युवा क्रांति पथ

स्वाध्याय-सत्संग दैनिक जीवन का अंग बनें

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राष्ट्र की युवाशक्ति स्वाध्यायशील बने और सत्संग की महिमा समझे। वर्तमान युवा पीढ़ी ने न जाने क्यों इस ओर से बिल्कुल ही मुँह मोड़ रखा है। यह दौर कुछ ऐसा है, जिसमें युवाओं में स्वाध्याय और सत्संग की रुचि आश्चर्यजनक ढंग से घटी है। पढ़ने के नाम पर बहुत हुआ तो युवक-युवतियाँ पाठ्य वस्तु पढ़ते हैं या फिर कुछ चटपटे कहानी किस्से। सत्संग तो जैसे रहा ही नहीं। इस वस्तु स्थिति के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन इनमें प्रधान कारण जीवन निर्माण की प्रवृत्ति का अभाव है। हालाँकि कुछ लोग इसके पीछे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और टी.वी. चैनलों की भरमार देखते हैं। आज के युवा को पुस्तकों के लिए फुरसत कहाँ? वह अपने आपको पुस्तकों के पन्नों में उलझाने की बजाय टी.वी. के चैनलों और उसे चलाने वाले रिमोट की बटनों में उलझाना ज्यादा पसन्द करता है।

    जहाँ तक टी.वी. का सवाल है तो भारत देश में अभी उसकी बहुत प्रेरक भूमिका नहीं बन पायी है। देशी-विदेशी चैनलों की कितनी ही बाढ़ क्यों न आयी हो, पर इनके कार्यक्रम या तो हत्या, ङ्क्षहसा, बलात्कार की खोजी खबरें परोसते हैं या फिर सास-बहू के झगड़े अथवा युवा वासना व भावना के घुलनशील उफान को दिखाने में व्यस्त रहते हैं। हाँ, इनमें से कई चैनल खेल-खिलाड़ी की बातें जरूर करते हैं, कुछ चैनल ज्ञान के नाम पर कक्षाओं की पाठ्यवस्तु पर आधारित कार्यक्रम और पशु-पक्षियों, मरुभूमि, सागरों को दिखाते रहते हैं। इनमें से ऐसा कुछ नहीं होता है जो युवा व्यक्तित्व को सम्पूर्ण ढंग से गढ़ने वाला हो। उसकी जीवन दृष्टि का विकास करे, जिन्दगी की ऊर्जा की दशा को सँवारे और उसे सही दिशा सुझाये।

    इसके लिए इस इलेक्ट्रॉनिक युग में भी प्रेरणादायी पुस्तकों की आवश्यकता है। जरूरत अभी भी युवाओं में स्वाध्याय की प्रकृति को परिमाॢजत करने की है। अभी भी उन्हें सत्संग से जोड़े रखने की जरूरत है। स्वाध्याय और सत्संग से यदि युवा चेतना जुड़ी रहे, तो स्वभावतः ही उसका परिष्कार-परिमार्जन होता चलेगा। यह अनुभव उनमें से हर एक का है, जिन्होंने स्वाध्याय और सत्संग का स्वाद चखा है। एक प्रसंग पिछले दिनों का है। श्री रामकृष्ण मठ-मिशन के अध्यक्ष स्वामी रंगनाथानन्द का देहावसान हुआ था। स्वामी रंगनाथानन्द युगाचार्य स्वामी विवेकानन्द की विवेक ज्योति का प्रकाश प्रसारित करने वालों में अग्रणी रहे हैं। स्वामी विवेकानन्द के अनुगामी होने के साथ स्वामी रंगनाथानन्द उच्चकोटि के विद्वान्, महान तपस्वी, उच्चकोटि के लेखक व वक्ता थे। उनके सत्संग ने अपने युग में युवाओं को बहुत कुछ दिया।

    इनकी श्रद्धाञ्जलि सभा में अपने देश के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन ङ्क्षसह और नेता प्रतिपक्ष लालकृष्ण आडवानी दोनों ही पहुँचे थे। इन दोनों ने अपने युवा जीवन का स्मरण करते हुए कहा-यूँ तो हम सत्तापक्ष एवं प्रतिपक्ष से हैं। कई बातों और मुद्दों में हमारा आपसी विरोध है, परन्तु एक बात में पूरी तरह से एक हैं और वह बात जुड़ी है-स्वामी रंगनाथानन्द के सत्संग से। हम दोनों ही जब कराची में थे, तब स्वामी जी के सत्संग के लिए श्रीरामकृष्ण आश्रम जाया करते थे। स्वामी रंगनाथानन्द का सत्संग, उनके मार्गदर्शन में किया गया स्वाध्याय हमारे जीवन की स्मरणीय सम्पत्ति है। आज यदि हमारे जीवन में कुछ भी ठीक है, तो वह इसी सत्संग का सुफल है।स्वाध्याय प्रेरित करता है, सत्संग इन प्रेरणाओं को प्रगाढ़ बनाता है। ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ एवं ‘‘ऑन टु द लास्ट’’ पुस्तकों से प्रेरित होने वाले राष्ट्रपिता गाँधी का कहना था कि स्वाध्याय हमारे व्यक्तित्व में ऐसे वातायन की तरह से है, जहाँ से उच्चस्तरीय प्रेरणाओं की ताजी हवा आती है। जो विचारों और भावनाओं में ताजगी का संचार करता है। बंगाल क्रान्ति के नवयुवक श्रीमद्भगवद्गीता के स्वाध्याय से प्रेरणा पाते हैं। अंग्रेज पुलिस कप्तान ने जब इन युवकों को पकड़ा, तो इनके कमरे से दक्षिणेश्वर की मिट्टी और श्रीमद्भगवद्गीता की पुस्तक बरामद हुई। ये युवक दक्षिणेश्वर की साधना रज से श्रीरामकृष्ण परमहंस के सत्संग की भावनात्मक अनुभूति पाते थे। श्रीमद्भगद्गीता उन्हें ‘क्लैव्यं मा स्म गमः’-निर्वीर्यता त्यागने को प्रेरित करती है। यह अद्भुत सत्संग और स्वाध्याय उनमें ऐसी अद्भुत शक्ति का संचार करता था कि सम्पूर्ण अंग्रेज प्रशासन दहल गया था।

    श्री अरविन्द ने अपने क्रान्ति जीवन के इस प्रसंग को याद करते हुए कहा था कि अंग्रेजों ने दक्षिणेश्वर की मिट्टी को बम बनाने का मसाला समझा था और भगवद्गीता को रसायन विज्ञान की ऐसी पुस्तक माना था, जिसमें बम बनाने की कई कारगर विधियाँ हैं। इसी के चलते उन्होंने इस मिट्टी का भारत और लन्दन सहित कई प्रयोगशालाओं में परीक्षण करवाया था। भगवद्गीता के बारे में भी इन्होंने कई विद्वानों को देते हुए निर्देश दिया था कि वे इसमें से बम बनाने के छुपे सूत्रों को उजागर करें। श्री अरविन्द का कहना था-कि हम और हमारे सभी क्रान्तिकारी युवा साथी अंग्रेजों की इस मूर्खता पर हँसते हुए कहते थे कि इन्हें क्या पता कि स्वाध्याय और सत्संग से हम अपने व्यक्तित्व को ही महाशक्तिशाली बम में बदल रहे हैं।

    आधुनिक हिन्दी साहित्य के सुविख्यात कथा शिल्पी निर्मल कुमार वर्मा स्वाध्याय के महत्त्व से अभिभूत थे। वे कहते थे-कुछ भी पढ़ लेने या पढ़ते रहने को स्वाध्याय नहीं कहा जा सकता। यह तो अंतश्चेतना में प्रकाश अवतरण का जरिया है। उन्होंने ‘साहित्य का आत्मसत्य’ में लिखा है ‘यह भी दैवीय संयोग जान पड़ता है कि अचानक जीवन के किसी मोड़ पर कोई ऐसी पुस्तक हाथ लग जाती है, जिसे हमने जान-बुझकर नहीं चुना; किन्तु जिसे जैसे स्वयं मालूम हो कि हमारी आत्मा किस तृष्णा की आग में उसके लिए झुलस रही है और वह खुद चलकर हमारे हाथ आ जाती है और हमें लगता है कि अभी तक इसी की प्रतीक्षा कर रहे थे।’ स्वाध्याय को दैवी वरदान मानने वाले निर्मल कुमार वर्मा के जीवन में ऐसी एक पुस्तक ‘ज्याँ क्रिस्तोफ’ आयी, जिसे रोम्या रोलाँ ने लिखा था। उसका एक वाक्य ‘हर व्यक्ति अकेला ही सत्य की मशाल लेकर अँधेरे में चलता है’-जीवन के अंत तक उनके भीतर मोमबत्ती की तरह प्रज्वलित होता रहा। युगऋषि हमारे गुरुदेव ने भी स्वयं के जीवन को स्वाध्याय के साँचे में ढाला है।

उन्हें लौकिक और दैवी सत्संग के भी अनेकों सुअवसर प्राप्त हुए। उच्च कोटि के गं्रथों के अध्ययन-मनन के साथ उन्होंने महामना मालवीय, राष्ट्रपिता गाँधी, श्री अरविन्द, रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसी महान विभूतियों के साथ हिमालय की दुर्लभतम ऋषिसत्ताओं का सत्संग किया था। इस स्वाध्याय और सत्संग ने उनके जीवन में ऐसे अद्भुत परिवर्तन किये कि वह स्वयं सम्पूर्ण जीवन युवा पीढ़ी को इसके लिए प्रेरित करते रहे। यही नहीं, उन्होंने युवाओं के लिए विपुल साहित्य का सृजन किया। उनके द्वारा रचित साहित्य लाखों पृष्ठों एवं हजारों पुस्तकों में है। इन पंक्तियों में यदि हम आज की युवा पीढ़ी को उनकी किसी एक पुस्तक के स्वाध्याय का सुझाव दें, तो वह पुस्तक ‘हमारी वसीयत और विरासत’ है। युवाओं से आग्रह, अनुरोध एवं अनुनय है कि इस पुस्तक को अवश्य पढें़ और जिन्होंने इसे पढ़ रखा हो, वे भी नियम बनायें कि इसे वर्ष में एक बार अवश्य पढ़ेंगे। यह पुस्तक न केवल स्वाध्याय, बल्कि सत्संग से मिलने वाले सभी लाभ प्रदान करेगी। युवा नारी भी इसका स्वाध्याय-समन-चिन्तन करें, इसमें उन्हें संस्कृति संरक्षण के अनेकानेक सूत्र मिलेंगे, जो उनकी दिशा और दशा को सुनिश्चितता प्रदान करेंगे।
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