सतयुग की वापसी
आसुरी प्रपंच- पुरातन काल में एक अपराजित- हेय दैत्य कृतवीर्य
के आतंक से दसों दिशाओं में हाहाकार मच गया था। वह महाप्रतापी
और वरदानी था। देवता और मनुष्यों में से कोई उससे लोहा ले सकने
की स्थिति में नहीं था। सभी असहाय बने जहाँ- तहाँ अपनी जान
बचाते- फिरते थे। उपाय ब्रह्माजी ने सोचा। भगवान् शंकर को एक
प्रतापी पुत्र उत्पन्न करने के लिए सहमत किया। वही इस प्रलय दूत
से लड़ सकता था। कार्तिकेय (स्वामी कार्तिक) जन्मे। अग्नि ने
उन्हें गर्भ में रखा। कृतिकाओं ने पाला और इस योग्य बनाया कि वह अकेला ही चुनौती देकर कृतवीर्य को परास्त कर सके। ऐसा ही हुआ भी और संकट टलने का सुयोग आया था।
इस पौराणिक उपाख्यान में कितना सत्य और कितना अलंकार है यह कहना कठिन है; पर प्रस्तुत विभीषिकाएँ सचमुच ही ऐसी हैं, जिन्हें कृतवीर्य
के आतंक तुल्य ठहराया जा सके। जो सामने हैं, उनकी परिणति
महाप्रलय होने जैसी मान्यता हर विचारशील की बनती जा रही है।
अणु युद्ध की विभीषिका किसी भी दिन साकार हो सकती है और इस
धरती पर विषाक्तता के अतिरिक्त और कुछ बचने के आसार नहीं
हैं। बढ़ती जनसंख्या के लिए निर्वाह साधन अगले दिनों भी मिलते
रहेंगे, इसकी कोई संभावना नहीं है। अन्न, जल, खनिज ही नहीं, शुद्ध
वायु तक मिलना संभव न रहेगा और लोग भूख, प्यास, घुटन से संत्रस्त
होकर दम तोड़ेंगे।
मर्यादाओं को तोड़- मरोड़ डालने में निरत व्यक्ति को स्वास्थ्य,
संतोष, सुरक्षा, सम्पदा सभी से वंचित होना पड़ेगा। अनाचार की मान्यता
देने वाले समाज में स्नेह, सहकार और न्याय के लिए क्या स्थान
रहने वाला है? विशृंखलित और विग्रही
समाज का कोई भी सदस्य चैन से न रह सकेगा। इन परिस्थितियों का
विवेचन हर क्षेत्र के मूर्धन्य विचारशील कर रहे हैं और एक स्वर
में इस निष्कर्ष पर पहुँच रहे हैं कि समय रहते न चेता गया,
तो मनुष्य जाति को सामूहिक आत्महत्या के लिए बाधित होना पड़ेगा।
इस प्रसंग में शास्त्रकार, दिव्यदर्शी, ज्योतिषी, भविष्यवक्ता भी
अपने- अपने तर्क प्रमाण प्रस्तुत करते हुए यह घोषित करते हैं कि
दुर्दिनों की विपत्ति बेला अब कुछ ही दिनों में आ धमकने वाली
है। बढ़ते तापमान से ध्रुव पिघलने, समुद्र उफनने और हिम युग वापस
लौटने जैसी चर्चाएँ आये दिन सुनने को मिलती रहती हैं। कोई चाहे
तो इन परिस्थितियों की कृतवीर्य महादैत्य के समय से तुलना कर सकता है, जो किसी के भी झुकाए न झुक पा रहा है।
सुनिश्चित दिव्य योजना- ऐसे समय में अध्यात्म शक्ति ही कारगर
होती रही है। विश्वामित्र का यज्ञ जिसकी रक्षा करने राम, लक्ष्मण
गये थे, सामयिक आतंक को टालने की पृष्ठभूमि बनाने के लिए ही
किया गया था। दधीचि के अस्थिदान
के पीछे भी यही उद्देश्य था। कार्तिकेय जैसी अध्यात्म क्षमता
उत्पादित करने के प्रयत्नों के साथ किसी प्रकार संगति बिठानी हो,
तो प्रज्ञा परिजनों द्वारा संचालित प्रज्ञा पुरश्चरण से बैठ सकती
है, जिसमें चौबीस लाख व्यक्ति एक समय पर एक विधान से वातावरण
संशोधन की साधना करते हैं। इसी की एक कड़ी इस अनुभव प्रयास के
साथ जुड़ती है, जिसमें एकान्तवास के साथ उग्र तपश्चर्या१
(सूक्ष्मीकरण साधना) करने का निर्धारण है। इसकी सुखद परिणति पर
हमें उतना ही विश्वास है, जितना अपनी आत्मा और परमात्मा के
अस्तित्व पर।
दृश्य और प्रत्यक्ष परिस्थितियों का विश्लेषण करने वालों और
निष्कर्ष निकालने वालों की तुलना में हमारे आभास इन दिनों सर्वथा
भिन्न हैं। लगता है कि एक- एक करके सभी संकट टल जायेंगे।
अणुयुद्ध नहीं होगा और यह पृथ्वी भी वैसी बनी रहेगी, जैसी अब
है। प्रदूषण को मनुष्य न सँभाल सकेगा, तो अंतरिक्षीय प्रवाह उसका
परिशोधन करेंगे। जनसंख्या जिस तेजी से अभी बढ़ रही है, एक दशाब्दी
में वह दौड़ आधी घट जायेगी। रेगिस्तानों और ऊसरों
को उपजाऊ बनाया जायेगा और नदियों को समुद्र तक पहुँचने से
पूर्व इस प्रकार बाँध लिया जायेगा कि सिंचाई तथा अन्य प्रयोजनों
के लिए पानी की कमी न पड़े।
प्रजातंत्र के नाम पर चलने वाली धाँधली में कटौती होगी। वोट
उपयुक्त व्यक्ति ही दे सकेंगे। अफसरों के स्थान पर पंचायतें शासन
संभालेंगी
और जन सहयोग से ऐसे प्रयास चल पड़ेंगे कि जिनकी इन दिनों
सरकार पर ही निर्भरता रहती है। नया नेतृत्व उभरेगा। इन दिनों धर्म
क्षेत्र के और राजनीति के लोग ही समाज का नेतृत्व करते हैं।
अगले दिनों मनीषियों की एक नई बिरादरी का उदय होगा, जो देश,
जाति, वर्ग आदि के नाम पर विभाजित वर्तमान समुदाय को विश्व
नागरिक स्तर की मान्यता अपनाने, विश्व परिवार बनाकर रहने के लिए
सहमत करेंगे। तब विग्रह नहीं, हर किसी पर सृजन और सहकार सवार
होगा।
विश्व परिवार की भावना दिन- दिन जोर पकड़ेगी और एक दिन वह समय आवेगा,
जब विश्व राष्ट्र आबद्ध विश्व नागरिक बिना आपस में टकराये
प्रेमपूर्वक रहेंगे। मिल- जुलकर आगे बढ़ेंगे और वह परिस्थितियाँ
उत्पन्न करेंगे, जिसे पुरातन सतयुग के समतुल्य कहा जा सके।
इसके लिए नवसृजन का उत्साह उभरेगा। नये लोग नये परिवेश में
आगे आयेंगे। ऐसे लोग जिनकी पिछले दिनों कोई चर्चा तक न थी, वे
इस तत्परता से बागडोर सम्भालेंगे, मानों वे इसी प्रयोजन के लिए
कहीं ऊपर आसमान से उतरे हों, या धरती फोड़कर निकले हों।
यह हमारे स्वप्नों का संसार है। इनके पीछे कल्पनाएँ अटकलें काम
नहीं कर रही हैं, वरन् अदृश्य जगत् में चल रही हलचलों को
देखकर इस प्रकार का आभास मिलता है, जिसे हम सत्य के अधिकतम निकट
देख रहे हैं।
मरणोन्मुख प्रवाह में इस प्रकार आमूल- चूल परिवर्तन होने के पीछे
उन दैवी शक्तियों का हाथ है, जो दृश्यमान न होते हुए भी
वातावरण बदल रही हैं और लोक चिन्तन में अध्यात्म तत्त्वों का
समावेश कर रही हैं। महान कार्यों के लिए किसी जादुई कलेवर वाले
लोग नहीं होते। अपने जैसे ही हाड़- माँस के लोग दृष्टिकोण रुझान
एवं पराक्रम की दिशा बदलते हैं, तो वे कुछ से कुछ बन जाते हैं।
रीछ वानरों में न कोई विशेष योग्यता थी, न क्षमता। दैवी प्रवाह
के साथ- साथ चल पड़ने के कारण वे सब कुछ से कुछ हो गये थे।
हनुमान, अंगद और नल- नील जैसों ने जो पुरुषार्थ किया, उन पर सहज
विश्वास ही नहीं होता;
पर जो आत्मशक्ति की। दिव्य चेतना की क्षमता को जानते हैं,
उन्हें यह विश्वास करने में तनिक भी कठिनाई नहीं होती कि टिटहरी
का सत्संकल्प
समुद्र को सुखाने में अगस्त्य मुनि का सहयोग आमंत्रित कर सकता
है और असंभव लगने वाला, अण्डे लौटने जैसा कार्य संभव हो सकता
है।
दूसरों को विनाश दीखता है, सो ठीक है। परिस्थितियों का जायजा
लेकर निष्कर्ष निकालने वाली बुद्धि को भी झुठलाया नहीं जा सकता।
विनाश की भविष्यवाणियों में सत्य भी है और तथ्य भी। पर हम अपने
आभास और विश्वास को क्या कहें, जो कहता है कि समय बदलेगा।
घटाटोप की तरह घुमड़ने वाले काले मेघ किसी प्रचण्ड तूफान की चपेट में आकर उड़ते हुए कहीं से कहीं चले जायेंगे।
सघन तमिस्रा का अंत होगा। उषाकाल के साथ उभरता हुआ अरुणोदय
अपनी प्रखरता का परिचय देगा। जिन्हें तमिस्रा चिरस्थाई लगती हो, वे
अपने ढंग से सोचें, पर हमारा दिव्य दर्शन उज्ज्वल भविष्य की
झाँकी करता है। लगता है इस पुण्य प्रयास में सृजन की पक्षधर
देवशक्तियाँ प्राण- प्रण से जुट गयी हैं। इसी सृजन प्रयास के एक
अकिंचन घटक के रूप में हमें भी कुछ कारगर अनुदान प्रस्तुत करने
का अवसर मिल रहा है। इस सुयोग्य- सौभाग पर हमें अतीव संतोष है और असाधारण आनंद।