युवा आन्दोलन का प्रवर्तन इक्कीसवीं सदी में उज्ज्वल भविष्य का आह्वान है। देश में समय-समय पर अनेकों आन्दोलन हुए हैं। उद्देश्यों एवं क्रियापद्धति के अनुरूप इनके अस्तित्व में उभार-उफान आया है। इनमें से कई सफल हुए हैं, तो कई असफल। गणना यदि सफल आन्दोलनों की की जाय, तो पता चलेगा कि इनकी सफलता में युवाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। उन्हीं ने अपनी ऊर्जा और ऊष्मा से इन्हें सफलता का तेजस् प्रदान किया है। बात यदि पिछली सदी के स्वाधीनता आन्दोलन की करें, तो पायेंगे यही कि यदि इसमें युवाओं की बड़ी संख्या न रही होती, तो शायद देश से अंग्रेजों को खदेड़ पाना सम्भव न हो पाता। अन्य छोटे-छोटे रचनात्मक या संघर्षात्मक आन्दोलन की सफलताओं का अनुपात उनमें युवाओं की भागीदारी के अनुपात के अनुरूप रहा है।
सवाल यह है कि जब अब तक सब आन्दोलन युवा ऊर्जा से पनपे हैं, तो एक आन्दोलन युवाओं के लिए क्यों नहीं? क्यों न एक महाआन्दोलन ऐसा उठ खड़ा हो, जो देशभर की युवा चेतना में पनप रहे कीटाणुओं और विषाणुओं को मार भगाये? क्यों न एक आन्दोलन ऐसा हो, जो युवाओं को नशे के महादैत्य के जबड़े से बचाने वाला हो? उन्हें ङ्क्षहसा, हत्या, अपराध की भटकन से सन्मार्ग की डगर पर चलाने वाला हो। जिसका उद्घोष-भूले हुओं को फिर से राह पर चलाना हो। ध्यान रहे देश का युवा सोया हुआ, अपने में खोया हुआ हो सकता है, पर अभी तक वह मरा नहीं है। उसकी प्रबल प्राणधारा केवल मद्धम हुई है, बन्द नहीं। उसकी इस दशा का कारण सिर्फ भावनात्मक विक्षोभ है। जो युवा प्रकृति से परिचित हैं, वे यह निश्चित तौर पर कह सकते हैं कि युवा सभी कुछ सहन कर सकते हैं, पर उन्हें भावनात्मक छल बर्दाश्त नहीं होता।
भावनात्मक आघात से उनकी चेतना शिथिल और निष्क्रिय हो जाती है। वे अपने आपको निस्तेज, निष्क्रिय, निस्सार और निर्वीर्य समझने लगते हैं। इस दशा से उबरने के लिए उन्हें संवेदना संजीवनी चाहिए। उन्हें चाहिए ऐसा कंधा जिस पर सिर रखकर वे रो सकें और अपना दुःख प्रकट कर सकें। उन्हें चाहिए ऐसे वीर हृदय महामानव जो उन्हें सार्थकता दे सकें। युवा अपने सर्वस्व का बलिदान करने के लिए तैयार हैं, बस भावनात्मक छल सहन करने के लिए तैयार नहीं हैं। उनके दिलों में यही दुःख तो दबा है। इसी पीड़ा के पर्वत के नीचे दबकर वह आज असहाय हुए हैं। इसी वीरघातिनी ने ही तो देश के युवा वीरों को संज्ञाशून्य किया है।
लक्ष्मण यदि मूर्छित हो तो पवनसुत को ही पराक्रम करना होगा। पराक्रम संवेदना संजीवनी लाने का, पराक्रम इन्हें भावनात्मक भटकन से बचाने का करना होगा। देश का प्रबुद्ध युवा यदि यह साहस करे तो सब कुछ सुधर सकता है। फिर से युवा चेतना चैतन्य हो सकती है। प्रबुद्ध युवाओं को ही करना है युवाओं की वर्तमान स्थिति पर सूक्ष्मता से विचार। उन्हें अच्छी तरह से परखना है—युवा प्रकृति और उसमें आयी विकृति को। इसके बाद उन्हीं को गढ़ना है समाधान का नया महा आन्दोलन। जिससे आन्दोलित होकर उल्टी दिशा में बही जा रही युवा चेतना स्वयं ही उलट कर सीधी राह पकड़ ले। वस्तुस्थिति को परखें तो बात केवल इतनी सी ही है कि निजता और स्वार्थपरता के जबड़ों में फँसकर वे परेशान हुए हैं। अपने बारे में, केवल अपने ही स्वार्थ के बारे में सोचते रहने की अति में उनके ये हाल हुए हैं।देश में युवा आन्दोलन का प्रवर्तन करने वाले प्रबुद्ध युवा यदि उनके सामने बड़े उद्देश्य रखें, तो बात बन सकती है। ये महान उद्देश्य ऐसे हों, जो उनसे साहसिक कार्य करा सके, उनकी सोच को व्यापक बना सके । उन्हें सही जीवन दृष्टि और सम्यक् जीवन दर्शन दे सके ।
उन्हें जोड़ें—युवाचार्य स्वामी विवेकानन्द और युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव की विचारधारा से। युवा आन्दोलन के प्रवर्तन में लगने वालों से इतना आग्रह है कि सबसे पहले इसमें सैद्धान्तिक, दार्शनिक स्पष्टता साफ होनी चाहिए। उद्देश्यों की सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि और उनका दर्शन स्पष्ट न होने से हमेशा संदिग्धता बनी रहती है। इसी के साथ इस आन्दोलन की प्रक्रिया के प्रत्येक चरण को स्पष्ट होना चाहिए। इसमें ऐसी दूरदृष्टि हो, जिससे पता चल सके कि यह प्रक्रिया भविष्यत् में क्या सुपरिणाम लाने वाली है और अंत में स्पष्ट हो वे तकनीकें, जो युवाओं में पनपते भावनात्मक विक्षोभ का शमन कर उनमें संवेदना, सृजन एवं संघर्ष को जगा सके।
अपने युग निर्माण मिशन ने-१. साधना, २. शिक्षा, ३. स्वास्थ्य, ४. स्वावलम्बन, ५. व्यसन मुक्ति-कुरीति उन्मूलन, ६. पर्यावरण एवं ७. महिला जागरण के सात सूत्रों को अभियान बनाने पर बल दिया है। इन सातों के बारे में युवाशक्ति जोड़कर यदि आध्यात्मिक भाषा में विचार करें तो सम्भवतः यह कहना ठीक होगा कि देश की युवाशक्ति राष्ट्र-कुण्डलिनी की तरह से है, जिसे आन्दोलन की हठविद्या से प्रबुद्ध-उद्बुद्ध करना है। प्रबुद्ध होने के बाद यह राष्ट्र कुण्डलिनी नवयुवा महाशक्ति जिन सप्त चक्रों का बेधन करेगी, वे सप्तचक्र ऊपर बतायी गयी सप्त क्रान्तियाँ हैं। जिस तरह योग में किसी भी चक्र को कमतर नहीं माना जाता, उसी तरह इन सप्त क्रान्तियों में कोई भी किसी से न्यून नहीं है। बस, बात इनमें युवा ऊर्जा के नियोजन की है।
देश के प्रबुद्ध युवाओं के सम्बन्ध में इनकी व्यापक रूपरेखा तैयार करें। यह प्रक्रिया विचार क्रान्ति अभियान, शान्तिकुञ्ज के सहयोग से भी पूरी की जा सकती है। इस पुस्तक के लेखक से व्यक्तिगत परामर्श एवं पत्राचार भी किया जाना सम्भव है। योजना तैयार करने के बाद स्थान-स्थान पर युवा मण्डलों का गठन करके उन्हें पहले स्थानीय गतिविधियों में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। ये कार्यक्रम ऐसे हों, जो उन्हें संतुष्टि, आत्मतृप्ति देने के साथ उनके शौर्य को तेजस्वी बनाने वाले हों। बल सम्पन्न, पराक्रमी, प्रबुद्ध युवा यदि युवा आन्दोलन के इस महाप्रवर्तन में जुट पड़ें, तो सचमुच देश की युवाशक्ति सचमुच राष्ट्र की कुण्डलिनी जाग पड़ेगी।
अधिक क्या कहें, एक बार युवाओं के सामने राष्ट्रीय युवा आचार्य स्वामी विवेकानन्द के अग्नि मंत्रों का उच्चार किया जाना है-‘ऐ युवकों! जाओ-जाओ! तुम लोग वहाँ जाओ! जहाँ तुम्हारे बन्धु पीड़ा और पतन के नर्क में पड़े हुए हैं। जहाँ वे दुःख-कष्ट की मार से पीड़ित हैं, वहीं जाकर उनका दुःख हल्का करो। अधिक से अधिक क्या होगा? यही न कि इस प्रयास में तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी, पर उससे क्या? मरना तो सभी को है, तो फिर एक महान आदर्श को लेकर क्यों न मरा जाय? जीवन में एक महान आदर्श को लेकर मरना ज्यादा बेहतर है। द्वार-द्वार जाकर अपने आदर्श का प्रचार करो। इससे तुम्हारी अपनी उन्नति तो होगी ही, साथ ही तुम अपने देश का कल्याण भी करोगे।
तुम्हीं पर देश का भविष्य निर्भर है, उसकी भावी आशाएँ केन्द्रित हैं। तुम्हें अकर्मण्य जीवन बिताते देख, मुझे माॢमक पीड़ा होती है। उठो! उठो! काम में लग जाओ-हाँ काम में लग जाओ! शीघ्र! शीघ्र! इधर-उधर मत देखो-समय मत खोओ। बहुत देर हो चुकी, अब और अधिक देर नहीं।’ स्वामी विवेकानन्द के इस अग्नि मंत्र की ज्वालाओं को धारण कर प्रज्वलित अग्नि की तरह युवा युवा—आन्दोलन का प्रवर्तन करें। वे चाहें तो, इसकी प्रेरणा देवसंस्कृति विश्वविद्यालय से पा सकते हैं, जो इन दिनों युवाओं को गढ़ने की कार्यशाला बना हुआ है।