मीडिया जगत् में युवा चेतना की चमक बढ़ी है। हाल के दिनों में युवक-युवतियाँ इसे अपने उज्ज्वल कैरिअर प्वाइण्ट के रूप में देखने लगे हैं।
चमकता-दमकता कैरिअर, नेम-फेम और पैसा किसी बड़े न्यूज चैनल का ग्लैमरस और मालामाल पत्रकार बनने की ख्वाहिश उन्हें बेचैन किये रहती है। टी.वी. स्क्रीन के जरिये नाम और दाम कमाने की ख्वाहिश लेकर आज हजारों युवा पत्रकार बनने का सपना देखते हैं। इनमें से कम ही ऐसे होते हैं जो समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं, ज्यादातर को तो प्रसिद्धि पाने की चाहत प्रेरित करती है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सामने प्रिण्ट मीडिया की चमक थोड़ी फीकी जरूर है, लेकिन युवाओं की नजर में शोहरत एवं कामयाबी के अवसर वहाँ भी हैं।
यह मीडिया की आज की स्थिति है, लेकिन अपनी शुरुआत में पत्रकारिता हमारे देश में एक मिशन के रूप जन्मी थी। जिसका उद्देश्य सामाजिक चेतना को और अधिक जागरूक बनाना था। विचार क्रान्ति के माध्यम से जनक्रान्ति करना था। तब देश की धरती पर गणेशशंकर विद्यार्थी जैसे युवा देश की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक आजादी के लिए संघर्ष करते थे। न यातनाएँ उन्हें विचलित कर पाती थीं, न धमकियाँ। आॢथक कष्टों में भी उनकी कलम काँपती नहीं थी। स्वाधीनता के पुरोधा महात्मा गाँधी स्वयं पत्रकार थे। महामना मालवीय भी अपनी कलम के साथ इस अभियान में जुटे थे। उन दिनों युवा रहे हमारे गुरुदेव पत्रकारिता जगत् में श्रीराम ‘मत्त’ के रूप में जाने जाते थे। देश की आजादी के लिए मतवाले श्रीराम ‘मत्त’ की कलम भी मतवाली थी। इसकी धार का पैनापन किसी हालत में कुण्ठित नहीं होता था।
आज ज्यादातर युवा टी.वी. पत्रकारिता के जगमगाते चेहरों राजदीप सर देसाई, बरखा दत्त या दीपक चौरसिया जैसी शोहरत और पैसा हासिल करने के लिए ललकते हैं। उनका ध्यान राजदीप या बरखा की सफलता के पीछे छुपी उनकी काबिलियत, मेहनत और संघर्ष पर कम ही रहता है। वैसे भी आज मीडिया ने एक उद्योग का रूप ले लिया है। अखबार तथा चैनल कम्पनी के रूप में काम कर रहे हैं। बाजार सामाजिक जिम्मेदारी पर पूरी तरह से हावी है। हर चीज नफा-नुकसान देखकर तय की जा रही है। जो अनुभवी हैं वे कहने लगे हैं ‘चीजें दूर से जैसी दिखती हैं, हकीकत में वैसी हैं नहीं। सामाजिक जिम्मेदारी से ज्यादा प्रोफेशनल दबाव है। स्थिति कुछ उलझी-उलझी सी है।’ आज की स्थिति में पत्रकारिता में मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए बड़े बलिदान चाहिए। कम से कम इतना तो हो कि युवाओं में सामाजिक दर्द अनुभव करने की ताकत हो। यह नहीं कहा जा रहा है कि ऐसा बिल्कुल नहीं है, पर इतना तो कहा ही जा सकता है, अभी यह सब बहुत कम है। बहुत थोड़े से लोग थोड़े से दायरे में ऐसा कर पा रहे हैं।’कारगिल के युद्ध में ठीक मोर्चे में जाकर बंकर से रिपोॄटग करने वाली बरखा दत्त के साहस को हम नजर अंदाज नहीं कर रहे, परन्तु आज यह साहस सामाजिक, सांस्कृतिक मुद्दों और आम आदमी के जीवन के दर्द से जूझने के लिए कितना क्या कुछ कर पा रहा है पता नहीं।
जरूरत पत्रकारिता के लिए नये प्रशिक्षण की है, जिसमें सामाजिक एवं व्यावसायिक हितों का समुचित समन्वय हो। देवसंस्कृति विश्वविद्यालय ने स्वाधीनता युग के युवा पत्रकार श्रीराम ‘मत्त’ के आदर्शों को लेकर पत्रकारों की नयी पीढ़ी तैयार करने की ठानी है। पत्रकारिता फिर से युवाओं के लिए मिशन बन सके, ऐसा भावनात्मक एवं वैचारिक सरंजाम जुटाया जा रहा है। हालाँकि अभी यह शैशव अवस्था में है। इसके लिए विद्याॢथयों एवं संचालकों को कड़े संघर्ष से गुजरना पड़ रहा है। फिर भी उम्मीदों का तूफान तेज है। देवसंस्कृति विश्वविद्यालय में पत्रकारिता एवं जन संचार पाठ्यक्रम के स्नातकोत्तर छात्र-छात्राओं का इस सम्बन्ध में भरपूर आत्मविश्वास से कहना है-मुश्किलें बहुत हैं, पर मीडिया ही नहीं सभी क्षेत्रों में। इसलिए इरादे बुलन्द हों, तो कामयाबी जरूर मिलती है। हाँ, इसके लिए युवा पत्रकारों में आध्यात्मिक चेतना की आवश्यकता का बोध अभीष्ट है।