ग्रामीण भारत को सँवारने की जिम्मेदारी युवाओं पर है। कामकाज की खोज में गाँव से पलायन, कस्बों और शहरों में आयी जनसंख्या की बाढ़ के बावजूद गाँव अभी भी महत्त्वपूर्ण हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के द्वारा उच्चारित यह मंत्र ‘भारत माता गाँवों में रहती है’-कल भी सच था, आज भी सच है और कल भी सच रहेगा। गाँव पूरे देश के लिए अन्न, शाक, फल की व्यवस्था करते हैं। शहरों की चमक-दमक कितनी ही क्यों न चौंधियाये, पर गाँव का किसान जब तक हमारा पेट नहीं भरता, सब कुछ फीका है। सबके जीवन जुटाने वाले गाँव के लोग ही यदि जीवन विहीन होने लगें, तो यह देश के लिए लज्जा की बात है। गाँवों का विकास, ग्रामीण संसाधनों का प्रबन्धन, ग्रामीण सामाजिक व आॢथक स्थिति को सुधारने के प्रयास राष्ट्रीय जीवन की नैसॢगक आवश्यकता है। इसे पूरा करने के लिए युवाओं को फिर से गाँवों की ओर मुड़ना होगा।
शहरों में बसने वाले युवाओं की ही भाँति ग्रामीण युवाओं का भी उच्च शिक्षा, तकनीकी ज्ञान के शोध-अनुसंधान पर पूरा हक बनता है। यह हक उन्हें मिलना ही चाहिए, परन्तु इन युवाओं के सीखे हुए ज्ञान का उपयोग केवल कुछ बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ करती रहें, यह न जायज है और न उचित। केवल कुछ रुपये और थोड़ी सी सुविधाओं के लिए अपनी मिट्टी की सोंधी खुशबू को भूल जाना किसी भी तरह से ठीक नहीं है। गाँवों से मुँह मोड़ लेना अपने जीवन की जड़ों को काटने जैसा है। इसे किसी भी तरह से रोका जाना चाहिए। गाँवों की नींव यदि मजबूत बनी रही, तो शहर के कंगूरे भी चमकते रहेंगे।
अपने गाँव की नींव को मजबूत करने के लिए लापोड़िया गाँव के लक्ष्मण ङ्क्षसह ने जो कुछ किया उससे देश के दूसरे गाँव और वहाँ के युवा बहुत कुछ सीख सकते हैं। लक्ष्मण ङ्क्षसह का लापोड़िया गाँव आज अपनी उजड़ी परम्परा को हरा भरा करने के कारण ही चर्चा में नहीं है, बल्कि जैव समन्वय की अनूठी मिसाल भी बना हुआ है। पिछले छः सालों में बादलों ने राजस्थान को पाँच बार परेशान किया। बचे एक साल में जो बरसात हुई वह महज दम भर लेने की थी। गाँव के गाँव इस मार से बिलबिला उठे। लोग घर-बार छोड़कर शहर भागने लगे। लेकिन इस सबके बीच अपना माथा मजबूती से उठाये रखा इस गाँव ने, जिसे सरकारी दस्तावेजों में ३५ साल पहले अकाल प्रभावित क्षेत्र का दर्जा दिया गया था। दरअसल इन सालों में इस गाँव के युवाओं ने लक्ष्मण ङ्क्षसह के नेतृत्व में प्रकृति से लड़ने के बजाय उससे जुड़ने का तरीका खोज निकाला। इस लम्बी यात्रा ने उसे अपनी जड़ों तक पहुँचाया। नतीजा यह है कि आज जयपुर से ७० कि.मी. दूर पर बसा यह गाँव लापोड़िया सबको लोकरीति और लोकनीति से प्रकृति को अपने वश में करने का हुनर बाँट रहा है।प्रकृति में कोई काम बगैर धीरज के फल नहीं देता। लापोड़िया गाँव तो बहुत पहले टूट चुका था। इसके खेत उजड़ गये थे, गोचर सूख रहा था और उसके तीन तालाब भी पाल टूटने के कारण नष्ट हो चुके थे। इस बुरे दौर में अनेकों परिवार गाँव छोड़ गये। पर उस समय युवा लक्ष्मण ङ्क्षसह ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने बाजाप्ता घोषणा की-मैं लक्ष्मण ङ्क्षसह गाँव लापोड़िया का रहने वाला हूँ। जात-पात में विश्वास नहीं करता। हालाँकि मैं राजपूत जाति का हूँ। मेरे पूर्वज शिकारी रहे हैं। पहले मैं भी मांस खाता था। एक दिन जब मैं २५ साल का था, तो मांस खाते समय मेरे मन में आया कि प्राणी-प्राणी को मार कर खा गया। अब बचा ही क्या है? कहाँ धर्म, कहाँ दया, कहाँ श्रद्धा, कहाँ कर्म सब तो नष्ट हो रहे हैं और उस दिन से मैंने न केवल मांस खाना बन्द किया, बल्कि अपने गाँव की सेवा के लिए संकल्पित हो गया।
गाँव के जागीरदार और राजा कहे जाने वाले लक्ष्मण ङ्क्षसह ने अपने गाँव के पुनरुत्थान के लिए सारे ठाट-बाट छोड़ दिये। उन्होंने गाँव के युवकों के साथ ‘ग्राम विकास नवयुवक मण्डल’ नाम का संगठन बनाया। हालाँकि यह संगठन कुछ खास नहीं कर पाया, तभी उन्होंने गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित पर्यावरण विद् अनुपम मिश्र की पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब’ पढ़ी। इस पुस्तक को उन्होंने अपने साथियों को भी पढ़ाया और सबसे पहले उन्होंने अपने गाँवों के तालाबों का पुनॢनर्माण करने की ठानी। उनके साहस की कथा यह कहती है कि सबसे पहले उन्होंने अकेले ही इस काम की शुुरुआत की। फिर उनके साथ आये रामअवतार कुमावत। धीरे-धीरे और भी लोग साथ आते गये। इस तरह धीरे-धीरे तीन तालाबों का निर्माण उन्होंने अपने युवा साथियों के साथ कर डाला। इन तालाबों का नाम उन्होंने-देवसागर, फूलसागर और अन्नसागर रखा।
इन तालाबों से उनके गाँव की खुशहाली लौटने लगी, पर लक्ष्मण ङ्क्षसह के मन में माता प्रकृति और उनकी संतानों के प्रति आदर भाव बना रहा। इसी के चलते उनने और अब साथी युवाओं ने नियम बनाया है कि पहले दो छोटे तालाब केवल पशु-पक्षियों के लिए होंगे। केवल एक बड़े तालाब से गाँव के मनुष्यों का काम चलेगा। इसी संकल्प के साथ लापोड़िया का सामूहिक विकास चल पड़ा। तालाबों के पुनॢनर्माण के बाद लक्ष्मण ङ्क्षसह एवं उनके युवा साथियों ने गाँव की सूखी पड़ी गोचर भूमि को हरा-भरा करने की ठानी। उन्होंने गोचर का पानी गोचर में ही रोकने की ‘चौका’ पद्धति को खोज निकाला। साथ ही लापोड़िया के युवकों ने यह नियम बनाया कि गोचर में कोई कुल्हाड़ी लेकर नहीं जायेगा और जीवों को मारने पर पाबंदी लगी। युवाओं के द्वारा बनाये नियमों को बुजुर्गों ने भी आदर से माना और फिर तो बाप-दादों के मुँह से सुनी यह कहानी सभी को सच लगने लगी कि यहाँ के गोचर में इतने पेड़ थे कि गाँव के युवक पेड़ पर चढ़ने की प्रतियोगिता में हिस्सा लेते थे।
अपने इस अद्भुत प्रयास में जुटे लक्ष्मण ङ्क्षसह को गाँव के लोगों ने भरपूर आदर दिया। यहाँ के लोग इन्हें आदर से ‘बनाजी’ कहते हैं और इनकी हर बात को मानने के लिए तैयार रहते हैं। इनके और इनके युवा साथियों की मेहनत का सुफल है कि आज लापोड़िया गाँव हरा-भरा है। इस गाँव में दाखिल होते ही पहले यह लिखा मिलेगा-‘खुला चिड़ियाघर’। साथ ही लिखित हिदायत भी मिलेगी कि यहाँ खुले में विचरते जानवरों, फुदकते-उड़ते पक्षियों का शिकार दण्डनीय अपराध है। दरअसल लापोड़िया में पिछले पन्द्रह साल से पेड़ काटने और वन्य जीवों का शिकार करने पर पाबन्दी है। बिना किसी चौकीदारी की चल रही यह व्यवस्था पूरी तरह से अचूक है। यदि दूसरे गाँवों के लोग भूल से शिकार के लिए यहाँ आ जाते हैं, तो पकड़े जाने पर उन्हें पाँच हजार रुपये और पाँच किलो अनाज पक्षियों के लिए दण्ड स्वरूप देना पड़ता है।
लक्ष्मण ङ्क्षसह का कहना है कि लापोड़िया और उसके साथ के गाँव के लिए पशु-पक्षियों को मुक्त आवास उपलब्ध करने का प्रयोग अनूठा होने के साथ जरूरी भी था, क्योंकि इसके बिना गोचर और तालाब के रास्ते प्रकृति तक लौटने की उनकी यात्रा अधूरी रह जाती। अब तो प्रकृति के साथ जुड़कर जीने की कला में यहाँ के लोग इतने माहिर हो गये हैं कि पशु-पक्षियों के गोचर व बीट को इकट्ठा कर खेतों की खाद बना लेते हैं। यहाँ के साधारण किसान को भी पता है कि एक हेक्टेयर खेत में पक्षियों की दस किलो बीट वर्षा से ठीक पहले छिड़ककर बुआई करने से किसी रासायनिक खाद की जरूरत नहीं होगी। कहना न होगा कि यह सिर्फ वन्य जीव संरक्षण की अनोखी मिसाल ही नहीं, बल्कि उस परम्परा और सीख का भी सिद्ध प्रयोग है जो दरअसल हमारी हजारों साल से ङ्क्षसचती आयी जीवन कला है।
लापोड़िया के युवाओं ने कई आश्चर्यों को साकार किया है। आज दो सौ घरों के छोटे से लापोड़िया गाँव में १०३ कुएँ हैं। छः साल के अकाल के बाद इनका जल सूखा नहीं है। लापोड़िया और आसपास के गाँवों में करीब ४० तालाब ऐसे हैं, जिनका पानी किसी मौसम में नहीं सूखता। गाँव के पुराने झगड़े आपसी संवाद से मिट चुके हैं। पुलिस और कचहरी का चक्कर लगाने के बदले लापोड़िया के लोग अब साल भर आने वाले त्यौहारों में मिलकर गाते-नाचते हैं। गुलाल उड़ाते हैं, शहनाई-ढोल बजाते हैं। यह आनन्द की वर्षा यहाँ पर सम्भव हो सकी है, तो युवाओं के साहस भरे सत्प्रयास से। अब तो स्थिति यह है कि नई पीढ़ी के युवक-युवतियाँ ग्राम पूजन के काम में लग चुके हैं। जरूरत उनके इस काम को देशव्यापी बनाने की है। जिसका प्रसार मीडिया जगत् और उसमें क्रियाशील युवाचेतना को करना है।