अमर वाणी -2

सूर्योदय हो चला अब प्रकाश फैलाना ही बाकी है

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नव-निर्माण के अवतरण की किरणें अगले दिनों प्रबुद्ध एवं जीवन्त आत्माओं पर बरसेंगी, वे व्यक्तिगत लाभ में संलग्न रहने की लिप्सा को लोक-मंगल के लिए उत्सर्ग करने की आन्तरिक पुकार सुनेंगे। यह पुकार इतनी तीव्र होगी कि चाहने पर वे भीे संकीर्ण स्वार्थपरता भरा व्यक्तिवादी जीवन जी ही न सकेंगे। लोभ और मोह की जटिल जंजीरें वैसी ही टूटती दीखेंगी जैसे कृष्ण जन्म के समय बन्दी गृह के ताले अनायास ही खुल गये थे। यों मायाबद्ध नर कीटकों के लिए वासना और तृष्णा की परिधि तोड़ कर परमार्थ के क्षेत्र में कदम बढ़ाना लगभग असम्भव जैसा लगता है। पेट और प्रजनन की विडम्बनाओं के अतिरिक्त वे क्या आगे की ओर कुछ बात सोच या कर सकेंगे? पर समय ही बतायेगा कि इसी जाल जंजाल में जकड़े हुए वर्गों में से कितनी प्रबुद्ध आत्माएँ उछल कर आगे आती हैं ओर सामान्य स्थिति में रहते हुए कितने ऐसे अद्भुत क्रिया-कलाप सम्पन्न करती हैं, जिन्हें देख कर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ेगा। जन्म जात रूप से तुच्छ स्थिति में जकड़े हुए व्यक्ति अगले दिनों जब महामानवों की भूमिका प्रस्तुत करते दिखाई पड़ें तो समझना चाहिए कि युग परिवर्तन का प्रकाश एवं चमत्कार सर्वसाधारणको प्रत्यक्ष हो चला। वाङ्मय २७-७.२

    धर्म अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट होगा। उस के प्रसार प्रतिपादन का ठेका किसी वेश या वंश विशेष पर न रह जायेगा। सम्प्रदायवादियों के डेरे उखड़ जायेंगे, उन्हें मुफ्त के गुलछर्रे उड़ाने की सुविधा छिनती दीखेगी तो कोई उपयोगी धंधा अपना कर भले मानसों की तरह आजीविका उपार्जित करेंगे, तब उत्कृष्ट चरित्र, परिष्कृत ज्ञान एवं लोक-मंगल के लिए प्रस्तुत किया गया अनुदान ही किसी को सम्मानित या श्रद्धास्पद बना सकेगा। पाखण्ड पूजा  के बल पर जीने वाले उलूक उस दिवा प्रकाश से भौचक्के होकर देखेंगे और किसी कोटर में बैठे दिन गुजारेंगे। अज्ञानान्धकार में जो पौ बारह रहती थी उन अतीत की स्मृतियों को वे ललचाई दृष्टि से सोचते चाहते तो रहेंगे, पर फिर समय लौटकर कभी आ न सकेगा।

    अगले दिनों ज्ञान तंत्र ही धर्म तंत्र होगा। चरित्र-निर्माण और लोक-मंगल की गतिविधियाँ धार्मिक कर्मकाण्डों का स्थान ग्रहण करेंगी, तब लोग प्रतिमा पूजक देव मन्दिर बनाने की तुलना में पुस्तकाल, विद्यालय जैसे ज्ञान मन्दिर बनाने को महत्त्व देंगे। तीर्थ यात्राओं और ब्रह्मभोजों में लगने वाला धन लोक शिक्षण की भाव भरी सत्प्रवृत्तियों के लिए अर्पित किया जायेगा। कथा पुराणों की कहानियाँ तब उतनी आवश्यक न मानी जायेंगी, जितनी जीवन समस्याओं को सुलझाने वाली, प्रेरणाप्रद अभिव्यंजनाएँ। धर्म अपने असली स्वरूप में निखर कर आयेगा। और उसके ऊपर चढ़ी हुए सड़ी-गली केंचुली उतर कर कूड़े-करकट के ढेर जा गिरेगी।

    ज्ञान तंत्र वाणी और लेखनी तक ही सीमित न रहेगा वरन् उसे प्रचारात्मक, रचनात्मक एवं संघर्षात्मक कार्यक्रमों के साथ बौद्धिक, नैतिक और समाजिक क्रांति के लिए प्रयुक्त किया जायेगा। साहित्य, संगीत कला के विभिन्न पक्ष विविध प्रकार से लोक शिक्षण का उच्चस्तरीय प्रयोजन पूरा करेंगे। जिनके पास प्रतिभा है, जिनके पास सम्पदा है, वे उससे स्वयं लाभान्वित होने के स्थान पर समस्त समाज को समुन्नत करने के लिए समर्पित करेंगे।

    (१) एकता, (२) समता, (३) ममता और (४) शुचिता नव-निर्माण के चार भावनात्मक आधार होंगे।

    एक विश्व, एक राष्ट्र, एक भाषा, एक धर्म, एक आचार संहिता, एक संस्कृति के आधार पर समस्त मानव प्राणी एकता के रूप में बंधेंगे। विश्व बंधुत्व की भावना उभरेगी ओर वसुधैव कुटुम्बकम् का आदर्श सामने रहेगा, तब देश, धर्म, भाषा, वर्ण आदि के नाम पर मनुष्य-मनुष्य के बीच दीवार खड़ी न की जा सकेगी। अपने वर्ग के लिए नहीं समस्त विश्व के हित साधन की दृष्टि से समस्याओं पर विचार किया जायेगा।

जाति या लिंग के कारण किसी को ऊँचा या किसी को नीचा न ठहरा सकेंगे। छूत-अछूत का प्रश्न न रहेगा। गोरी चमड़ी वाले काले लोगों से श्रेष्ठ होने का दावा न करेंगे और ब्राह्मण हरिजन से ऊँचा न कहलायेगा। गुण, कर्म, स्वभाव, सेवा एवं बलिदान ही किसी को सम्मानित होने के आधार बनेंगें, जाति या वंश नहीं। इसी प्रकार नारी से नर श्रेष्ठ है, उसे अधिक अधिकार प्राप्त है, ऐसी मान्यता हट जायेगी। दोनों के कर्त्तव्य और अधिकार एक होंगे। प्रतिबन्ध या मर्यादाएँ दोनों पर समान स्तर की लागू होंगी।  प्राकृतिक सम्पदाओं पर सबका अधिकार होगा। पूँजी समाज की होगी। व्यक्ति अपनी आवश्यकतानुसार उसमें से प्राप्त करेंगे और सामर्थ्यनुसार काम करेंगे। न कोई धनपति होगा न निर्धन। मृतक उत्तराधिकार में केवल परिवार के असमर्थ सदस्य ही गुजारा प्राप्त कर सकेंगे। हट्टे-कट्टे और कमाऊ बेटे बाप के उपार्जन के दवेदार न बन सकेंगे, वह बचत राष्ट्र की सम्पदा होगी। इस प्रकार धनी और निर्धन के बीच का भेद समाप्त करने वाली समाजवादी व्यवस्था समस्त विश्व में लागू होगी। हरामखोरी करते रहने पर भी गुजछर्रे उड़ाने की सुविधा किसी को न मिलेगी। व्यापार सहकारी समितियों के हाथ में होगा। ममता केवल कुटुम्ब तक सीमित न रहेग, वरन वह मानव मात्र की परिधि लांघते हुए प्राणी मात्र तक विकसित होगी। अपना और दूसरों का दुःख-सुख एक-सा अनुभव होगा, तब न तो मांसाहार की छूट रहेगी ओर न पशु, पक्षियों के साथ निर्दयता बरतने की। ममता और आत्मीयता के बन्धनों में बँधे हुए सब लोग एक दूसरों को प्यार और सहयोग प्रदान करेंगे।

    शरीर, मन, वस्त्र, उपकरण सभी को स्वच्छ रखने की प्रवृत्ति बढ़ेगी। शुचिता का सर्वांगीण विकास होगा। गन्दगी को मानवता का कलंक माना जायेगा। न किसी का शरीर मैला-कुचेला रहेगा न वस्त्र। घरों को गन्दा गलीज न रहने दिया जायेगा। मनुष्य और पशुओं के मल-मूत्र को पूरी तरह खाद के लिए प्रयुक्त किया जायेगा। वस्तुएँ यथा स्थान, यथा क्रम और स्वच्छ रखने की आदत डाली जायेगी। मन में कोई छल-कपट दुर्भाव जैसी मलीनता न रखेगा।
    एकता, समता, ममता और शुचिता इन चार मूल भूत सिद्धान्तों के आधार पर विभिन्न आचार संहिताएँ, रीति, नीति, विधि-व्यवस्थाएँ, मर्यादाएँ और परम्परायें बनाई जा सकती हैं। भौगोलिक अन्य परिस्थियों को देखते हुए उनमें हेर-फेर भी यत्किंचित होते रह सकते हैं, पर आधार उनके यही रहेंगे।
    यह ध्यान रखने की बात है कि संसार की दो ही प्र्रमुख शक्तियाँ हैं- एक राजतंत्र, दूसरी धर्मतंत्र। राजसत्ता में भौतिक परिस्थितियों को प्रभावित करने की क्षमता है और धर्मसत्ता में अन्तःचेतना को। दोनों को कदम से कदम मिलाकर एक दूसरे की पूरक होकर रहना होगा। यह नारा थोथा है कि राजनीति से धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं। सच्ची बात यह है कि एक के बिना दूसरा अपूर्ण है। कर्त्तव्यनिष्ठ और सदाचारी नागरिकों के बिना कोई राज्य समर्थ समुन्नत नहीं हो सकता और राज्यसत्ता यदि धर्मसत्ता को उखाड़ने की ठान ले तो फिर उसके लिए कुछ अधिक करना कठिन है। राम राज्य तभी सफल रह सका, जब उस पर वशिष्ठ का नियन्त्रण था। चन्द्रगुप्त की शासन गरिमा का श्रेय चाणक्य के मार्ग-दर्शन को ही दिया जा सकता है। प्राचीन काल की यह परम्परा आगे भी चलेगी। धर्मसत्ता का स्थान पहला है, इसलिए राजसत्ता केा उसका समर्थक और सहायक ही बनकर रहना चाहिए।

    धर्मों के वर्तमान स्वरूप, प्रभाव और कलेवर की सहायता लेकर हमें वर्तमान जन-मानस को परिष्कृत करते चलना चाहिए। जमेंं हुए ढाँचे को न तो उखाड़ने की जरूरत है और न उसकी उपेक्षा करने की चूँकि आधार आगे भी धर्म ही रहना है, इसलिए उपयुक्त यही है कि युग-निर्माण आन्दोलन की सृजन सेना धर्म तंत्र में प्रवेश करे और परम्परागत श्रद्धा को उन मूल-भूत आदर्शों को कार्यान्वित करने में प्रयुक्त करे जिनके लिए कि तत्वदर्शियों ने यह धर्म कलेवर खड़ा किया था। इस प्रकार धर्म तंत्र के साधनों को सृजनात्मक प्रयोजन में लगाकर उसे लोक-श्रद्धा का विषय बनाये रखा जा सकेगा।
    नव निर्माण की पृष्ठभूमि धर्म मूलक ‘ज्ञान’ होगा। इसी के लिए ज्ञान तंत्र  खड़ा किया गया है और ज्ञान यज्ञ का महान् अभियान चलाया गया। संकल्प साधनों से भी वह जिस दु्रत गति के साथ बढ़ता चला जा रहा है उसे देखते हुए पूर्व से सूर्योदय होने के और उसका प्रकाश सर्वत्र फैलने की बात पर सहज ही विश्वास किया जा सकता है।

वाङ्मय २७-७.३/४
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