गायत्री अनुष्ठान का विज्ञान और विधान

साधना के संरक्षण- परिमार्जन की आवश्यकता

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आत्मिक प्रगति आत्मानुशासन से आरम्भ होती है। कई व्यक्ति उपासना के लिए बने हुए विधि- विधानों पर नियमोपनियमों पर ध्यान नहीं देते और मनमौजी स्वेच्छाचार बरतते हैं ।। ऐसा करने से उसके सत्परिणाम संदिग्ध रहते हैं। यह ठीक है कि प्राचीन काल की कई व्यवस्थायें इन दिनों असामयिक हो गई हैं और उनमें फेर बदल किये बिना कोई चारा नहीं। किन्तु वह परिवर्तन भी सुनिश्चित आधार एवं सिद्धान्त के अनुरूप होना चाहिए। जिस परिवर्तन को मान्यता दे दी जाय फिर उसे तो उसी कड़ाई के साथ पालन करना चाहिए जैसा कि परम्परावादियों का प्राचीन प्रचलनों पर जोर रहता है। यह अनुशासन एवं मर्यादा पालन ही अध्यात्म की भाषा में विश्वास कहा जाता है और उसका महत्व श्रद्धा के समतुल्य ही माना जाता है। कहा गया है कि श्रद्धा विश्वास के अभाव में धर्मानुष्ठान का महत्त्व उतना ही स्वल्प रह जाता है जितना कि काम में हल्का- सा शारीरिक श्रम किया जाता है। शक्ति का स्रोत तो श्रद्धा एवं विश्वास ही है ।। इन्हीं दोनों को रामायणकार ने पार्वती और शिव की उपमा देते हुए कहा है कि इन दोनों के सहयोग से ही अन्तरात्मा में विराजमान परमेश्वर का दर्शन सम्भव हो सकता है।

श्रद्धा का सहचर है- विश्वास। इसे निष्ठा भी कहते हैं। किसी तथ्य को स्वीकार करने से पूर्व उस पर परिपूर्ण विचार कर लिया जाये ।। तर्क, प्रमाण, परामर्श, परीक्षण आदि के आधार पर तथ्य का पता लगा लिया जाय और समुचित मन्थन के बाद किसी निष्कर्ष पर पहुँचा जाय। इनमें देर लगे तो लगने देनी चाहिए। उतावली में इतना अधूरा निष्कर्ष न अपना लिया जाय जिससे किसी के तनिक से बहाकावे मात्र से बदलने की बात सोची जाय। कई व्यक्ति विधि- विधानों के बारे में पूछते फिरते हैं। फिर दूसरे का तीसरे से और तीसरे का चौथे से समाधान पूछते हैं। भारतीय धर्म का दुर्भाग्य ही है कि इसमें पग- पग पर मतभेदों के पहाड़ खड़े पाये जा सकते हैं। यदि मतभेदों और कुशंकाओं के जंजाल में उलझे रहा जाय तो उसका परिणाम मतिभ्रम- अश्रद्धा एवं आशंका से मनःक्षेत्र भर जाने के अतिरिक्त और कुछ भी न होगा। ऐसी मनःस्थिति में किये गये धर्मानुष्ठानों का परिणाम नहीं के बराबर ही होता है। श्रद्धा विश्वास का प्राण ही निकल गया तो फिर मात्र कर्मकाण्ड की लाश लादे फिरने से कोई बड़ा प्रयोजन सिद्ध न हो सकेगा ।।

विश्वास का तात्पर्य है जिस तथ्य को मान्यता देना उस पर दृढ़ता के साथ आरूढ़ रहना ।। इस दृढ़ता का परिचय उपासनात्मक विधि- विधानों की जो मर्यादा निश्चित कर ली गई है उसे बिना आलस उपेक्षा बरते पूरी तत्परता के साथ अपनाये रहने में मिलता है। विधि- विधानों के पालन करने के लिए शास्त्रों में बहुत जोर दिया गया है और उसकी उपेक्षा करने पर साधना के निष्फल जाने अथवा हानि होने- निराशा हाथ लगने का भय दिखाया गया है। उसका मूल उद्देश्य इतना ही है कि विधानों के पालन करने में दृढ़ता की नीति अपनाई जाय। हानि होने का भय दिखाने में इतना ही तथ्य है कि अभीष्ट सत्परिणाम नहीं मिलता ।। अन्यथा सत्प्रयोजन में कोई त्रुटि रह जाने पर भी अनर्थ की आशंका करने का तो कोई कारण है ही नहीं ।।

साधना मार्ग पर चलने वाले को अपनी स्थिति के अनुरूप विधि- व्यवस्था का निर्धारण आरम्भ में ही कर लेना चाहिए। जो निश्चित हो जाय उसमें आलस उपेक्षा बरतने की ढील- पोल न दिखाई जाय। दृढ़ता जायेगी तो आस्था में शिथिलता आने लगेगी। तत्परता मन्द पड़ जायेगी फलतः मिलने वाला उत्साह और प्रकाश भी धूमिल हो जायेगा ।।

दैनिक उपासना में समय, स्थान, संख्या एवं क्रम व्यवस्था का ध्यान रखना पड़ता है। उपासना के लिए जो समय निर्धारित हो उसकी पाबन्दी की जाय। जितनी संख्या में क्रम आदि कृत्य किया जाना है उसका घड़ी या माला के आधार पर निर्वाह किया जाय। पूजा कक्ष निर्धारित करने का उद्देश्य यह है कि उसी स्थान पर प्रतिदिन बैठा जाय। उपासना का जो क्रम बना लिया जाय उसी प्रकार उसे करते रहा जाय। इनमें उलट- पुलट करते रहने से अन्तर्मन को वैसा करते रहने की आदत नहीं पड़ती, आदत को ही संस्कार कहते हैं। समय, स्थान, संख्या, क्रम, व्यवस्था को बहुत समय तक एक ही तरह अपनाये रहने पर अचेतन मन उस ढांचे में ढल जाता है। यह ढलना ही शक्ति स्रोत है। साधना विज्ञान की सफलता का रहस्य अचेतन को अभीष्ट ढाँचे में ढाल देना उपयुक्त ढर्रे का अभ्यस्त बना देना ही है। इसके लिए उपयुक्त क्रमबद्धता को अपनाये रहना- विधान मर्यादाओं का पालन करते रहना आवश्यक माना गया है।

प्रतिबन्धों का पालन करने से दक्षता उत्पन्न होती और तीक्ष्णता आती है। इसलिए सामान्य उपासना क्रम में भी एक निष्कर्ष पर पहुँचने और अनुशासन स्थापित करने के लिए साधना गुरू को मार्गदर्शन के रूप में नियत करना होता है। अपने लिए विधि- विधान करते समय उनसे परामर्श कर लिया जाय और जो निर्धारित किया गया हो उस पर दृढ़ रहा जाय। फेर बदल करना पड़े तो वह भी अपनी मनमर्जी से नहीं वरन् मार्गदर्शक के परामर्श से ही किया जाय। इससे निश्चितता और निश्चिन्तता दोनों ही रहती है। इसके विपरीत मनमौजी विधान बनाते और बदलते रहने का कौतूहल साधक की उच्छृंखलता और स्वेच्छाचारिता का ही परिचय देगा। इस मार्ग को अपनाने में अहमन्यता को पोषण भले ही हो जाय उसका सत्परिणाम नहीं मिल सकेगा।

अनुष्ठान और सामान्य जप का अन्तर यही नहीं है कि सामान्य जप की तुलना में अनुष्ठान अधिक देर तक लगने वाला होता है वरन् यह है कि उसमें अपेक्षाकृत अधिक कड़े अनुशासन का पालन करना होता है। इस कड़ाई से असुविधा तो अवश्य होती है किन्तु इस आधार पर जो तितीक्षा बन पड़ती है, मन को मारने से जिस संकल्प शक्ति की अभिवृद्धि होती है, उससे सामान्य मन्त्र साधन की शक्ति भी कई गुनी बढ़ जाती है और उसका प्रतिफल आश्चर्यजनक मात्रा में बढ़ा- चढ़ा कर होता है। इस दृढ़ता में प्रत्यक्ष ही ‘विश्वास’ की निष्ठा की प्रौढ़ता का परिचय मिलता है। जहां यह तत्व जितनी मात्रा में होते हैं वहां उसी अनुपात में उस परिश्रम का उत्साहवर्धक प्रतिफल भी परिलक्षित होता है।


अनुष्ठानों की एक आवश्यकता यह है कि उसका () मार्गदर्शन () संरक्षण एवं () परिमार्जन करने के लिए किसी उपयुक्त व्यक्ति को नियुक्त करना पड़ता है। विशेष साधनाओं में इन तीनों का ही समुचित प्रबन्ध करना पड़ता है। मार्गदर्शन का तात्पर्य है व्यक्ति विशेष की मनःस्थिति और परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए उपासना के सामान्य विधि- विधान में जो हेर फेर करना आवश्यक हो उसका निर्धारण करना। बीच- बीच में जो व्यवधान आवें, अड़चनें पड़ें, उनका समाधान बताना, जैसी बात मार्गदर्शन के अन्तर्गत आती है। संरक्षण इसलिए आवश्यक है कि अनुष्ठानों से उत्पन्न शक्ति असुरता को दुर्बल बनाती है, उसके वर्चस्व को नष्ट करती है, इसलिए वे उलटकर ऐसे स्थल पर आक्रमण करते हैं जहाँ से कि उन्हें अपने लिए खतरा दीखता है। विश्वामित्र के यज्ञ में ताड़का सुबाहु, मारीच आदि असुरों के हमले होते थे, उनसे रक्षा करने के लिए राम और लक्ष्मण को प्रहरी बनाया गया था। इसी प्रकार प्राचीन काल में अन्यान्य छोटे- बड़े यज्ञों की रक्षा के लिए संरक्षक नियुक्त करने की परम्परा रही है। यज्ञ के पाँच काष्ठ पात्रों में एक ‘स्फय’ भी होता है। यह खङ् है इसमें संरक्षण एवं सुरक्षा की आवश्यकता का संकेत है। अनुष्ठान भी जप यज्ञ की गणना में आता है उसके लिए भी संरक्षण की आवश्यकता पड़ती है। यह कार्य लगभग उसी स्तर का व्यक्ति कर सकता है जैसा कि मार्गदर्शन के लिए अपने विषय का पारंगत तथा अनुभवी का होना आवश्यक है।

क्रिया- कृत्यों में गलतियां रहती हैं, उनका परिशोधन परिमार्जन आवश्यक होता है। बही खातों की जाँच पड़ताल आडीटरों द्वारा कराई जाती है और जहाँ जो लूज होती है उसका परिशोधन किया जाता है। यह कार्य अन्य विषयों के लिए भी आवश्यक है। पुरश्चरणों के अन्त में तर्पण और मार्जन का विधान है। मार्जन का तात्पर्य शुद्धिकरण- परिमार्जन होता है। इसमें अशुद्धियों को सुधारने का भाव है। यदि साधक की स्थिति ऐसी हो कि वह अपनी गलतियों को स्वयं समझ और सुधार सके तब तो उसे स्वयं ही कार्य सम्पन्न कर लेना चाहिए। अन्यथा वह कार्य दूसरे व्यक्ति से कराना चाहिए जो गलती पकड़ने के अतिरिक्त उसे सुधारने की क्षमता से भी सम्पन्न हो। बहीखाता लिखने वालों की योग्यता और ईमानदारी असंदिग्ध हो तो भी परम्परा यही है कि जाँच पड़ताल दूसरों से कराई जाय और सुधार भी किसी बाहरी व्यक्ति के निरीक्षण में ही सम्पन्न होता है। यह बात अनुष्ठान साधना में रही हुई त्रुटियों के सम्बन्ध में भी है। साधारणतया अपनी गलती का आप पता भी नहीं चलता। अपनी आँख से, अपनी पुतली से उत्पन्न हुई खराबी दीख नहीं पड़ती, उसे दूसरे ही देखते और सुधारते हैं। चिकित्सक दूसरों की चिकित्सा तो करते हैं पर अपनी बीमारी का सही निदान तो करने के लिए दूसरे चिकित्सक की सहायता लेते हैं। इसी प्रकार अनुष्ठान कर्ता को भी मार्गदर्शन के लिए किन्हीं पुस्तकों के सहारे सब कुछ निर्णय कर लेने का साहस नहीं होता। इसी प्रकार साधना और संरक्षण के दो मार्चों पर लड़ाई भी ठीक तरह नहीं लड़ी जाती ।। अपनी गलतियाँ ढूंढ़ पाना और अपने आप उन्हें सुधार लेना सम्पन्न करने से भी अधिक जटिल है। ऐसी दशा में यह तीनों ही काम अलग- अलग व्यक्तियों को सौंपने की अपेक्षा एक ही ऐसे व्यक्ति को सौंपने पड़ते हैं, जो योग्यता और सदाशयता का धनी हो, इस प्रकार परमार्थ करने के लिए संवेदनशील हो, साथ ही अपना उत्तरदायित्व प्राण- पण से निर्वाह कर सकने के लिए आवश्यक आत्मबल से तपोधन से सम्पन्न भी हो।

साधना मात्र शास्त्र के विशिष्ट साधनाओं के सन्दर्भ में यन्त्रों के कीलित होने का उल्लेख है। सामान्यतया दैनिक जप साधन में कोई मन्त्र कीलित नहीं है। उसका जप, पाठ, हर कोई सहज सरल रीति से करता रह सकता है। किन्तु जब किन्हीं मन्त्रों की उच्चस्तरीय साधना की जाती है तो कहा जाता है कि वह कीलित है। उसका उत्कीलन करने पर ही साधना की सिद्धि होगी ।। गायत्री मन्त्र के सम्बन्ध में उसे शाप लगने का उल्लेख है और कहा गया है कि उसका शाप मोचन होना चाहिए। कीलित या शापित होना एक ही बात है।

दुर्गा सप्तशती के सामान्य पाठ पर कोई बंधन प्रतिबन्ध नहीं है, पर यदि शतचण्डी, सहस्रचण्डी आदि का अनुष्ठान करना हो तो उसके पूर्व कवच, कीलक और अर्गल का विधान सम्पन्न करना होता है। कवच उस विशिष्ट अवतरण को कहते हैं जिसे योद्धा लोग रण क्षेत्र में जाते समय अपने शरीर पर सुरक्षा के लिए पहनते हैं। कीलक, प्रतिबन्धों को कहते हैं। ताले में ताली डालकर खोलना उत्कीलन कहलाता है। भूल- भूलैयों से बचकर अभीष्ट लक्ष्य तक पहुँचने के लिए अवरोधों का पार करना उत्कीलन है। संक्षेप में उसे उपयुक्त मार्गदर्शन कस सकते हैं ।। अर्गल कहते हैं जंजीरों की शृंखला को। इसे तारतम्य एवं गतिशीलता कह सकते हैं। अर्गला हटाने का तात्पर्य परिमार्जन कहा जा सकता है।

गायत्री उपासना में भी यही तीन अवरोध शस्त्र कहे जाते हैं। उल्लेख मिलता है कि गायत्री को तीन शाप लगे हुये हैं- एक ब्रह्मा का, दूसरा वशिष्ठ का, तीसरा विश्वामित्र का ।। इन तीनों का शाप विमोचन करने पर गायत्री साधना सफल होती है अन्यथा निष्फल चली जाती है।

मोटे तौर पर यह बात उपहासास्पद लगती है कि विश्वमाता, वेदमाता, ब्रह्मशक्ति को कोई क्यों शाप देगा और किसी के शाप से उस पर क्या प्रभाव पड़ेगा? सर्व समर्थ माता पर इस प्रकार कोई क्यों तो आक्रमण करेगा और क्यों उस आक्रमण को प्रभावी होने का अवसर मिलेगा ?? ब्रह्मा गायत्री के पति माने जाते हैं। वशिष्ठ और विश्वामित्र उसके परम आराधक प्रवीण पारंगत थे। उन्हें ऋषि का पद गायत्री के अनुग्रह से ही मिला था। नन्दिनी को तो पृथ्वी पर आई कामधेनु की आत्मा ही कहा जाता है। गायत्री कामधेनु ही है। वशिष्ठ को इस नन्दिनी कामधेनु की कृपा से ही ब्रह्मर्षि पद मिला था। विश्वामित्र गायत्री विनियोग में उसके पारंगत ऋषि के रूप में स्मरण किये जाते हैं। ऐसी दशा में ब्रह्मा का, वशिष्ठ का और विश्वामित्र का गायत्री को अकारण शाप देना सर्वथा अविश्वस्त लगता है। आशंका होती है कि मत, मतान्तर फैलाने वाले लोगों ने गायत्री की सर्वोपरि गरिमा के प्रति अविश्वास उत्पन्न करने और उसके स्थान पर अपनी- अपनी मन गढ़न्त साम्प्रदायिक साधनायें चलाने के लिए यह कुचक्र रचा और भ्रम फैलाया होगा ।।

किन्तु गम्भीरता से विचार करने पर इस शाप पहली के पीछे कुछ दूसरा ही रहस्य छिपा प्रतीत होता है। कवच कीलक अर्गल के रूप में दुर्गा सप्तशती में जिन प्रतिबन्धों का संकेत है उन्हीं की गायत्री उपासना में शाप मोचन के नाम से दूसरे शब्दों में चर्चा कर दी गई है। इसका तात्पर्य यही है कि उच्चस्तरीय साधना में आवश्यक सतर्कता और संरक्षण का प्रबन्ध रहना चाहिए हाथ से चलने वाली आटे की चक्की को तो घर की बुढ़िया भी चला सकती है पर बिजली से चलने वाली चक्की को चलाने के लिए आवश्यक जानकारी और उपयुक्त व्यवस्था चाहिए। अन्यथा बिजली का करेण्ट पुली पर चढ़ा हुआ पट्टा कुछ भी मुसीबत पैदा कर सकते हैं। अनुष्ठानों की साधना सामान्य जप की तुलना में कहीं अधिक शक्तिशाली एवं उच्चस्तरीय मानी जाती है। इसलिए उसे ठीक तरह सम्पन्न करने के लिए उपयुक्त मार्गदर्शन, संरक्षण एवं परिमार्जन का प्रतिबन्ध करना पड़ता है। इन दिनों का उत्तदायित्व संभाल सकने वाले सहायक यदि मिल जाय और वह अपना उठाया हुआ उत्तरदायित्व ठीक तरह संभाल सके तो निश्चय ही अनुष्ठानकर्ता के लिए सफलता का मार्ग बहुत सरल हो जाता है।

गायत्री को गुरूमन्त्र कहा गया है। उसकी सफलता के लिए गुरू का सहयोग आवश्यक माना गया है और कहा गया है कि इसका प्रबन्ध न हो सकने पर सफलता संदिग्ध ही बनी रहेगी। यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या गुरू का उत्तरदायित्व कोई भी व्यक्ति उठा सकता है। क्या चेलों को मुड़कर पेट भरने वाले तथा कथित गुरू भी इस कार्य को पूरा कर सकते हैं। उसके उत्तर ब्रह्मा- वशिष्ठ और विश्वामित्र के तीनों गुणों से सम्पन्न गुरू की आवश्यकता का संकेत तीन शापों के माध्यम से किया गया समझा जाना चाहिए। ब्रह्मा का अर्थ है- वेद ज्ञान में पारंगत। वशिष्ठ का अर्थ है ब्रह्म परायण, सदाचार सम्पन्न, विशिष्ट आत्मबल का धनी। विश्वामित्र का अर्थ है परम तपस्वी, विश्व कल्याण के क्रियाकलापों में निरन्तर संलग्न। इन तीनों विशेषताओं से जो सम्पन्न हो उसे गायत्री मन्त्र की गुरू दीक्षा देने और अनुष्ठान कर्ताओं का मार्गदर्शन, संरक्षण, परिमार्जन कर सकने के लिए समर्थ अधिकारी माना गया है। ऐसे गुरू का सहयोग जिसे मिल सके समझना चाहिए उसकी साधना का समुचित सत्परिणाम उत्पन्न होकर रहेगा।


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