संकट की ऐतिहासिक चुनौतियों का मुकाबला समय- समय पर युवा शौर्य
ही करता आया है। जब कभी राष्ट्र एवं विश्व मानवता पर संकट के
तेजाबी बादल छाये हैं, युवाशौर्य ने ही प्रचण्ड प्रभंजन बनकर उन्हें छिन्न- भिन्न किया है। कथाएँ वैदिक इतिहास की हों या उपनिषदों की, यही सच बताती हैं। जनक्रान्ति का नेतृत्व करने वाले ऋषि वामदेव एवं सामश्रवा युवा ही थे। सद्विचारों, सत्संस्कारों को जन- जन तक पहुँचाने के लिए सत्यकाम एवं सुकेशा ने अपने यौवन के सभी सुखों को प्रसन्नतापूर्वक त्याग दिया था। महापराक्रमी एवं अजेय समझे जाने वाले अनाचारी सम्राट् कार्तवीर्य का अंत युवा परशुराम ने किया था। कहते हैं उन्होंने धरती से अनाचार को मिटाने के लिए इक्कीस अभियान रचाये थे। दस्युओं से आक्रान्त आर्य संस्कृति की रक्षा करने वाले महर्षि अगस्त्य युवा ही थे। इन्होंने अपने शौर्य से विध्यागिरि को झुकने के लिए मजबूर किया था।
गायत्री की मंत्र सामर्थ्य एवं विचार सामर्थ्य को जन
चेतना में अवतरित करने के लिए युवा विश्वरथ ने महातप किया था।
उनकी लोक- कल्याणकारी भावना के कारण ही लोक ने उन्हें विश्वामित्र
के रूप में वन्दित किया। वर्षों के सूखे से विदीर्ण धरती को
फिर से हरा- भरा करने के लिए गंगावतरण का संकल्प लेने वाले
भगीरथ युवक ही थे। रावण के महाआतंक की व्यूह रचना को नष्ट करने के लिए श्रीराम ने अपने अभियान का प्रारम्भ युवावस्था में ही किया था। महॢष विश्वामित्र एवं अगस्त्य के मार्गदर्शन में उन्होंने अपने समय की विश्व की एकमात्र महाशक्ति रावण को पराजित- पराभूत किया था। उन्होंने अपने इस महाभियान को जन अभियान का रूप दे दिया, जिसमें कोल- किरात, शबर, निषाद जैसी जनजातियों के अनगिन युवक- युवतियाँ कूद पड़े।
अपने अत्याचारी एवं शोषण प्रिय पिता सम्राट् हिरण्यकश्यपु को चुनौती देने वाले प्रह्लाद किशोरवय के ही थे। इन्द्र का मानमर्दन
करने वाले हिरण्यकश्यपु के सामने न तो उसका साहस डिगा और न
जन- जीवन के प्रति उसकी संवेदना मिटी। उसने व्यक्तिगत सम्बन्धों के
स्थान पर जन- कल्याण को सर्वोपरि माना और ईश्वर के सह पराक्रम
के साथ युग समस्या का अंत किया। कुटिल- कुकर्मी कंस के विरोध
में जन- अभियान रचाने वाले कृष्ण- बलराम
किशोर ही थे। उन्होंने न केवल दुराचारी शासक का अंत किया, बल्कि
ग्रामीण भारत को एक अभिनव रूप देने में सफल रहे। बाद में
उन्होंने पराक्रमी पाण्डवों के सहयोग से एक व्यापक राजनैतिक
क्रान्ति रचायी। जिसमें जरासंध दुर्योधन आदि अनेकों हठधर्मीयों का पराभव हुआ और एक नयी राजनैतिक व्यवस्था की शुरुआत हुई।
ज्ञानक्रान्ति के लिए स्वयं को समर्पित
करने का संकल्प महर्षि व्यास ने यौवन में ही लिया था। वह युग
अनास्था एवं अज्ञान का था। ज्ञान यदि कहीं था, तो कुछ गिने- चुने
लोगों के पास। जन चेतना तो अज्ञान के अँधेरे में ही थी। महर्षि
व्यास एवं उनकी पत्नी वाटिका महर्षि दधीचि
अथर्वण की प्रेरणा से अज्ञान के इस महासंकट से जूझने के लिए
प्रतिबद्ध हुए। वैदिक साहित्य का सम्पादन, पुराणों का लेखन, दार्शनिक
सूत्रों का प्रणयन उन्होंने अकेले के बल पर किया। बाद में उनके
युवा पुत्र शुकदेव एवं शिष्य जैमिनी, सूत- शौनक आदि इस अभियान
से जुड़ते चले गये। सूत- शौनक ने तो पुराण कथाओं के माध्यम से
जन- मन को भ्रान्तियों एवं रूढ़ियों से मुक्त कर दिया।
महाभारत युग के बाद एक बार फिर देश के आकाश पर भेद, भ्रान्ति एवं मूढ़ताओं की घटाएँ घिरीं और तब युवा सिद्धार्थ एवं युवा वर्धमान
ने सभी राज सुखों का मोह छोड़कर तप की राह पकड़ी। इनके प्रयासों
से भारत की धरती पर विचार क्रान्ति का अलख गूँजा। सिद्धार्थ
सम्यक्- सम्बुद्ध बने तो वर्धमान
महावीर। इन्होंने अपने कार्यों से एक नये इतिहास की रचना की।
इनके आह्वान पर असंख्य युवक- युवतियाँ जनकल्याण की राह पर निकल
पड़े। भारत ही नहीं, समूचे एशिया में ज्ञान का महासूर्य चमक उठा।
इनकी परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए युवा आचार्य शंकर आगे आये।
उनके युग का ऐतिहासिक संकट तांत्रिक व्यामोह का संकट था। आस्थाओं
एवं धार्मिक मान्यताओं से देश बँटा हुआ था। आचार्य ने अपने
अद्वैत ज्ञान से सभी को एक सूत्र में पिरो दिया। देश की चारो दिशाएँ उनके ज्ञान के प्रकाश स्तम्भों से जगमग हो उठी। उनके इस कार्य में पद्मपाद, सुरेश्वर, भारती, कणिका आदि कितने युवक- युवतियों ने भागीदारी निभायी।
संकट के और भी ऐतिहासिक पल आये, जब रामानुज, मध्व, निम्बार्क, वल्लभ
आदि आचार्यों ने अपने यौवन को न्यौछावर कर दिया। युवाओं को
योगबल से चरित्र बल की सीख देने वाले गोरखनाथ युवा ही थे।
उन्होंने हठयोग का प्रसार करके अपने समय में स्वास्थ्य एवं
चरित्र निर्माण की अभूतपूर्व क्रान्ति रचायी
थी। बाद में कबीर- रैदास आदि अनेकों युवा संत इसे पोषित करते
रहे। सिक्ख गुरुओं में प्रथम गुरु नानक हों या दशम गुरु गुरु
गोविन्द सिंह। इन्होंने युवावस्था में ही अपने तप एवं शौर्य से
देश में नयी चेतना का संचार किया था। मुगलों के अनाचार से जूझने
के लिए वीर शिवाजी को संघर्ष का महामंत्र देने वाले समर्थ
रामदास ने अपने अभियान की शुरुआत युवावस्था में ही की थी।
देश के स्वाधीन होने का इतिहास भी इस सच का साक्षी है। १८५७ से १९४७ तक के लम्बे स्वतंत्रता संघर्ष में देशवासियों के हृदय में राष्ट्रभक्ति एवं क्रान्ति के भावों का आरोपण करने वालों में युवाओं की भूमिका सर्वोपरि रही है। १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के महानायकों में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, तात्याटोपे, मंगलपाण्डे युवा थे। रानी लक्ष्मीबाई तो तब मात्र २६ वर्ष की थीं। उनकी सेना की एक जाँबाज झलकारी बाई युवती ही थी। उन्हीं की प्रेरणा से सुन्दर- मुन्दर, जूही, मोतीबाई जैसी नृत्यांगनाएँ क्रान्ति की वीरांगनाएँ
बन गयीं। स्वाधीनता की बलिवेदी पर स्वयं का सर्वस्व लुटाने वाले
बाल गंगाधर तिलक, गोपालकृष्ण गोखले, महात्मा गाँधी, जवाहर लाल
नेहरू आदि ने अपने यौवन के प्रथम पग के साथ ही इस क्रान्ति पथ
पर पाँव रखे थे।
जिनकी कहानी कभी भूली नहीं जा सकती, वे शहीद- भगतसिंह,
परमवीर चन्द्रशेखर आजाद, खुदीराम बोस आदि सभी ने देशवासियों के
सुख के लिए अपने यौवन का बलिदान किया था। खुदीराम बोस तो जब
फाँसी के फन्दे पर झूले, तब उनके उद्गार थे-
हाँसी- हाँसी चाड़बे फाँसी, देखिले जगत वासी।
एक बार विदाय दे माँ, आमि घूरे आसी॥
अर्थात्- दुनिया देखेगी कि मैं हँसते- हँसते फाँसी के फन्दे पर चढ़ जाऊँगा। हे भारत माता! मुझे विदा दो, मैं बार- बार तुम्हारी कोख में जन्म लूँ।
देश की वीरता के महान प्रेरक, युवाओं को अग्नि मंत्र
में दीक्षित करने वाले स्वामी विवेकानन्द भी तो युवा ही थे।
उन्होंने देश के युवाओं से कहा था- ‘‘हे वीर हृदय! भारत माँ की युवा संतानो!
तुम यह विश्वास रखो कि अनेक महान कार्य करने के लिए ही तुम
लोगों का जन्म हुआ है। किसी के भी धमकाने से न डरो, यहाँ तक कि
आकाश से प्रबल वज्रपात हो तो भी न डरो। उठो! कमर कसकर खड़े होओ और कार्यरत हो जाओ’’। स्वामी जी का यह अग्निमंत्र
सार्वकालिक है। यह आज भी प्रेरक है और कल भी रहेगा। अच्छा हो
कि आज के युवा महान विभूतियों के युवा जीवन से प्रेरणा लें।