युवा क्रांति पथ

भावनात्मक भटकन से उबरें युवा

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भावनाओं की भटकन युवाओं के जीवन की आम बात है। ज्यादातर युवा प्यार की तलाश में, किसी हमउम्र अपने की खोज में भटक रहे हैं। अंतस् की भावनात्मक अतृप्ति उन्हें जिन्दगी की रपटीली-फिसलन भरी राहों पर दौड़ाती और चोटिल करती रहती है। मनोचिकित्सक अरविन ब्रूटा का कहना है कि युवाओं की यह मनोवैज्ञानिक समस्या आज सघन एवं व्यापक होकर सामाजिक समस्या का रूप ले चुकी है। भावनात्मक भटकन के फेर में फँसकर असंख्य युवा लड़के-लड़कियाँ हर साल कितने ही मनोरोगों व मनोगं्रथियों के जटिल जाल में उलझ जाते हैं। इस चक्कर में न केवल उनकी प्रतिभा कुण्ठित होती है, बल्कि कैरियर भी तबाह हो जाता है। अनेकों प्रतिभाएँ बीच राह में ही दम तोड़ देती हैं।

    जो मानव मन के जानकार हैं उनकी नजर में यह भावनात्मक भटकन जमाने के चलन के अलावा कुछ और भी है। इस कुछ और का दायरा उनकी मानसिक प्रकृति एवं पारिवारिक वातावरण में फैला है। मनोविशेषज्ञों का मानना है कि इस भावनात्मक भटकन के बीज प्रायः बचपन में ही पड़ जाते हैं। घरों में यह देखा जाता है कि माँ-बाप अपने क्रियाकलापों या आपसी कलह में उलझे रहते हैं। इस सब में बच्चों की सुकोमल भावनाएँ नजरअंदाज होती हैं। यदि बच्चे कुछ कहते भी हैं, तो उन्हें तीखी झिड़कियाँ या कटूक्तियाँ सुननी पड़ती हैं। गुजरे दशकों में यह स्थिति नहीं थी। एकल परिवारों के चलन का इतना जोर न था। संयुक्त परिवार होने के कारण माँ-बाप के डाँटे-फटकारे गये बच्चे दादी-बाबा या चाचा-चाची के द्वारा दुलरा लिये जाते थे।

    पर अब स्थिति बदल गयी है। न केवल परिवार एकल हुए हैं, बल्कि माता-पिता भी अपनी महत्वाकांक्षाओं के चलते ज्यादा एकाकी हुए हैं। उनके बीच की भावनात्मक दूरियाँ किन्हीं न किन्हीं कारणों से बढ़ी हैं। पिता को बाहर और दफ्तर के कामों से फुरसत नहीं है। रही बात माँ की सो वे अपना समय किटी पाॢटयों में अथवा टी.वी. चैनलों के सामने रिमोट से खेलते हुए बिताना ज्यादा पसन्द करती हैं। उनके बच्चों की प्यार पाने की चाहत कहीं अन्दर ही अन्दर घुटती-घुमड़ती रहती है। इसे पूरा करने के लिए बाहर साथी तलाशते हैं। यह तलाश उन्हें समय से पहले युवा चाहतों की ओर धकेल देती है।
   
बदलते जमाने के साथ प्यार की परिभाषा भी बदली है। प्यार अब दिलों की धड़कनों व मानसिक कल्पनाओं तक सीमित नहीं रहा, अब यह देह के स्पन्दनों एवं स्पर्श में उतर आया है। गुजरे दशकों में प्यार करने वाले कविताओं-पत्रों एवं संवेदनशील संवादों तक सीमित रहते थे। पर आज ऐसा नहीं रहा। अब तो फिल्मों, सीरियलों, म्यूजिक अल्बमों ने देह को प्यार का प्रधान आधार बना दिया है। आज का सच यह है कि मन के निरभ्र गगन में, हृदय की उज्ज्वल भाव ज्योत्सना में विहार करने वाला प्यार देह की धरती पर गिरकर धराशायी हो गया है। आज की युवापीढ़ी प्यार की पवित्रता को न तो खोज रही है और न इसके बारे में सोच रही है। प्यार के दैवी एवं दार्शनिक रूप पता नहीं कहाँ खो चुके हैं।इस पर विडम्बना यह है कि उपभोक्तावाद एवं बाजारीकरण की संस्कृति प्यार का भी व्यापार करने से  नहीं चूक रही। व्यवसायियों का किसी के मरने-जीने, उनके उत्थान-पतन से कोई लेना-देना नहीं है। वे तो बस जिस किसी तरह से युवा की इस भावनात्मक भटकन से मुनाफा कमाना चाहते हैं। इसके लिए बाजार में प्यार को या वासनात्मक आसक्ति को उत्तेजित-उद्वेलित करने वाले गिफ्ट एवं कार्ड की भरमार पड़ी है। संवेदनशील संवादों के कितने ही रूप इन बाजारी कार्डों में अवतरित हो चुके हैं। प्रत्येक युवा उत्तेजना को जताने-बताने वाला आकर्षक कार्ड आज बाजार में उपलब्ध है। इसके खरीददार भी लाखों में हैं। इनके दीवानेपन की छाँव में यह प्यार का व्यापार खूब फल-फूल रहा है।

    ‘‘प्यार बाजार’’ में एस.एम.एस. का नया अवतार हुआ है। ये एसएमएस, इनकी भाषा एवं लहजा युवाओं की भटकी हुई भावनाओं का बयान करने के लिए पर्याप्त हैं। युवाओं द्वारा एस.एम.एस. के जरिये भेजे जाने वाले चुटकुलों में ५० प्रतिशत अश्लील होते हैं। लड़कों की बराबरी करने के फेर में लड़कियाँ भी इसमें काफी बोल्ड होकर दाखिल हुई हैं। ये अपना परिचय-‘आय एम टू मच चिल्ड एवं रोमांटिक’ जैसे शब्दों में देने से नहीं चूकतीं। एस.एम.एस. के संदेशों का सृजन करने वालों ने अपनी ही एक विशिष्ट भाषा एवं शब्दावली इजाद की है। इसका स्वरूप बहुतायत में कुछ ऐसा है, जिसे अपने गरिमामय साहित्य में व्यक्त नहीं किया जा सकता।

    इस सम्बन्ध में जूनियर रिसर्च संस्था ने काफी खोज-बीन की है। इसके विश्लेषकों ने इस सम्बन्ध में पर्याप्त तथ्य इकट्ठे किये हैं। इनका कहना है कि मोबाइल अश्लीलता का कारोबार पिछले साल यानि कि २००५ में आधा बिलियन डालर अर्थात् २३ सौ करोड़ रूपये का था, जबकि आने वाले पाँच सालों में यह बढ़कर ५ बिलियन डालर यानि कि २३ हजार करोड़ हो जायेगा। एस.एम.एस. की नयी तकनीक में संदेश नहीं चित्र भेजने की भी व्यवस्था है। ये चित्र कैसे होते हैं, इसकी चित्रकथा बीच-बीच में अखबारों में प्रकाशित होती रहती है। इसका विस्तार यहाँ न दिया जाय यही उचित है।

    आज का सच यह है कि युवा भावनाओं की भटकन को व्यापार में परिवॢतत करने वाली एक समूची अर्थव्यवस्था चल रही है। जिसके कई विकृत रूप इस कारोबार का हिस्सा बने हुए हैं। मजे की बात है कि यह कारोबार दिन पर दिन फल-फूल रहा है। इसमें रोज नयी जहरीली कोपलें एवं कलियाँ निकल रही हैं। भटकी हुई युवा भावनाओं का यह विष आज के बाजार में कई आकर्षक नामों, रूपों एवं पैकों में उपलब्ध है। इसके खरीददार भी दिन पर दिन बढ़ रहे हैं और साथ ही बढ़ रही है-ङ्क्षहसा, हत्या एवं बलात्कार की घटनाएँ।

    अपनी उलझी हुई भावनाओं में भटके हुए ये युवा अधिक भावुक एवं आत्मकेन्द्रित होते जा रहे हैं। उनमें परिस्थिति को झेलने की और तनाव सहने की क्षमता दिनों-दिन कम होती जा रही है। उनका धीरज खोता जा रहा है। परिणाम यह है कि उनके अंतस् का वासनात्मक-ङ्क्षहसात्मक उफान रोके नहीं रुक रहा। अपनी इस असहनीय स्थिति के कारण ये बड़ी ही जल्दी बलात्कार करने या फिर मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। वातावरण में गूँज रहा गीत-संगीत, फिल्मी दृश्य उन्हें ऐसा करने के लिए उत्तेजित करते एवं उकसाते हैं।

    युवावस्था में भावनाओं की भटकन जमाने का सच होने के साथ आयु का सच भी है। इस सच से सामान्यजन ही नहीं महामानव भी रूबरू हुए हैं। लेकिन  वे जल्दी ही विकृति से प्रकृति की ओर लौट आये। महात्मा गाँधी की जीवन कथा में उनके भावनात्मक उद्वेलन, तनाव, विक्षोभ एवं वासनात्मक आकुलता के कई शब्द चित्र हैं, पर उनके अंतस् की ईश्वर निष्ठा ने अंततोगत्वा उन्हें सन्मार्ग का साधक बना दिया। गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय के संस्थापक आर्य समाज के स्वामी श्रद्धानन्द अपनी युवावस्था में भावात्मक भटकन के फेर में फँसे थे, लेकिन जल्दी ही वे इससे उबर गये। प्रसिद्ध क्रान्तिकारी रामप्रसाद विस्मिल भी किशोरवय में ऐसी ही हालत का शिकार हुए थे, परन्तु वे जल्दी ही सँभल गये। इन सब महामानवों के भटकने का कारण यौवन का शुरुआती उफान और कुसंग जरूर रहा, परन्तु अध्यात्मनिष्ठा एवं सार्थक जीवन दृष्टि उन्हें सन्मार्ग पर ले आयी।

आज के युवा की जरूरत भी कुछ ऐसी ही है। उनके अँधेरे जीवन में रोशनी के चिराग जलाये जाने चाहिए। अच्छा तो यह हो कि विवेकवान् युवा स्वयं ही यह अभियान रचाएँ। विष तो बहुत हो चुका अब तो अमृत की धाराएँ प्रवाहित करने की जरूरत है। अच्छा हो कि व्यवसायी भी अपने सामाजिक दायित्वों को समझें। योग की प्रक्रियाएँ, स्वास्थ्य की जागरूकता, आध्यात्मिक प्रेरक विचार भी उनके व्यवसाय का हिस्सा बन सकते हैं। इस सम्बन्ध में प्रयास गम्भीर हो, तो युवाओं को भावनाओं की भटकन से उबारा जा सकता है।
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