अमर वाणी -2

सतयुग की वापसी

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     दृश्य और प्रत्यक्ष परिस्थितियों का विश्लेषण करने वालों और निष्कर्ष निकालने वालों की तुलना में हमारे आभास इन दिनों सर्वथा भिन्न हैं। लगता है, एक-एक करके सभी संकट टल जायेंगे। अणु-युद्ध नहीं होगा और यह पृथ्वी भी वैसी बनी रहेगी, जैसी अब है। प्रदूषण को मनुष्य न सम्भाल सकेगा तो अन्तरिक्षीय प्रवाह उसका परिशोधन करेंगे। जनसंख्या जिस तेजी से अभी बढ़ रही है, एक दशाब्दी में वह दौड़ आधी घट जायेगी। रेगिस्तानों और ऊसरों को उपजाऊ बनाया जायेगा और नदियों को समुद्र तक पहुँचने से पूर्व इस प्रकार बाँध लिया जायेगा कि सिंचाई तथा अन्य प्रयोजनों के लिए पानी की कमी न पड़े।

    प्रजातन्त्र के नाम पर चलने वाली धाँधली में कटौती होगी। वोट उपयुक्त व्यक्ति ही दे सकेंगे। अफसरों के स्थान पर पंचायतें शासन सम्भालेंगी और जन सहयोग से ऐसे प्रयास चल पड़ेंगे जिनकी कि इन दिनों सरकार पर ही निर्भरता रहती है। नया नेतृत्व उभरेगा। इन दिनों धर्म क्षेत्र के और राजनीति के लोग ही समाज का नेतृत्व करते हैं। अगले दिनों मनीषियों की एक नई बिरादरी का उदय होगा जो देश, जाति, वर्ग आदि के नाम पर विभाजित वर्तमान समुदाय को विश्व परिवार बनाकर रहने के लिए सहमत करेंगे, तब विग्रह नहीं, हर किसी पर सृजन और सहकार सवार होगा।

    विश्व परिवार की भावना दिन-दिन जोर पकड़ेगी और एक दिन वह समय आयेगा जब विश्व राष्ट्र, आबद्ध विश्व नागरिक बिना आपस में टकराये प्रेम पूर्वक रहेंगे। मिल-जुलकर आगे बढ़ेंगे और वह परिस्थितियाँ उत्पन्न करेंगे जिसे पुरातन  सतयुग के समतुल्य कहा जा
सके।                                                                 -वाङ्मय २७-७/५

    इसके लिए नव सृजन का उत्साह उभरेगा। नये लोग नये परिवेश में आगे आयेंगे। ऐसे लोग जिनकी पिछले दिनों कोई चर्चा तक न थी, वे इस तत्परता से बागडोर सम्भालेंगे मानो वे इसी प्रयोजन के लिए कहीं ऊपर आसमान से उतरे हों या धरती फोड़ कर निकले हों।
    यह हमारे स्वप्नों का संसार है। इनके पीछे कल्पनाएँ अटकलें काम नहीं कर रही हैं, वरन् अदृश्य जगत में चल रही हलचलों को देखकर इस प्रकार का आभास मिलता है जिसे हम सत्य के अधिकतम निकट देख रहे हैं।

    मरणोन्मुख प्रवाह में इस प्रकार आमूल-चूल परिवर्तन होने के पीछे उन दैवी शक्तियों का हाथ है जो दृश्यमान न होते हुए भी वातावरण बदल रही हैं और लोक चिन्तन में अध्यात्म तत्वों का समावेश कर रही हैं। महान् कार्यों के लिए किसी जादुई कलेवर वाले लोग नहीं होते। अपने जैसे ही हाड़-मांस के लोग जब दृष्टिकोण, रुझान एवं पराक्रम की दिशा बदलते हैं तो वे कुछ से कुछ बन जाते हैं। 

                                                                               -वाङ्मय २७-७/६

    भारत का भविष्य उज्ज्वल है। उत्साह और उल्लासवर्धक समय आने में थोड़ी देर है, पर यह सुनिश्चित है कि भारत की गरिमा बढ़ेगी ही नहीं, स्थिर भी रहेगी। जबकि इन दिनों आसमान पर अन्धड़ की तरह छाये हुए लोग या देश-धूलि चाटते दृष्टिगोचर होंगे। समय की प्रतिकूलता उनके दर्प को चुुर-चूर कर देगी, पर भारत इन कटीली झाड़ियों के बीच भी गिरेगा नहीं, उठता ही रहेगा। भले ही उस उठाव की गति धीमी रहे।

                                                                                     -वाङ्मय २७-७/७
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