युवा नारी के रूप में वन्दनीया माता जी की साधना आज की युवा पीढ़ी को संघर्ष के लिए प्रेरित करती है। उनका जीवन सुख नहीं, संघर्ष का पर्याय था। संघर्ष-पारिवारिक मूल्यों के लिए, संघर्ष सुसंस्कारों की प्रतिष्ठा के लिए, संघर्ष-आम नारी के सम्मान के लिए। उनके जीवन के कुछ पन्ने ‘महाशक्ति की लोकयात्रा’ में प्रकाशित हो चुके हैं। लेकिन ऐसा बहुत कुछ है जो अभी तक अनजाना, अनछुआ है। जो प्रकाशित हो चुका है, उसने अनगिनत को प्रेरित किया है, पर जो अभी आवरण में है, उसमें युवा चेतना को परिवॢतत करने की सामर्थ्य है। अपनी औपचारिक शिक्षा उनसे अधिक होने के बावजूद आज की युवा नारी उनसे जीवन जीने का सलीका, विपरीत परिस्थितियों में भी सही सोच बनाये रखने का गुर, संघर्ष करने का साहस पा सकती है।
वन्दनीया माता जी कहा करती थी कि उनमें बचपन से ही राष्ट्रप्रेम था। समाज का दुःख-दर्द उन्हें संवेदित करता था। नारी की स्थिति सुधरे ऐसा वे सोचती थी। ये बातें उन्हें किसी ने सिखायी नहीं थी, बल्कि स्व-स्फुरित थी। पर तब ऐसा करने का अवसर न था। परिस्थितियाँ ऐसी न थीं कि वह अपना चाहा कर सके। ऐसे में उनकी भावनाएँ गुड़िया-गुड्डे के खेल में व्यक्त हुआ करती थी। माता जी की गुड़िया उन्हीं की तरह राष्ट्रवादी, संस्कारवान हुआ करती थी। उसे सिल्क, जार्जेट या अंग्रेजी कपड़ों से परहेज था। इनकी गुड़िया हमेशा खादी पहनती थी। कभी-कभी तो इसे तिरंगें कपड़े भाते थे और यह गुड़िया ऐसे किसी गुड्डे से शादी नहीं करना चाहती थी जो कि दहेज माँगे। दहेज वाले दूल्हे का बहिष्कार कर देना, उसकी बारात को दरवाजे से लौटा देना, उनकी गुड़िया का प्रिय कार्य था। मेहनत और जीवट के काम उनकी गुड़िया को भाते थे।
बचपन एवं किशोरावस्था के ये खेल खेलते माताजी ज्यों ही युवावस्था की देहलीज में पहुँचीं, उनका विवाह हो गया। उन दिनों गुरुदेव का जीवन स्वाधीनता संघर्ष की अग्नि में तप रहा था। साथ ही सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए वे कई योजनाएँ बना रहे थे। गुरुदेव की इन योजनाओं में माताजी की भावनाएँ घुलने लगीं। यहाँ सभी कुछ ऐसा था, जिसकी कल्पना वे बचपन से करती आयी थीं। बस वे इन कामों में जुट गयी। थके हुए शरीर से भी श्रम उनका स्वभाव बन गया। अपनी बातों में कभी-कभी वह अपने अतीत की, युवावस्था के दिनों की झलक दिखा देती थीं। बातों ही बातों में ऐसे कई प्रसंग उनकी जबान पर आ जाते थे, जो उन दिनों के संघर्ष के सच को उजागर करते।स्वाधीनता संघर्ष में अपनी सक्रिय संलिप्तता के बावजूद गुरुदेव उन दिनों युग निर्माण मिशन की आधारशिला रख रहे थे। उनका यह दैवी अभियान धरती पर अवतरित हो रहा था। अखण्ड ज्योति परिवार के रूप में संगठन की सक्रियता अंकुरित हो रही थी।
माताजी की इसमें बराबर की हिस्सेदारी थी। दिन में आने-जाने वालों के खाने-पीने का ध्यान रखना, कार्यालय के कई काम निबटाना-उनके रोज के काम थे। माताजी बताती थीं कि उन दिनों गुरुदेव कई-कई दिनों के लिए घर से गायब हो जाते थे। बहुत बार तो वह महीनों तक भूमिगत रहकर अपनी गतिविधियों को संचालित करते। ऐसे में माताजी पर अचानक भार आ पड़ता था। रिश्तेदार, परिचितों में अंतरंग सहयोगी न थे। जो थे भी, वे सदा अपनी मदद के लिए हाथ पसारे रहते थे। ऐसों से आशा की भी क्या जाय? इनकी अनेकों कमियों के बावजूद माताजी, इन्हें सहज निश्छल स्नेह दिया करती थी। अपनी युवावस्था के दिनों उन्होंने परिवार को जोड़े रखने के लिए बहुत मानसिक, भावनात्मक कष्ट सहे।
चर्चा चलती है तो कई बातें उभरती हैं। ऐसे ही एक प्रसंग में माता जी ने बताया कि गुरुदेव उन दिनों लगभग दो महीने से गायब थे, उनकी कोई खोज खबर नहीं थी। मन उनके लिए ङ्क्षचतित रहता था, पता नहीं किस हाल में होंगे, खाना मिलता भी होगा कि नहीं? घर में जरूरत का सामान खत्म हो रहा था, बस जैसे-तैसे किसी तरह से सब कुछ चल रहा था। ङ्क्षचता, परेशानी के बीच शारीरिक और मानसिक संघर्ष करते हुए माताजी का स्वास्थ्य अचानक खराब हो गया। लगातार उन्हें बुखार रहने लगा। सभी उन्हें विश्राम की सलाह देते, पर विश्राम का अवसर कहाँ था?
तभी अचानक एक रात को गुरुदेव आ पहुँचे। उनके साथ उनके कई साथी थे। गुरुदेव के कपड़े बहुत मैले हो चुके थे। उनकी दाढ़ी के बाल भी बढ़ गये थे। आँखों से लगता था कि जैसे वे कई दिनों से सोये नहीं। उनके साथियों का हाल भी कुछ ऐसा ही था। गुरुदेव ने माताजी से कहा कि सभी लोग कई दिनों से भूखे हैं। इधर-उधर भागते हुए दिन बीत रहे हैं। अगर सम्भव हो तो कुछ खिला दो। माताजी सोच में पड़ गयीं, क्योंकि घर की चीजें खत्म हो रही थीं। उन्होंने एक बार फिर खोज-बीन की। आटा तो नहीं था, लेकिन थोड़े से चावल और दाल थी। उन्होंने यही दाल-चावल पका दिये। अभी वह इन लोगों को खाना परोस पातीं, इतने में दरवाजे पर कुण्डी खटखटाये जाने की आवाज आयी।
एक बारगी सबके चेहरे पर ङ्क्षचता की लकीरें चमक उठीं। पर माताजी धीरज से काम लेते हुए सभी को तलघर में ले गयीं। वहीं उन्होंने गुरुदेव सहित सबको बिठाया और दाल-चावल रखते हुए कहा आप लोग इन्हें परोसो-खाओ, तब तक मैं बाहर देखती हूँ। इन लोगों को बिठाकर जब उन्होंने बाहर आकर दरवाजा खोला, तो देखा कि पुलिस खड़ी थी, वह गुरुदेव के बारे में जानने के लिए आयी थी। पुलिस को देखकर एक बार तो उनका दिल जोर से धड़का। लेकिन दूसरे ही क्षण उन्होंने अपने चेहरे पर बिना कोई भाव लाये, पुलिस वालों को बिठाया और उनसे इधर-उधर की बातें करती रहीं। पुलिस वालों ने आसपास के एक-दो कमरों में खोज बीन की। फिर आश्वस्त होकर वापस चले गये।
माताजी की सूझ काम आयी। पुलिस को बहलाकर वापस भेजने में लगभग एक घण्टा तो लगा ही। जब वह फिर से दरवाजा बन्द करके नीचे के तलघर में गयी तो देखा सब लोग खतरे से आशंकित, कुछ अनमने, कुछ चौकन्ने बैठे हैं। माताजी थोड़ा हँसते हुए कहा-अरे! आप लोगों ने अभी तक खाया नहीं। खाना खाइये, बाहर पुलिस थी तो जरूर, पर अभी कोई नहीं हैं, खतरा टल चुका है। सभी ने आश्वस्त होकर खाना खाया। खाना खाने के बाद सभी ने हाथ-मुँह धोया और जाने लगे। जाते हुए तौलिया वापस देते समय गुरुदेव का हाथ माताजी से छू गया, तो उन्होंने चौंकते हुए कहा-अरे! आपको तो तेज बुखार है, ऐसे में इतनी मेहनत करनी पड़ी। माताजी ने हँसते हुए वातावरण को थोड़ा सामान्य बनाते हुए बोली-अरे तो क्या हुआ? आप लोग देश के लिए जान न्यौछावर किये रहते हैं और मैं क्या देशभक्तों के लिए खाना भी नहीं बना सकती?
माताजी की बात सुनकर गुरुदेव थोड़ी देर तक उनका हाथ थामे रहे। बरबस ही उनकी आँखें भीग आयीं। माताजी की भावनाएँ भी छलक पड़ीं। लेकिन तभी वह सचेत हुईं और उन्हीं ने गुरुदेव को वापस जाने का संकेत किया। इस प्रसंग की चर्चा करते हुए माताजी ने कहा था कि यह बात मेरे विवाह के थोड़े ही दिन बाद की होगी। इसके कुछ ही महीने बाद देश स्वतंत्र हो गया था। विवाह के तुरन्त बाद जीवन की ऐसी कठिन डगर पर हँसते हुए चलना साहस का सर्वोच्च शिखर है। इस आदर्श की डगर पर थोड़े युवा भी चलने की हिम्मत जुटा लें, तो युवा भारत विनिॢमत हो सकता है।