युवा जीवन सभी को मिलता है, पर सार्थक यौवन विरले पाते हैं। शरीर
की बारीकियों के जानकार चिकित्सा विशेषज्ञ युवा जीवन को कतिपय
जैव रासायनिक परिवर्तनों का खेल मानते हैं। ये परिवर्तन प्रत्येक
व्यक्ति के जीवन में घटित होते हैं। उम्र के एक खास पड़ाव को
छूते ही इन परिवर्तनों का सिलसिला शुरू हो जाता है और कई सालों
तक लगातार जारी रहता है। विशेषज्ञों ने कई ग्रंथों में इन
सूक्ष्म रासायनिक परिवर्तनों की कथा लिखी है। उनके अनुसार १५ वर्ष की आयु से ३५
वर्ष की आयु युवा जीवन की है। पैंतीस साल की आयु पूरी होते
ही यौवन ढलने लगता है और फिर प्रौढ़ता- परिपक्वता की श्वेत छाया
जीवन को छूने लगती है। लगभग बीस वर्षों का यह आयु काल यौवन का
है। इसे कैसे बिताएँ, यह स्वयं पर निर्भर है।
युवा जीवन प्रारम्भ होते ही शारीरिक परिवर्तनों की ही
भाँति कई तरह के मानसिक परिवर्तन भी होते हैं। जिनके आरोह- अवरोह
का लेखा- जोखा मनोवैज्ञानिकों ने किया है। उनके अनुसार यह
भावनात्मक एवं वैचारिक संक्रान्ति का काल है। इस अवधि में कई तरह
के भाव एवं विचार उफनते हैं। अनेकों उद्वेग एवं आवेग उमड़ते हैं। कई तरह के अवरोधों
एवं विद्रोहों का तूफानी सिलसिला अंतस् में चलता रहता है। शक्ति
के प्रचण्ड ज्वार उभरते एवं विलीन होते हैं। यह सब कुछ इतनी
तीव्र गति से होता है कि स्थिरता खोती नजर आती है। अपनी अनेकों
मत भिन्नताओं के बावजूद सभी मनोविशेषज्ञ युवा जीवन की संक्रान्ति
संवेदनाओं के बारे में एक मत हैं। सबका यही मानना है कि युवा
जीवन की विशेषताओं को, शक्तियों को, आवेगों को यदि सँवारा न गया,
तो जीवन की लय कुण्ठित हो सकती है। यौवन की सरगम बेसुरे चीत्कार में बदल सकती है।
दृष्टि शरीर शास्त्रियों की हो या मनोवैज्ञानिकों की।
कहना दोनों का यही है कि युवा होते ही शारीरिक- मानसिक शक्तियों
के अनेकों उभार आते हैं। प्रकृति इस अवधि में व्यक्ति को शक्ति
के अनेकों अनुदान सौंपती है। स्वतः ही प्रकट होती हैं—अनेकों शारीरिक क्षमताएँ, अपने आप ही पनपती हैं—अनगिनत
मानसिक प्रतिभाएँ। लेकिन साथ ही आकांक्षाओं- लालसाओं एवं चाहतों
की पौध भी उगती है और यही बनती है इन सभी शारीरिक- मानसिक
शक्तियों के व्यय का साधन। जो अनुभवी हैं, वे जानते हैं कि यौवन
में जहाँ एक ओर सामर्थ्य के तूफान मचलते हैं, वहीं व्यक्ति की
जैविक- मानसिक भूख बेचैन किये रहती है। अधिकतम शरीर का सुख पाने
की चाहत और अधिकतम मानसिक महत्त्वाकांक्षाएँ इन सभी शक्तियों को सोख लेती हैं।
शारीरिक सुखों की लालसाएँ और महत्त्वाकांक्षाओं के आवेग यौवन को मनचाही दिशाओं में मोड़ते हैं। कब? कहाँ? किधर? कुछ पता ही नहीं चलता। इन टेढ़ी- मेढ़ी
राहों पर चलते हुए यौवन कभी अटकता है, कभी भटकता है और कभी
तो मिट ही जाता है। होश तब आता है, जब सब कुछ समाप्त हो जाता
है। बच पाती हैं तो कई तरह की जानलेवा बीमारियाँ और न सुलझने
वाली उलझी हुई मनोग्रंथियाँ।
यह ऐसा सच है जो जिन्दगी के पन्नों में रोज ही प्रकाशित होता
है। अनायास मिली हुई यौवन की ऊर्जा सुसंस्कारों एवं सद्विचारों
के अभाव में प्रायः बहकती एवं भटकती ही देखी जाती है। कई तरह के स्वार्थी, कुटिल एवं चालबाज लोग इसे अपने ढंग से मोड़कर शोषण भी करते देखे जाते हैं।
रोज के समाचार पत्रों में ऐसी कई सुरखियाँ छपती रहती हैं। ‘युवा नशे की गिरफ्त में’ या फिर ‘उग्रवादी युवक गिरफ्तार’ अथवा आतंकवादी युवकों ने गाँव के ३६ लोगों की निर्मम हत्या की। टेलीविजन के कई चैनेलों
में भी ऐसे भटके हुए युवा जीवन की कई सत्य घटनाएँ देखी जाती
हैं। ऐसे भटकाव के कुचक्र में जो युवक फँसे होते हैं, वे गरीब
भी होते हैं और अमीर भी। उनकी जातियाँ एवं भाषाएँ अलग- अलग होती
हैं। रहने वाले भी वे अलग- अलग स्थानों के होते हैं, पर इन सभी
में एक समानता निश्चित रूप से होती है कि इन्हें सुसंस्कार एवं
सद्विचार नहीं मिल पाये। कुछ गलत लोगों ने इनकी भावनाओं को गलत
दिशा में बहका दिया।
आज के दौर में सार्थक यौवन से वंचित लोगों की बड़ी लम्बी सूची
है। इस सूची में अभावग्रस्त हैं, तो धनवान भी। अभी कुछ ही दिनों
पहले एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र ने ऐसे कई भटके हुए युवकों की
सूची जारी की थी, जो किसी बड़े नेता- मंत्री अथवा किसी बड़े
व्यावसायिक घराने से जुड़े होने के बावजूद हत्या, हिंसा,
नशा जैसी घटनाओं में लिप्त हैं। हालाँकि भटकते वे भी हैं जो
जिन्दगी की समस्याओं को संघर्ष एवं सन्मार्ग छोड़कर किसी शार्टकट का सहारा लेते हैं। ‘मुझे सब कुछ चाहिए और अभी चाहिए’ ऐसे सपने देखने वाले युवक भी जिन्दगी की रपटीली राहों पर फिसलते और जीवन गँवाते देखे जा सकते हैं।
आज के दौर में विश्व के प्रायः सभी देशों में एक सी
स्थिति है। कई अनुसंधान प्रिय मनीषियों ने इस पर गहरी शोध- समीक्षाएँ
भी प्रस्तुत की हैं। जो भी विशेषज्ञ हैं, उन सबका यही मानना है
कि युवा जीवन की उलझन केवल शारीरिक या मानसिक नहीं है। भले ही
इसके लक्षण शारीरिक एवं मानसिक तल पर उभरते देखे जाते हैं।
इसका वास्तविक कारण सही एवं सार्थक जीवन दृष्टि का अभाव है। युवा
जीवन- सार्थक जीवन का आनन्द तभी उठा सकता है, जब उसमें अपने
जीवन को सही ढंग से देखने की दृष्टि हो। स्वयं को समझने की सही
क्षमता हो।
आज का युवा बुरा नहीं है, बस भटका हुआ है। उसमें भी
क्षमता है लोकमान्य तिलक अथवा सुभाष बनने की। उसमें भी क्षमता है
कि किसी बड़े व्यवसाय को प्रतिष्ठित करने की। वह भी बन सकता
है- जुगलकिशोर बिड़ला, जमशेद जी टाटा अथवा फिर धीरू भाई अम्बानी।
उसमें भी शौर्य है चुनौतियों का सामना करने का, साहस है-
परिस्थितियों को पराजित करने का। उसमें संवेदना है किसी के दर्द
को अनुभव करने की, क्षमता है पीड़ा- पराभव एवं पतन को पराजित करने
की, भावना है स्वयं के यौवन की सार्थकता सिद्ध करने की। पर करे
क्या, सही दृष्टि जो नहीं है।
सार्थक यौवन के लिए चाहिए आध्यात्मिक दृष्टि। आध्यात्मिक
दृष्टि का मतलब किसी पूजा- पाठ या ग्रह शान्ति से नहीं है। इसे
किसी गण्डे, ताबीज, अंगूठी या लॉकेट से भी नहीं जोड़ा जाना चाहिए। मंदिर- मस्जिद के झगड़ों
से भी इसका कोई वास्ता नहीं है। इसका अर्थ तो जिन्दगी की सही
और सम्पूर्ण समझ है। जीवन की प्रकृति को, उसकी बारीकियों को सही
ढंग से समझना है। अनुभव करना स्वयं की विशेषताओं को, जानना है
स्वयं की सामर्थ्य के सही नियोजन के तौर- तरीके। परिशोधन करना है
स्वयं की अंतश्चेतना का, ताकि कुण्ठाएँ अपने कुचक्र में न फँसा
सकें। बनाए रखनी है नकारात्मक परिस्थितियों में सकारात्मक दृष्टि,
ताकि कोई भी मनोग्रन्थि जिन्दगी की डोर को उलझा न सके।
आध्यात्मिकता आज के युवा जीवन की आवश्यकता है। यह सार्थक
यौवन की राह है। इसे किसी मजहब अथवा धर्म से जोड़ने की जरूरत
नहीं है। यह तो जीवन का वह सार्वभौम संदेश है, जिसे उपनिषद् के
युग से तत्त्वज्ञानी महामानव देते आये हैं। जिस महामंत्र को
स्वामी विवेकानन्द ने युवकों को सुनाया- ‘‘उतिष्ठत जाग्रत प्राप्यवरान्निबोधत’’; उठो! जागो और रुको नहीं जब तक जीवन लक्ष्य तक न पहुँच जाओ (कठोप. वल्ली ३,१४)। यह वह अमरगान है, जिसे गीता नायक श्रीकृष्ण ने बहके- भटके अर्जुन को सुनाते हुए कहा- ‘क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थं—निर्वीर्य मत बनो अर्जुन! यही तो है वह भावगीत, जिससे प्रेरित होकर प्रत्येक ऐतिहासिक संकट में युवा शौर्य जाग्रत् हुआ है।