भविष्य की कल्पना तथा योजना के विषय में दूरदर्शी विवेकशील भी अपनी सूझबूझ और अनुभव के आधार पर वर्तमान साधनों और परिस्थितियों को देखते हुए आगत का अनुमान लगाते हैं। इसे योजना निर्धारण कहते हैं जिसके तीर प्रायः निशाने पर ही बैठते हैं, यदि ऐसा न होता तो मनुष्य प्रायः अँधेरे में ही भटकता रहता और बदलती परिस्थितियों में अपना पथ बदलता रहता। पर ऐसा होता नहीं। दूरदर्शिता के आधार पर आगा-पीछा सोचते हुए जो योजनाएँ बनती हैं, उसके पीछे तर्क, तथ्य और अनुभव बड़ी मात्रा में समाहित होते हैं। अतएव विश्वास किया जाता है कि जो सोचा गया है वह होकर रहेगा। मार्ग में आने वाले व्यवधानों से जूझा जाएगा और देर सबेर में लक्ष्य तक पहुँच कर रहा जाएगा। होता भी ऐसा ही है।
आज से पाँच सौ वर्ष पुराना कोई मनुष्य कहीं जीवित हो और आकर अबकी भौतिक प्रगति के दृश्य देखे, तो उसे आश्चर्यचकित होकर रह जाना पड़ेगा और कहना पड़ेगा कि यह उसके जानने वाली दुुनिया नहीं रही। यह तो भूतों की बस्ती जैसी बन गई है। सचमुच पिछले दिनों बुद्धिवाद और भौतिकवाद की सम्मिलित संरचना हुई भी ऐसी ही है, जिसे असाधारण, अद्भुत और आश्चर्यजनक परिवर्तन कहा जा सके।
ठीक इसी के समतुल्य दूसरा परिवर्तन होने जा रहा है। उसके लिए पाँच सौ वर्ष प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। इस नये परिवर्तन के लिए एक शताब्दी पर्याप्त है। आज की चकाचौंध जैसी परिस्थितियाँ और आसुरी मायाचार जैसी समस्याएँ अब इन दिनों भयावह लगती हैं और उनके चलते प्रवाह को देखकर लगता है कि सूर्य अस्त हो चला और निविड़ निशा से भरा अंधकार अति समीप आ पहुँचा, पर ऐसा होगा नहीं। यह ग्रहण की युति है। बदली की छाया है, जिसे हटा देने वाले प्रचण्ड आधार विद्यमान भी हैं और गतिशील भी। लंकाकाण्ड की नृशंसता के उपरांत रामराज्य का सतयुग वापस आया था। वैसी ही पुनरावृत्ति की हम अपेक्षा कर सकते हैं।
विनाश की सोचते और चेष्टा करते हुए मनुष्य का यह संसार थक जायेगा और वैभव के साधन स्रोत सूख जायेंगे। उन्हें नये सिरे से नई बात सोचनी पड़ेगी कि प्रवाह को नई दिशा में उलट दिया जाय और उपलब्ध साधनों को सृजन के लिए लगाया जाय। ऊपर से पड़ने वाले दबाव ऐसी ही उलट फेर संभव करेंगे। उनने उलटे को उलट कर सीधा करने का निश्चय कर लिया है।
आयुध बनाने वाले कारखाने के मजदूरों और इंजीनियरों को सृजन के साधन विनिर्मित करने का नया काम मिलेगा। आयुधों से लोगों का अब पेट भर गया है। मजदूरों को उधार या मुफ्त बाँटकर अपने कारखानों की बेरोजगारी उन्हें बरबस रोकनी पड़ेगी।
अगले दिनों भूखी, प्यासी, अशिक्षित, बीमार, पिछड़ी दुनिया की आवश्यकता इतनी अधिक दृष्टिगोचर होगी कि उनकी पूर्ति के लिए युद्ध साधनों और निर्माताओं की समूची पूँजी खप जायेगी। माँग भी इतनी होगी कि सीमित मुनाफा लेकर उत्पादन को जलते तवे पर पानी की बूँदों की तरह खपाया जा सके। सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि विनाश के लिए एक छुरी या दिया सलाई पर्याप्त है। पर विकास के लिए तो अनेकानेक साधन बड़ी मात्रा में जुटाने पड़ते हैं। अगले दिनों सृजनात्मक उत्पादन की हजार गुनी माँग होगी और कहीं से भी बेकारी-बेरोजगारी की, पूँजी जमा होने की शिकायत सुनने को न मिलेगी।
संसार भर में प्रायः दस करोड़ सैनिक और अर्ध सैनिक हैं, वे युद्ध की पढ़ाई पढ़ते, परीक्षा देते और प्रतीक्षा करते रहते हैं। उन्हें इस बाल कक्षा से आगे बढ़कर उस कॉलेज में भर्ती होना चाहिए, जिससे वे गरीबी, अशिक्षा और बीमारी के विरुद्ध मोर्चा लगा सकें और ढहा देने वाली तोपें चला सकें। दस करोड़ अध्यापक, बागवान, चिकित्सकों को आज की दुनिया के लिए स्वर्गलोक से अवतरित होने वाले देवता समझा जाय। उन्हें (सैनिकों को) मृत्यु दूत की पदवी से विरत होना पड़ेगा।
युद्धों से समस्या घटती नहीं बढ़ती ही है। घटाने और मिटाने का एक ही तरीका है। विचार विनियम, पंच फैसला, संधि या विश्वास। यह तत्त्व उभरने ही वाले हैं। अण्डे में हैं तो क्या? कल वे चूजे बनेंगे, परसों मुर्गे और कुछ ही समय बीतेगा कि ब्रह्ममुहूर्त होने की बाँग लगाने लगेंगे। सोतों को जगाने की उनकी पुकार अनसुनी न की जायेगी।
विष उगलने वाले, कुंभकरण जैसी साँस लेने वाले विशालकाय कल कारखाने बंद हो जायेंगे। न वायु प्रदूषण बढ़ेगा और न जल प्रदूषण का कुहराम मचेगा। एक-एक, दो-दो हार्स पावर की मोटरें गृह उद्योगों के माध्यम से उन वस्तुओं का उत्पादन करने लगेंगी, जिनकी विलास के लिए नहीं निर्वाह के लिए आवश्यकता है। न शिक्षितों की बेरोजगारी रहेगी न अशिक्षितों की। सभी को काम मिल जायेगा। भूखों की भूख ही नहीं मिटेंगी, वरन् समर्थों की सामर्थ्य पर भी अंकुश लगेगा, जो खाली दिमाग होने के कारण शैतानी बनकर छाई रहती है।
शहर बिखरेंगे और सिकुडेंगे, गाँव विकसित होंगे। बीच की स्थिति कस्बों की होगी। चारों ओर खेतों और बागों के फार्म होंगे। सिंचाई और बुवाई का ऐसा योजनाबद्ध ताना बाना बनेगा, जो न केवल हरित क्रांति की आवश्यकता पूरी कर सकेगा, वरन् पानी को पाताल गंगाओं से खींचकर इंदिरा नहर परियोजना की तरह रेगिस्तानों को भी उर्वरभूूमि में परिणत कर सकेगा।
आज तो उत्पादन जितना ही श्रम विक्रय में लगता है। पीछे हर कस्बे में मुहल्ले-मुहल्ले में ऐसे सुपर बाजार होंगे। जहाँ एक ही जगह विक्रेताओं और खरीददारों की कुछ ही समय में अपनी आवश्यकताएँ पूरी करने का सुयोग मिल सके।
गाँवों की बसावट आज जैसी भोंडी न होगी, वरन् वे लार्जर फैमिली के रूप में खेती करने वाले ऐसे परिवारों के रूप में बसे होंगे, जो अपने आप में स्वावलम्बी भी होंगे और सुरुचि पूर्ण भी, सुसंस्कृत एवं सुनियोजित भी। बड़े शहरों की बड़ी गंदगी को तब जलाशयों में बहाकर पेयजल को दूषित न करना पड़ेगा वरन् कचरे को खाद में बदल लेने की पद्धति कार्यान्वित होने लगेगी। खेत उर्वर बनेंगे और गंदगी का कहीं दर्शन भी न हो सकेगा।