प्रणाम किया। उनके स्पर्श ने न जाने क्यों विश्व कवि को विभोर कर दिया, वह बोले-तुम युवक हो, तुममें देश और धरती के लिए कुछ करने का •ाज्बा है। मैं अपने हृदय से आशीर्वाद देता हूँ कि तुम हमेशा युवा बने रहो। फिर उन्होंने ढलते हुए सूरज की ओर इशारा किया और बोले-मेरे जीवन की तो साँझ हो रही है, पर तुम्हारा जीवन सूर्य हमेशा यूँ ही चमकता रहेगा।
इस प्रसंग में गुरुदेव ने बताया कि वे तीन-चार दिनों तक शान्ति निकेतन में रहे। रोज ही उनकी मुलाकात टैगोर से होती रही। उनकी प्रेरणाएँ हमें देश के लिए बहुत कुछ करने के लिए प्रेरित करती रही। उसी समय मैंने सोचा था कि ऐसा ही कुछ मैं भी करूँगा। फिर बोले-शान्ति निकेतन के नाम पर ही मैंनें यहाँ का नाम शान्तिकुञ्ज रखा है। लोग मुझे जब गुरुदेव कहते हैं तो अनायास ही मुझे रवीन्द्रनाथ टैगोर याद आ जाते हैं। उन्हें भी सब गुरुदेव कहा करते थे। शान्ति निकेतन में बैठकर मैंने जो सपने देखे थे, उन्हीं को पूरा करने के लिए शान्तिकुञ्ज बनाया है। इस प्रसंग की चर्चा का समापन करते हुए उन्होंने बताया कि मैं अपनी युवावस्था में साधना, अध्ययन, लेखन, जनसेवा के अलावा एक महत्त्वपूर्ण काम करता था-महामानवों से प्रेरणा पाने का। कभी महामानवों से प्रेरणा पाने वाले गुरुदेव आज स्वयं युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत हैं। उन्हीं की तरह वन्दनीया माता जी का युवा जीवन भी युवतियों के लिए प्रेरक है।