महान विभूतियों का युवा जीवन प्रेरक है—आज
के युवा के लिए। मन के अँधेरे कोनों के लिए इनका स्मरण, इनके
संस्मरण प्रकाश दीप हैं। मन भटकता है अपने ही अँधियारों में, ढूँढ़ता है उजियारों
की एक किरण, तब इन महान विभूतियों के युवा जीवन के प्रसंग राह
दिखाते हैं। युवा हृदय की बेचैनी आज भी इनमें अपना समाधान ढूँढ़
सकती है। युवकों- युवतियों के सामने कई बार परिस्थितियों की
विचित्रताएँ सामने आती हैं, समझ में नहीं आता क्या करें? कुछ ऐसे
मोड़ आते हैं, अचानक किसी दोराहे पर जिन्दगी खड़ी हो जाती है, समझ ही नहीं पड़ता क्या करें और किधर जाएँ? तब ये प्रकाशदीप
राह सुझाते हैं। अनेक बार ऐसा होता है कि परिस्थितियाँ तो ठीक
होती हैं, पर मन को एक घना कुहासा घेर लेता है, आ खड़े होते
हैं कितने ही अंतर्द्वन्द्व, कितने ही सवालों की चुभन टीसती है, तब ये प्रेरक प्रसंग मन के अँधेरों में उजियारी किरणों की तरह उतरते हैं।
आज जहाँ हम हैं, तब वहाँ ये थे। इनके सामने भी परिवार की गरीबी थी, जिम्मेदारियाँ थीं। महत्त्वाकांक्षाएँ,
उज्ज्वल भविष्य के सुनहरे द्वार इनके सामने भी थे। साथ ही कहीं
लोक कल्याण और आत्म कल्याण के भाव भी संवेदित होते थे। एक ओर
सम्पूर्ण आश्वस्ति एवं निश्चिंतता थी, तो दूसरी ओर सब कुछ अनिश्चय और चिंता
में डूबा था। पर इन्होंने अपने अन्तर्द्वन्द्व से उबर कर साहस
भरा कदम उठाया। ठीक वैसा ही कदम जैसा कि आज हमें उठाना है।
चुनौतियाँ तो हैं, सुखद भविष्य के लुभावने सपने भी पुलकित करते
हैं, पर इनका इतना भी महत्त्व नहीं है कि इनके लिए मानवीय
संवेदना और गरिमा को छोड़ दिया जाय।
श्री अरविन्द प्रतिभाशाली थे। लैटिन, हिबू्र
आदि कई जटिल भाषाओं के विशेषज्ञ जानकार भी। स्वजनों की, खासतौर
पर पिता की सारी उम्मीदें उन पर टिकी थीं। सबका सपना उन्हें आई.सी.एस. के रूप में देखने का था। उन्होंने आई.सी.एस.
की परीक्षा पास भी की। पर कहीं देश और धरती, अपनी भारतभूमि का
दर्द भी उन्हें साल रहा था। सलाह देने वाले कई थे, देश की सेवा
तो आई.सी.एस.
बनकर भी की जा सकती है। पद पर रहोगे तो गरीबों का, दुखियों का
ज्यादा भला कर सकोगे। अपनी प्रतिभा को बर्बाद करके क्या मिलेगा?
अपनों की उम्मीदों, सलाह और आँसुओं ने उन्हें कई बार घेरने की
कोशिश की, पर वे इस घिराव से उबर गये। उन्होंने कहा- प्रतिभाशाली होने का अर्थ स्वार्थी होना तो नहीं
है। भला ऐसी प्रतिभा किस काम की जो संवेदना को सोख ले। प्रतिभा
तो प्रकाश की ओर मुड़ चली अंतश्चेतना है, इसे पुनः अँधियारों में
नहीं खोना चाहिए। सलाह देने वालों के लिए उनका उत्तर था कि आई.सी.एस.
होकर सम्भव है कि बहुत कुछ कर लूँ, पर अपनी मातृभूमि के लिए
संघर्ष तो नहीं कर सकता और अंततः उन्होंने साहस भरा कदम उठाया।
देश और धरती के लिए कष्ट सहन करने का कदम। इस पहले कदम के बाद
तो वह अनेकों साहसिक कदम उठाते ही चले गये।
उनके सामने भावनात्मक द्वन्द्व भी आये। बचपन से युवावस्था
तक का समय उन्होंने अकेलेपन में गुजारा था। माँ की मानसिक
स्थिति ठीक न थी, पिता का स्वभाव थोड़ा कठोर था। पढ़ने के लिए
उन्हें घर से अपनों से दूर रहना पड़ा। यह अकेलापन उन्हें बार- बार
घेर लेता था। कहीं प्यार पाने की चाहत उनके अंतस् में छिपी
थी। इसी बीच उनका विवाह भी हो गया। उनकी पत्नी मृणालिनी सरल
गृहिणी थी। सामान्य महिलाओं की भाँति उनकी भी चाहत थी कि उनका
पति दुनिया के सभी झमेलों से दूर रहकर सुख, शान्ति और सुरक्षा
का जीवन जिए। अपनी प्रतिभा से घर- गृहस्थी के लिए साधन जुटाए। पर
श्री अरविन्द को यह स्वीकार न था। उन्होंने कहा- व्यक्तिगत प्रेम
जीवन के महान उद्देश्यों से श्रेष्ठ नहीं हो सकता। जीवन के महान
उद्देश्यों के लिए सब कुछ छोड़ा जा सकता है, पर जीवन के महान
उद्देश्य किसी भी वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति के लिए नहीं छोड़े
जा सकते। मृणालिनी को यह बात देर से समझ में आयी। जब आयी तब
उनका शरीर छोड़ने का समय हो गया था। इस दुःख को सहते हुए श्री
अरविन्द अपने पथ पर दृढ़ता से चलते रहे।
श्री अरविन्द का जीवन सुभाषचन्द्र बोस के लिए बड़ा ही
प्रेरक था। उनके स्मरण से सुभाष बोस का हृदय स्पन्दित हो उठता
था। आई.सी.एस.
इन्होंने भी किया था। पर कलेक्टर बनकर ठाठ का जीवन बिताने की
कोई चाहत उनमें न थी। परिवार के लोगों ने उन पर भारी दबाव
बनाया। कई उदाहरणों व तर्क से उन्होंने सुभाषचन्द्र बोस की राह
मोड़ने की कोशिश की। पर बात बनी नहीं, सुभाष अपने साहसिक फैसले पर
अडिग रहे।
उन्होंने अपने घर के लोगों से कहा- ‘त्याग
का जीवन, सादा जीवन- उच्च विचार, देश सेवा के लिए अपना सर्वस्व
लगा देना यह सब मेरी कल्पना- इच्छा के लिए अत्यन्त आकर्षक है।
इसके अतिरिक्त एक विदेशी नौकरशाही की सेवा करने का विचार ही
मेरे लिए अत्यन्त घृणास्पद है। मेरे लिए अरविन्द घोष का मार्ग
अधिक महान, अधिक प्रेरणास्पद, अधिक ऊँचा, अधिक स्वार्थरहित तथा अधिक कंटकाकीर्ण है।’
ये महान विभूतियाँ- जिनकी चर्चा इतिहास के पन्नों में
मुखर हैं, इनके अलावा ऐसे भी हैं, जो हैं तो महान, पर इतिहास
उनके बारे में अभी मौन है। वहाँ इतना जरूर है कि इनके पाँवों
की छाप अभी भी धरती की धूलि पर बनी हुई है, क्योंकि इन्हें
गुजरे अभी ज्यादा समय नहीं हुआ। श्रीरामकृष्ण आश्रम, रायपुर
छत्तीसगढ़ के स्वामी आत्मानन्द ऐसी ही विरल विभूति थे। उन्होंने
नागपुर विश्वविद्यालय से एम.एस- सी.
(गणित) प्रथम श्रेणी में किया था। प्रथम श्रेणी में होने के साथ
उन्हें विश्वविद्यालय में भी प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था। इसी
के साथ इन्होंने आई.ए.एस. की परीक्षा भी विशिष्ट उपलब्धि के साथ उत्तीर्ण की थी। सांसारिक सुखों के अनेकों द्वार इनके सामने खुले थे।
घर के लोग तो अपने पुत्र की प्रतिभा पर मुदित थे। उन
सबने इन्हें लेकर अनेकों रम्य कल्पनाएँ कर रखी थीं, पर स्वामी
आत्मानन्द के हृदय में विवेकानन्द प्रतिष्ठित हो चुके थे। “आत्मनो मोक्षार्थं जगद हिताय च”
की ज्योति उनके अंतस् में प्रदीप्त थी। भोग के बजाय इन्होंने
त्याग को, सेवा को, संवेदना को चुना। श्री रामकृष्ण की भावधारा से
जुड़कर उन्होंने लोक सेवा और आत्मसाधना की डगर पकड़ी। उनके युवा
और प्रतिभाशाली भ्राताओं ने भी उनका अनुगमन किया। छत्तीसगढ़ अंचल में किया गया उनका कार्य आज भी किसी युवा के लिए प्रेरक है।
स्वामी आत्मानन्द अपनी कक्षाओं एवं प्रवचनों में एक बात
कहा करते थे- प्रतिभा ईश्वरीय वरदान है, इसका यथार्थ उपयोग भोग
सुख में नहीं, संवेदनशील सेवा भावना में है। श्रीरामकृष्ण मठ से
जुड़े होने के बावजूद स्वामी आत्मानन्द की भावनाएँ युगऋषि गुरुदेव
से जुड़ी थीं। जब गुरुदेव मथुरा में थे, तो उनके वैज्ञानिक
अध्यात्म के कार्य में आत्मानन्द जी ने भी अपना भावपूर्ण सहयोग
दिया था। उनका आकस्मिक निधन एक जीप दुर्घटना में हुआ था। इसकी
खबर जब गुरुदेव को दी गयी, तो उन्होंने कहा कि वह एक ऐसे
प्रतिभाशाली व्यक्ति थे, जिन्होंने अपनी प्रतिभा, अपने यौवन का सही
और सार्थक उपयोग किया। उनके स्मरण के साथ गुरुदेव ने उनके और
अपने साथ के कई प्रसंग सुनाते हुए कहा कि आज के युवाओं को
उनमें अपना आदर्श खोजना चाहिए।