युवा क्रांति पथ

नैतिकता के टूटते तटबंधों के बीच कुछ सत्प्रयास

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नैतिकता की ढहती दीवारें यौवन का विनाश कर रही हैं। मर्यादाओं एवं वर्जनाओं में आयी दरकनों और दरारों के बीच किशोर कुम्हला रहे हैं और युवा विनष्ट हो रहे हैं। जिस सुख की तलाश में वे नैतिकता के तटबन्ध तोड़ रहे हैं, वह उन्हें मनोगं्रथियों एवं शारीरिक अक्षमता के अलावा और कुछ नहीं दे पा रहा है। यह सब हो रहा है स्वछन्द सुख की तलाश में। आज के युवा जिस डगर पर बढ़ चले हैं, वहाँ स्वछन्दता का उन्माद तो है, लेकिन सुख का सुकून जरा भी नहीं है। बस अपनी भ्रान्ति एवं भ्रम में जिन्दगी को तहस-नहस करने पर तुले हैं। युवाओं में यह प्रवृत्ति संक्रामक महामारी की तरह पूरे देश में फैलती जा रही है। बड़े शहरों की तरह अब छोटे शहर एवं कस्बे भी इसकी लपेट-चपेट में आने लगे हैं।

    अभी पिछले महीनों में एक स्कूल के बच्चों ने कान्टी पार्टी आयोजित की। उनके द्वारा गढ़ा गया यह कान्टी शब्द कॉन्टीनुएशन का लघु रूप है। यह एक बड़े शहर का ऐसा स्कूल है, जिसमें अपने बच्चों के दाखिले के लिए माँ-बाप कुछ भी देने और कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। यह पार्टी ११ वीं कक्षा के छात्र-छात्राओं ने १२ वीं कक्षा के छात्र-छात्राओं की विदाई में आयोजित की थी। इन कान्टी पाॢटयों का चलन अब बड़े शहरों के साथ छोटे शहरों में भी आम हो गया है। इसमें खास बात यह थी कि यह पार्टी एक पब में आयोजित की गयी थी। खोजी पत्रकारों का दल जब यहाँ पहुँचा, तो उन्होंने देखा कि अफ्रीकी पॉप गायक केबिन लाइटल के गीत पर वे २०० नवयुवा कुछ इस कदर झूम रहे थे कि सिगरेट का घना धुँआ भी उनके चेहरे पर गहरी होती जा रही वासना की आकुलता को नहीं छिपा पा रहा था।

    इस डिस्को पब में ये नवयुवा भड़कीले परिधान, लहराते बालों एवं चमकदार मेकअप में आये थे। संगीत के तेज होने के साथ इन जोड़ों की हरकतों की बाढ़ में नैतिक वर्जनाएँ कब और कहाँ विलीन हुईं पता ही नहीं चला। पत्रकारों के दल ने अपने लिए खबर जुटाने के लिए जब हालात का पता करने की कोशिश की, तो उन्हें मालूम हुआ कि स्कूल के अधिकारी एवं इन छात्र-छात्राओं के अभिभावक दोनों ही इससे अनजान थे। इन छात्र-छात्राओं ने अपने साथियों से ५००० रुपये जुटाये और पब आरक्षित किया। बस इसके बाद की कथा नैतिकता के मिटने-मिटाने को बयान करती है।

    सवाल यह है कि ऐसा क्यों हो रहा है? तो इसका जवाब देते हुए इन छात्र-छात्राओं का कहना है कि हमारे अभिभावक हमें पढ़ाई में अच्छा स्कोर करते हुए देखना चाहते हैं और वह हम कर रहे हैं। हम अपनी पढ़ाई में अच्छे अंक लाते हैं। किसी प्रतियोगिता में चयनित हो जाने की क्षमता हममें है। हमारा स्कूल या हमारे कॉलेज भी हमसे ऐसी ही उम्मीदें रखते हैं और हम इसे पूरा कर रहे हैं। अब यदि हम इसके बाद थोड़ा इन्टरटेनमेंट कर लेते हैं तो क्या बुरा है? जो हम करते हैं आखिर इसमें बुरा है ही क्या? युवाओं के इस कथन में झलकती है उनकी भ्रामक मान्यताएँ और अभिभावकों व शिक्षकों की भ्रान्तिपूर्ण अपेक्षाएँ।दरअसल समस्या आस्थाओं, मान्यताओं एवं मूल्यों की विकृति की है। जीवन की श्रेष्ठता के गलत मानदण्डों की स्थापना है। ङ्क्षचतन विकृत हो, तो चरित्र की विकृति व व्यवहार का पतन नहीं रोका जा सकता। स्कूली छात्र-छात्राओं की भाँति नौकरी-पेशा युवा भी इस विकृति के शिकार हो रहे हैं। इनमें लिव-इन रिलेशन अर्थात् बिन फेरे के साथ-साथ रहने का रोग पनप रहा है। इसके लिए उन्हें स्वीकृति भी मिल रही है और अब उन्हें मकान मालिक से ममेरे या चचेरे भाई-बहन होने का दिखावा नहीं करना पड़ता। युवाओं के बीच कालसेण्टरों की लोकप्रियता ‘इजी मनी-इजी सेक्स’ एवं ‘वन नाइट स्टैण्ड’ जैसे सूत्रों का चलन जोर पकड़ता जा रहा है।

    इस समस्या का सच जीवन की श्रेष्ठता के गलत मानदण्डों में निहित है। अच्छा विद्यार्थी कौन? वही जो अच्छे नम्बर लाये। अब तो आलम यह है कि ये विद्यार्थी अपने अभिभावकों से यह कहने में भी नहीं चूकते-मेरे मार्क्स तो ८० प्रतिशत हैं, अब थोड़ी सी शराब पी ली या सिगरेट को होठों से लगा लिया तो क्या हो गया? इसी तरह समाज एवं माँ-बाप की नजर में श्रेष्ठ युवा वह है जो ज्यादा पैसे कमा रहा है। अब ज्यादा पैसे कमाने के बाद, ऐशो-आराम के साधन जुटाने के बाद वह क्या कर रहा है? इससे किसी का क्या बनता-बिगड़ता है। श्रेष्ठता की इस प्रचलित कसौटी में गुण-कर्म-स्वभाव या फिर ङ्क्षचतन-चरित्र एवं व्यवहार का कोई स्थान नहीं है। ऐसे में नैतिकता की दीवारें ढहें, तो अचरज क्या?

    इन ढहती नैतिकता की दीवारों को बचाने के लिए परिपाटी एवं प्रचलन में परिवर्तन की जरूरत है। इस परिवर्तन के बीजों को देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के परिसर में बोने की कोशिश हो रही है। यहाँ विद्यार्थी की श्रेष्ठता का मानदण्ड केवल बौद्धिक क्षमता नहीं है, बल्कि यह उसकी श्रेष्ठता का केवल एक आयाम है। यहाँ श्रेष्ठता के ऑकलन के चार मानक स्थापित किये गये हैं। जिनमें से पहला है-व्यावहारिक सामंजस्य की कुशलता; दूसरा है-बौद्धिक श्रेष्ठता; तीसरा मानक-सामाजिक प्रतिबद्धता का है और चौथा मानक-विद्यार्थी की आध्यात्मिक जीवन दृष्टि की परिपक्वता से सम्बन्धित है। इन सभी मानकों पर खरा उतरने के लिए उसे अध्ययन विषय की कक्षाओं के अतिरिक्त ‘जीवन जीने की कला’ या ‘जीवन प्रबन्धन’ की विशेष कक्षा में प्रशिक्षित किया जाता है।

    इन सभी मानकों का खुलासा करें तो व्यावहारिक सामंजस्य की कुशलता में विद्यार्थी का व्यावहारिक लचीलापन, उसका पारस्परिक सौहार्द्र, आपस के सुख-दुःख में भागीदारी जैसी बातें आती हैं। इस विश्वविद्यालय में बौद्धिक श्रेष्ठता के दायरे को भी बढ़ा दिया गया है। इसके अंतर्गत अध्ययन के लिए निर्धारित विषयवस्तु सीखने के अलावा आलेख, शोध पत्र-लेखन, सेमिनार, सिम्पोजियम भागीदारी जैसी गतिविधियाँ भी शामिल हैं। सामाजिक प्रतिबद्धता के अंतर्गत विद्यार्थी विभिन्न गाँवों एवं कस्बों में स्वास्थ्य संवर्द्धन एवं व्यसन व कुरीति उन्मूलन जैसे अनेक कार्यक्रमों में भागीदार बनते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि की परिपक्वता के अंतर्गत उन्हें जीवन की सम्पूर्णता की समझ बतायी-सिखाई जाती है। इसे सीखते हुए वे जानने की कोशिश करते हैं, जीवन उतना ही नहीं है, जितना नजर आता है, बल्कि इसके और भी गहरे आयाम हैं। इन गहरे आयामों को जानने के लिए वे स्वयं भी कई आध्यात्मिक एवं परामनोवैज्ञानिक प्रयत्नों को करते हैं।

    इस पूरी प्रक्रिया का मूल्याङ्कन विद्यार्थी एवं शिक्षक मिलकर करते हैं। विश्वविद्यालय के अलग-अलग विभाग भी इस मूल्याङ्कन प्रक्रिया में भागीदार बनते हैं। इस पारदर्शी योजना में विद्यार्थी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व में आने वाला निखार उजागर होता है। एक बात जो समझने की है, जिसे देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राएँ समझ रहे हैं, वह यह कि नैतिक अनुशासन के पालन का मतलब उनके सुखों को छीने जाना नहीं है, बल्कि यह बल, पराक्रम एवं ऊर्जा प्राप्ति का अमोघ उपाय है। नैतिकता शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक ऊर्जा प्राप्त करने का प्रभावी साधन है न कि दुःख भोगने की जीवनशैली। युवाओं को इस सच का ज्ञान कराने की जरूरत है।

महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले और कामकाजी युवक-युवतियों को नैतिकता का सच समझना ही चाहिए। नैतिकता है जिन्दगी की ऊर्जा का संरक्षण एवं उसके सदुपयोग की नीति। यह प्रकृति के साथ सामंजस्य की ऐसी अनूठी शैली है, जिसमें व्यक्ति प्रकृति से अधिकाधिक शक्तियों के अनुदान प्राप्त करता है। इससे सुख छिनते नहीं, बल्कि सुखों को अनुभव करने की सामर्थ्य बढ़ती है। आज के दौर में विद्यार्थी एवं उनके अभिभावक दोनों को ही यह समझना जरूरी है कि जिन्दगी परीक्षा के नम्बरों की गणित तक सिमटी नहीं है, बल्कि इसका दायरा व्यक्तित्व की सम्पूर्ण विशालता एवं व्यापकता में फैला है। परीक्षा में (अच्छे) नम्बर लाने के बाद कुछ भी करने की छूट पाने के लिए हक जताना अर्थहीन है। इसी तरह कामकाजी युवाओं के लिए धन कमाने की योग्यता ही सब कुछ नहीं है। उन्हें अपनी जिन्दगी को नये सिरे से समझने की कोशिश करनी चाहिए। अच्छा हो कि अनुभवी जन इसमें उनके सहायक बनें। इस विकृति के जो भी कारण हों, उन्हें दूर किया जाना चाहिए। गहरी छानबीन हो तो इन्हें भावनाओं की भटकन में ढूँढा जा सकता है।
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