अभी हाल में नवगठित राज्य छत्तीसगढ़ का एक मामला काफी समय तक अखबारों की खबर बनकर छपता रहा। इस खबर के मुताबिक अकेले रायपुर में १५० साइबर कैफे पंजीकृत हैं। समाचार संवाददाताओं और जानकारों की राय में अधिकतर साइबर कैफे पहुँचने वाले युवक- युवतियाँ चैटिंग के बहाने पोर्न साइट को जरूर खँगालते हैं। और अब तो यह खुले आम चलता है। २४ घण्टे उपलब्ध इस सुविधा की उपलब्धियाँ क्या होंगीं, इसे बिना कहे और बिना लिखे भी आसानी से सोचा और समझा जा सकता है।
युवाओं में पनपती दिशाहीनता के आयाम और भी हैं और ये इतने ज्यादा हैं कि यदि इन सबकी चर्चा एक साथ करनी हो, तो इसके लिए एक आलेख का कलेवर पर्याप्त नहीं है। इसके लिए तो किसी महाग्रन्थ या विश्वकोश का कलेवर जुटाने का साहस करना पड़ेगा। पर इस सब चर्चा में सार और समझदारी भरा लाख टके का सवाल यह है कि इस दिशाहीनता के लिए दोषी कौन है? क्या केवल ये युवक- युवतियाँ अथवा वे परिवार और वह समाज जहाँ ये पल- बढ़ रहे हैं। क्या केवल युवा पीढ़ी को कोसकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेनी चाहिए या फिर समाज को, परिवार को अपने दायित्व निभाने के लिए कमर कसनी चाहिए। जहाँ तक बात अपनी है तो यहाँ यह प्रकट करने में तनिक भी संकोच नहीं कि हम विचारशील कहे जाने वाले सामाजिक माहौल को प्रेरणादायक बनाने में नाकाम रहे हैं। अथवा यदि इस सम्बन्ध में कुछ किया भी गया है तो वह बहुत थोड़ा है।
जिन्होंने इतिहास के पन्ने पलटे हैं, वे जानते हैं कि जब किसी प्रेरक व्यक्तित्व ने युवाओं का सन्मार्ग एवं सदुद्देश्य के लिए चल पड़ने का आह्वान किया है, तब- तब युवकों- युवतियों ने जिन्दगी की सही दिशा चुनने में कोई कोर- कसर नहीं रखी है। महात्मा गाँधी ने जैसे ही असहयोग आन्दोलन की चर्चा चलायी, त्यों ही बिना देर लगाये किशोर व युवक घरों से निकल पड़े। अँग्रेजी चीजों के बहिष्कार में युवाओं की भूमिका सबसे अग्रणी रही। राष्ट्रपिता ने १९४२ ई. में जैसे ही पुकारा- ‘‘अंग्रेजो! भारत छोड़ो!’’ -- त्यों ही लाखों युवक- युवतियाँ अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए घर छोड़कर चल पड़े। यह एक ऐसी सच्चाई है जिसे इतिहास में आसानी से पढ़ा जा सकता है। अतीत को थोड़ा सा कुरेदें, तो सुनायी देता है, आजादी के महानायक सुभाष का आह्वान- ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा।’ और साथ ही दिखाई देती है- उन दीवाने युवाओं की भीड़ जो अपने खून की एक- एक बूँद देने के लिए बढ़ चले थे।
और अभी ज्यादा पुरानी नहीं हुई है- लोकनायक जयप्रकाश की कहानी, जिन्होंने कुछ ही दशक पहले युवाओं को पुकारा था। लोकनायक के पीछे कितने युवा चल पड़े थे, यह दृश्य देखने वाले अभी भी बहुतायत में हैं। जिन्होंने उन दिनों देखा है, उन्हें अभी भी याद है उस वृद्ध महामानव का तरुण स्वर- ‘डरो मत! मैं अभी जिन्दा हूँ।’ उनके एक इशारे पर देश की तरुणाई कुछ सार्थक करने के लिए मचल उठी थी।
आज का सच तो यह है कि कुछ लोभ- लालच में फँसे हुए लोग युवाओं का बाजार के रूप में उपयोग कर रहे हैं। उन्हें युवाओं के चरित्र- व्यक्तित्व की चिंता नहीं, चिंता है तो बस अपना सामान बेचने की। वर्तमान के क्षण यही कहते हैं कि भारत विश्व भर की तमाम कम्पनियों के लिए बड़ी जनसंख्या के कारण आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। खासकर इतनी बड़ी जनसंख्या का ५४ प्रतिशत हिस्सा अगर २५ वर्ष के नीचे का हो तो बाजार के लिए किसी देश का परिदृश्य और भी लुभावना हो जाता है। एक मार्केटिंग् रिसर्च कम्पनी के वाइस प्रेसीडेण्ट सुधीर गुप्ता का कहना है कि आज युवाओं को गुमराह कर उन्हें अपना सामान सौंपने के लिए कम्पनियाँ एग्रेसिव हो रही हैं। अभी कुछ ही समय पहले की खबर है कि यामाहा कम्पनी ने बाइक का अपना नया मॉडल लांच किया। यह लांच उतनी बड़ी खबर नहीं थी, जितनी की बड़ी खबर लांच के लिए चुना गया स्थान था। दरअसल यह लांच रखा गया था एक फाइव स्टार होटल के पब में। यामाहा मोटर्स के सी.ई.ओ. टोमोटाका इशिकावा यह बताते हुए बड़े उत्साहित दिखे कि अब हमने एक पब में किसी प्रोजेक्ट की लांच की है।
यह तरीका सम्भव है किसी कम्पनी के व्यावसायिक हितों का हो, पर यह युवाओं के जिन्दगी के हितों से मेल नहीं खाता। आज जरूरत इस कुचक्र को तोड़ने की है और समाज में युवाओं के लिए प्रेरक एवं उत्साहवर्धक माहौल तैयार करने की भी। अपना युग निर्माण मिशन अपने ढंग से ऐसे कई प्रयोग कर रहा है। बस आवश्यकता इसके लिए युवाओं की व्यापक भागीदारी की है। जिसे स्वयं युवाओं को करना है, क्योंकि युवाओं की दिशाहीनता के कुचक्र को युवा ही तोड़ सकते हैं। उन्हीं को विचारक्रान्ति की गतिविधियों से जुड़कर कुछ साहसिक योजनाएँ बनानी होंगी। और उन्हीं को इन्हें क्रियान्वित भी करना होगा। अगर ऐसा कर पाने में तत्परता बरती जाय, तो न केवल युवाओं में दिशाहीनता की समस्या का अंत होगा, बल्कि बेरोजगारी एवं आरक्षण का भी कोई कारगर समाधान बन सकेगा।