बलि वैश्व

यज्ञीय संस्कार जरूरी है

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हमारे शास्त्र यह बताते हैं कि यज्ञ से वातावरण और अन्नादि सुसंस्कारी और प्राणवान् बनते हैं।   
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टवा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोस्त्विष्टकामधुक्।। (गीता ३/१०)
    प्रजापति ने यज्ञ और प्रजा का सृजन एक साथ किया है। प्रजा यज्ञ का आराधन करे तो उनकी सभी आवश्यकताएँ यज्ञ भगवान् पूर्ण करेंगे।
    हमारे सभी के मन में यह प्रश्र स्वाभाविक है कि यज्ञ से क्या लाभ होगा? योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवद् गीता जवाब देते हैं.........
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङक्तेस्तेन एव सः।।
                                                    (गीता ३/१२)
        यज्ञ से प्रसन्न देवता आपको  इष्टभोग  (योग्य भोग) प्रदान करेंगे। इस दैवी अनुदानों को अगर आप परमात्मा को बिना समर्पित किये भोगते हैं, तो आप चोर हैं। ऋग्वेद में कहा गया है ‘‘केवलाघो भवति केवलादी’’ अर्थात् अकेला खाने वाला पापी बनता है।
    यदि हम यज्ञ के ज्ञान विज्ञान का समय के अनुरूप उपयोग करें तो हमें भी गुण और संस्कार सम्पन्न अन्न, फल, सब्जियाँ प्राप्त हो सकती हैं।
    महर्षि चरक च्यवनप्राश खाकर युवा हो गये थे। आजकल च्यवनप्राश में वह प्रभाव नहीं रह गया क्योंकि आज के वायुमण्डल में जो आँवले पैदा होते हैं उसमें वह गुण, सत्व और शक्ति नहीं है, जो सतयुग में थी। इस वजह से परिणाम शंकास्पद ही नहीं परन्तु निराशाजनक है। श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद् गीता में रास्ता बताते हैं कि पुनः ऐसा अन्न और औषधि कैसे पैदा की जाय?
अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्याद् अन्न संभवः।
यज्ञाद् भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्म समुद्भवः।।
                                                     (गीता ३/१४)
    अन्न से प्रजा की उत्पत्ति और पर्जन्य वर्षा से अन्न पैदा होता है। यज्ञ से पर्जन्य वर्षा होती है, मैं स्वयं परब्रह्म यज्ञ में निवास करता हूँ। यज्ञ चक्र चलते रहने से जगत् का कल्याण होता है। पर्जन्य से सात्विक, शक्तिशाली और संस्कारी अन्न पैदा होता है। अन्न में यज्ञीय संस्कार होते हैं। अन्न की न्यूनता नहीं रहती है। जहाँ अन्न संस्कारी है वहाँ धन, बल और विद्या से संपन्न जीवन होता है।
    यज्ञ और सूर्य प्रत्यक्ष देवता हैं। अग्रि सूर्यांश है। अग्रि की उपासना सूर्योपासना है। ‘‘अयज्ञियो हतवर्षा भवति’’ यज्ञ नहीं करने वाले का तेज नष्ट हो जाता है।
    ‘‘सुन्वताम् ऋणं न’’ (वॉङ्मय ३/१२०)वेद भगवान् की प्रतिज्ञा है कि यज्ञ करने वाले को (ऋणी) कर्जदार न रहने दूँगा। यही भगवान् अपनी समर्पित आहुति ग्रहण करके हमें प्रकाश, स्वास्थ्य, ज्ञान और शक्ति देते हैं।
    उक्त प्रमाणों से यह बात सिद्ध होती है कि यज्ञ से अन्न तथा घर-परिवार का वातावरण सुसंस्कारी गुणवान बनता है।
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