अमर वाणी -2

भविष्य इस प्रकार उभरेगा

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परिवर्तन की बेला में सर्वप्रथम आबादी घटाने की आवश्यकता पड़ेगी। अन्यथा प्रगति प्रयास कितने ही बढ़े-चढ़े क्यों न हों वे आवश्यकता की तुलना में कम ही पड़ते जायेंगे। पारस्परिक प्रतिस्पर्द्धा में वे आपस में लड़ मर कर महाविनाश के गर्त में गिरेंगे। तरीके जो भी अपनाये जायें आबादी को नियन्त्रित किये बिना कोई गति नहीं। समस्याओं का कहीं समाधान नही। बह्मचर्य, वानप्रस्थ, संयम, बचाव आदिजिससे जो बन पड़े, उसे यह सीखना और सिखाया जाना चाहिए कि शान्ति और प्रगति का समय वापस लाने के लिए प्रजनन को जिस प्रकार भी बन पड़े निरुत्साहित किया जाना चाहिए।

    अगले दिनों भीमकाय कारखाने छोटे कुटीर उद्योगों का रूप अपना कर गाँव कस्बों में बिखर जायेंगे। तभी प्रदूषण रुकेगा और तभी हर हाथ को काम और हर पेट को रोटी मिलने का सुयोग बनेगा।

    हर किसी को औसत नागरिक स्तर का निर्वाह स्वीकार करना पड़ेगा। अन्यथा विलास, दर्प, अपव्यय, प्रदर्शन की अंहकारिता के लिए नीति और अनीति से बहुत जोड़ने, जमा करने और खर्चने की हविश में जिन्दगियाँ खप जायेंगी। सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धान्त व्यवहार में उतरने पर ही यह सम्भव होगा कि ऊँचे टीले नीचे झुकें और नीचे खाई खन्दकों को भरकर समतल का सृजन करें। कृषि उद्यान और हरे मैदान और नगर, उद्योग आदि ऐसी ही भूमि की तो अपेक्षा करते हैं। अमीरों और गरीबों की बीच की दीवार टूटते-टूटते वे विसंगतियाँ भी मिटेंगी जिनके कारण जाति वंश की, लिंग भेद की, मनुष्य-मनुष्य के बीच भारी असमानता दीख पड़ रही है।

    आधी आबादी नारी के रूप में मुद्दतों से क्रीत-दासी की तरह बंधुआ मजदूरों जैसा परावलम्बी जीवन जीती रही है। अगले दिनों वह पूर्ण मानवाधिकार सम्पन्न स्तर को उपलब्ध कर सकेगी। इसका शुभारंभ तो सूर्याेदय के देश जापान से हो ही चुका है। एशिया, चीन, इजरायल, बलगारिया आदि में उसे पहले से ही अधिकार प्राप्त है। यदि यह हो गया तो कमाऊ हाथ दूने हो जायेंगे और किसी को किसी पर लदने और किसी को किसी का भार वहन करने की आवश्यकता न पड़ेगी। सभी एकता की स्थिति में रहते हुए स्नेह सहयोग का रसास्वदान कर सकेंगे। प्रगति भी देखते-देखते दूनी हो चलेगी।
    भाषा, क्षेत्र, सम्प्रदाय, प्रचलन की विभिन्नता ने सार्वभौम एकता में भारी व्यवधान खड़ा कर रखा है। अगले दिनों सभी विश्व नागरिक होंगे। विश्व मानव के रूप में विकसित हुए सार्वभौम सभ्यता की छत्रछाया में ही मनुष्य हिल-मिल कर रह सकेंगे। मिल बाँटकर खाते हुए हँसती-हँसाती जिन्दगी जी सकेंगे।
    युग की आवश्यकता के अनुरूप नागरिक  और वातावरण विनिर्मित करने वाली शिक्षा एवं साहित्य का नये सिरे से निर्माण होगा। उससे प्रभावित हुए बिना मनुष्य समाज का एक भी सदस्य बाकी न रहेगा। विद्यालयों के समकक्ष ही पुस्तकालयों का भी महत्त्व होगा। अध्यापकों की तरह साहित्य सृजेता भी जन-मानस को उच्च स्तरीय बनाने में समान योगदान देंगे।

    प्रत्येक क्रिया-कलाप में सहकारिता आधारभूत व्यवस्था बनेगी। परिवार स्तर की निर्वाह पद्धति हर कहीं अपनाई जायेगी। उद्योग, मनोरंजन, उपभोग, विनिमय आदि में सहकारिता को अधिकाधिक स्थान दिया जायेगा। कोई अपने को एकाकी अनुभव न करेगा, ‘हम सब के सब हमारे’ का मंत्र हर किसी के मन मानस में गूंजता रहेगा। इसी आधार पर वर्तमान का अनावरण तथा भविष्य का निर्धारण ढल कर रहेगा।

    शासन को लोक जीवन में कम से कम हस्तक्षेप की आवश्यकता पड़ेगी। उसका वजन पंचायती और स्वेच्छा सेवी संस्थाएँ सहकारी समितियाँ पूरा कर देंगी। अवांछनीय तत्वों का नियन्त्रण और प्रगति का संतुलित मार्गदर्शन ही उसका प्रमुख कार्य रह जायेगा। चुनाव की पद्धति अति सरल और बिना खर्च वाली होगी। मौलिक अधिकारों के नाम पर किसी को असामाजिक कार्य करने की छूृट न मिलेगी। दुर्बलों को न्याय मिलना कठिन न होगा। क्योंकि यथार्थता जाँचने की जिम्मेदारी पूरी तरह शासन संस्था वहन करेगी। अनुशासन को सर्वत्र मान्यता मिलने से भ्रष्टाचार की गुंजायश न अफसर के लिए रहेगी न जनसाधारण के लिए।

    वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, आर्चीटेक्ट, मनीषी, साहित्यकार, कलाकार जैसी प्रतिभाएँ सार्वजनिक सम्पति बन कर रहेंगी। वे अपनी विशेष योग्यता का विशेष मूल्य माँगने का दुस्साहस न करेंगी, कारण कि उन्हें अधिक समर्थ सुयोग्य बनाने में वर्तमान समाज एवं चिरकालीन संचित ज्ञान-सम्पदा का भी तो भरपूर लाभ मिलेगा। अकेला रह कर तो कोई व्यक्ति वनमानुष या नर वानर से अधिक कुछ बन ही नहीं सकता। जिसे अधिक मिला है उसे लोक सेवा का अधिक श्रेय लेकर ही संतोष करना चाहिए।

    व्यक्ति को समाज का एक अविच्छिन्न घटक बन कर रहना होगा। मर्यादाओं का पालन और वर्जनाओं का अनुशासन शिरोधार्य करना होगा। उच्छंृखलता बरतने का न कोई प्रयास करेगा और न समुदाय उसे वैसा करने देना सहन करेगा। अपना सुख बाँटना और दूसरों का दुःख बँटाना, सही रहना और सही रहने देना, इसी में जियो और जीने दो का सिद्धान्त पलता है। मानवीय गरिमा को अक्षुण्ण बनाये रखने में ही मनुष्य का गौरव, सम्मान एवं स्तर बनता है। यह मान्यता अगले दिनों हर किसी को सच्चे मन से अपनानी होगी।

    इन सिद्धान्तों का कहाँ, किसे प्रकार, कोन कैसे क्रियान्वयन करेगा? यह पिरस्थितियों पर निर्भर रहेगा, समस्त संसार में दच्च सिद्धान्त तो एक तरह अपनाये जा सकते है, पर उनके क्रियान्वयन में समयानुसार ही निर्धारण हो सकता है। इसलिए क्रियाकलापों की अपनी अपनी स्थिति के अनुरूप ही व्यवस्था बन सकती है। यह सुनिश्चित है कि भविष्य निश्चय ही उज्ज्वल एंव सुखद सम्भावनाओं से भरा पूरा होगा।

 वाङ्मय २७-३.६८/६९
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