गायत्री अनुष्ठान का विज्ञान और विधान

अनुष्ठान से संकल्प शक्ति का संवर्धन

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संकल्पित गायत्री साधना का तीन श्रेणियों में सबसे सरल २४ हजार जप का नौ दिन में सम्पन्न होने वाला अनुष्ठान है। लम्बे समय तक व्रत पालन करते रहने के लिए सुदृढ़ मनोबल चाहिए। देखा गया है कि बाल उत्साह क्षणिक होता है। लम्बे- चौड़े लाभ तुर्त- फुर्त मिलने की कल्पना से अबोध मस्तिष्कों को उत्साह भी आशा से अधिक आता है पर वह देर तक ठहर नहीं सकता। महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करने में धैर्य रखना पड़ता है, कितने व्यवधान आते हैं और उनसे किस प्रकार जूझना पड़ता है इसका उन्हें ज्ञान अनुभव होता नहीं। सब कुछ सरल ही सरल होने की कल्पना रहती है पर जब वस्तु स्थिति सामने आती है और महत्त्वपूर्ण उपलब्धि के लिए आवश्यक मूल्य चुकाने का तथ्य सामने आता है तो फिर आरम्भिक जोश पानी के बबूले की तरह ठण्डा पड़ जाता है। 
 
बाधाओं में सबसे बड़ी बाधा अपने मन की होती है वह चंचलता के लिए प्रसिद्ध है। नवीनता के कौतूहल से हर घड़ी उचकता- मचकता रहता है। उसके लिए अनुष्ठान भी एक कौतूहल ही है। उसका रसास्वादन लेने की जो ललक आरम्भ में किसी बढ़ी- चढ़ी आशा को लेकर उठी थी वह देर तक ठहरती नहीं। वरन् एक डाल पर देर तक नहीं बैठ सकता भले ही उसे वहां कितने ही सुविधा क्यों न हो। अनगढ़ मन देर तक किसी काम में रूचि नहीं लेता जिसमें वासना तृष्णा अहंता की पूर्ति जैसा प्रत्यक्ष लाभ न हो। परोक्ष लाभ पर तो विवेकशील सुसंस्कृत मन ही ठहरता है। उसी के लिए यह संभव होता है कि दूरवर्ती सत्परिणामों का विचार करके आज की कठिनाइयों से जूझने को विवेकशीलों जैसी दृढ़ता और साहसिकता का परिचय दे सकें। 
 
बच्चों को हलके- फुलके अभ्यास कराये जाते हैं। नौ दिन तक ढाई घण्टे नित्य उपासना करने की संकल्पित साधना बहुत कठिन नहीं पड़ती। आरम्भ में करने का उत्साह रहता है और चार- पाँच दिन बाद ही अन्त भी निकट दीखने लगता है। आरम्भ का उत्साह जब तक ठण्डा होने को होता है तब तक पूर्णता की घड़ी निकट होने से धैर्य बंध जाता है। इस प्रकार किसी तरह वह छोटी अवधि आसानी से पूर्ण हो जाती है। ४० दिन का सवा लाख और एक वर्ष का चौबीस लाख का जप पूरा करने के लिए अधिक दृढ़ता और परिपक्वता चाहिए। उसके अभाव में कुछ ही समय में ऊब आने लगती है। जिसके कारण या तो वह संकल्प शक्ति किसी तनिक से बहाने की आड़ में टूट ही जाता है या फिर उपेक्षा पूर्वक किसी तरह चिन्हपूजा करके काम चलाना पड़ता है ।। इस स्थिति से बचने की दृष्ट से यही उत्तम है कि छोटे संकल्प लिए जायें। आरम्भिक साधकों के कच्चे उत्साह को ध्यान में रखते हुए २४ हजार जप का अनुष्ठान ही ठीक पड़ता है। 
 
लम्बे अनुष्ठानों में अधिक परिपक्व धैर्य होता है इसलिए उनकी ऊर्जा भी अधिक होती है। यह निश्चित है। अन्यथा कोई सवा लक्ष और चौबीस लक्ष का संकल्प हीं क्यों लेगा? लम्बे समय तक लगातार दृढ़ता पूर्व की गई तपश्चर्या अधिक प्रखर होती है तो यह उचित ही है। अधिक बड़ा साहस करने वाला लाभ भी बड़ा ही उठाता है किन्तु वैसा हर किसी के लिए सुलभ नहीं। सामान्यतया यही नियम ठीक है कि मनोभूमि में जितनी दृढ़ता हो उतना ही बड़ा संकल्प लिया जाय। सवा लक्ष करने की इच्छा हो तो चौबीस हजार के स्थान पर पच्चीस हजार जप के पाँच अनुष्ठान कर लेने चाहिए इसमें ४५ दिन लगते हैं। यदि संख्या कुछ बढ़ा ली जाय २७ माला के स्थान पर ३० कर ली जाय तो आठ- आठ दिन के पाँच अनुष्ठान चालीस दिन में भी पूरे हो सकते हैं। इसी प्रकार चौबीस लक्ष का पूर्ण अनुष्ठान करना हो तो २४ हजार के सौ खण्डों में उसे पूरा किया जा सकता है। इस प्रकार करने में प्रायः दो वर्ष लगते हैं। एक वर्ष में ६६ मालायें प्रतिदिन करनी पड़ती हैं। इसमें प्रायः छैः घण्टा समय चाहिए। इतना तो कोई निवृत्त निश्चिन्त व्यक्ति ही लगा सकता है। काम- काजी मनुष्य के लिए सबेरे शाम मिलकर तीन घण्टे नित्य निकल सकें तो बहुत हैं। इस प्रकार दो वर्ष में २४ हजार के १०० अनुष्ठान पूरे हो सकते है और उनका योग पूर्ण अनुष्ठान कहा जा सकता है। 
 
जिन्हें लम्बे समय के बड़े अनुष्ठान करने की इच्छा हो उन्हें हम यही परामर्श देते रहे हैं कि वह उसे खण्ड- खण्ड करके पूर्ण करें। इसमें कई सुविधाएँ रहती हैं। एक तो यह कि कभी कोई व्यवधान आ जाय तो उतने अनुष्ठान पूरे करके कुछ समय के लिए वह शृंखला रोकी जा सकती है और पीछे सुविधानुसार फिर कभी उसे उसी गणना से आरम्भ किया जा सकता है जहाँ से कि उसे छोड़ा गया था। 
 
तपश्चर्या में प्रधान शक्ति ब्रह्मचर्य की ही होती है। इसके बाद उपवास है। उपवास में न्यूनतम यह है कि सदाचारी स्वजनों के हाथ का ही बना हुआ सात्विक आहार हो। बाजार का, दावतों का स्वाद प्रधान गरिष्ठ भोजन नहीं चलता। इस प्रकार की गड़बड़ी से भी उसे खंडित माना जाता है। छोटे अनुष्ठान में यह सुविधा है कि इच्छा से या विवशता से कोई अनुष्ठान टूटा तो एक टुकड़ा ही बर्बाद हुआ। शेष तो बचा रहा। लम्बे संकल्प में तो वह पूरा ही चला जायेगा। इसलिए आरम्भ में छोटे- छोटे खण्डों में इस अनुष्ठान तपश्चर्या का सिलसिला चलना चाहिए और जब अधिक दृढ़ता विकसित हो जाया तो फिर लम्बे संकल्प लेने में भी हर्ज नहीं है। अधिक साहसिकता रहने से अधिक ऊर्जा उत्पन्न होना और अधिक लाभ मिलना तो स्पष्ट ही है। 
 
जो लोग नौ दिन तक भी नहीं कर सकते इतनी देर नहीं बैठ सकते, उतने नियम भी निभा नहीं सकते हैं उनके लिए और भी छोटी व्यवस्थायें मौजूद हैं इनमें सरलता अधिक है इसलिए उसी अनुपात से उनका प्रतिफल भी कम है। उतने पर भी जो कुछ भी नहीं कर सकते उनके लिए कुछ करना भी उत्तम है। धीरे- धीरे साहस और अभ्यास बढ़ाने का सिलसिला चल पड़े तो उससे भी क्रमिक अनुभव बढ़ता है। अधिक सरलता की श्रृंखलायें कुछ संकल्पित साधनायें निम्नलिखित आती हैं-   
१. पंचाक्षरी गायत्री का अनुष्ठान ।। ॐ भूर्भुवः स्वः यह पंचाक्षरी गाायत्री है। जो पूर्ण मन्त्र शुद्ध उच्चारण नही कर सकते उन बच्चों एवं अशिक्षितों के लिए यह ठीक है। इसकी २७ मालायें प्रायः एक घण्टे में पूरी हो जाती है ।। समय बढ़ाना हो तो के स्थान पर कम दिन में भी उसकी पूर्ति हो सकती है। 
 
२. गायत्री चालीसा पाठ। प्रतिदिन १२ पाठ करने से दिन में १०८ पाठ हो जाते हैं ।। इसमें भी प्रायः एक घण्टा ही नित्य लगाना पड़ता है। 

३. मन्त्र लेखन। नौ दिन में २४०० गायत्री मंत्र लिखने में २७० मन्त्र नित्य लिखने पड़ते हैं। इसमें प्रायः दो घण्टे लग जाते हैं ।। इसे रात्रि में भी लिखा जा सकता है और वाणी से उच्चारण न होने के कारण स्नान का भी बन्धन नहीं है। 
 
अनुष्ठान में न्यूनतम एक घण्टों समय की मर्यादा है। एक घण्टा से कम की साधना नित्य कर्म में गिनी जाती है। वह मानसिक शुद्धता का दैनिक प्रयोजन पूरा करती है। अवशिष्ट शक्ति उत्पादन के लिए एक घण्टे से अधिक का समय लगाने पर ही आवश्यक ऊर्जा उत्पन्न होती है। छैः घण्टे अधिकतम इसलिए माने गये हैं कि उतने में आध्यात्मिक श्रम की चरम सीमा पूरी हो जाती है। शारीरिक श्रम घण्टे मानसिक श्रम घण्टे और आध्यात्मिक श्रम घण्टे बन पड़े तो उसे पूर्ण माना जायेगा। इससे अधिक भार उठाने पर अनुपयुक्त थकान चढ़ती है और श्रम करने की सामान्य क्षमता को आघात पहुँचता है। मध्यम चाल और सीमित दूरी तक नित्य चलते रहने पर बहुत दिनों तक यात्रा जारी रखी जा सकती है और लम्बी मंजिल पूरी हो सकती है। किन्तु यदि दौड़ लगाई जाय तो दो- चार दिन में ही टाँगें दुखने लगेंगी। सामान्य क्रम से चलते रहने पर जितना सफर हो सकता था वह भी न हो सकेगा। अति को सर्वत्र वर्जित किया गया है। अनुष्ठानों में अतिवादी उत्साह भर देने से मस्तिष्क में अनावश्यक गर्मी उत्पन्न होती है और सिर भारी या गरम रहने जैसी शिकायतें उत्पन्न हो जाती हैं। 
 
अधिक लाभ पाने के लिए अधिक जल्दी करने अधिक भार बढ़ाने की आवश्यकता नहीं है। श्रद्धा की मात्रा बढ़ा देना ही पर्याप्त है। अधिक मनोयोग और अधिक भावना रहने से ही आध्यात्मिक साधनाओं में प्रगति होती है। भावनात्मक पवित्रता और चारित्रिक उत्कृष्टता का खाद पानी पाकर उपासना की फसल तेजी से बढ़ती है। उसे अनावश्यक शारीरिक श्रम से लादने पर वह जल्दबाजी अभीष्ट परिणाम प्राप्त होने में और भी देरी लगा देती है। इस सन्दर्भ में उतावली बरतना असन्तुलन का परिचायक है। इसमें लाभ कम और हानि अधिक है। असन्तुलित मात्रा में घी खाने, दूध पीने, औषधि लेने, व्यायाम करने से लाभ के स्थान पर हानि ही होती है। यही बात उपासना अनुष्ठान के सम्बन्ध में भी है |

चैत्र एवं आश्विन की नवरात्रियों में २४ हजार का अनुष्ठान करने की परम्परा है। उसमें समय की घट- बढ़ी नहीं की जानी चाहिए। अन्य दिनों के अनुष्ठान में उपयुक्त मर्यादा को ध्यान में रखते हुये दिन, ४० दिन की उपासनाओं में समय की कमी की जा सकती है। पर वह आरम्भ करने से पूर्व ही निश्चय हो जानी चाहिए और उसका नियम यथा समय नियत संख्या में पूरा होते रहना चाहिए। ४० दिन का सवा लक्ष्य का अनुष्ठान जल्दी से जल्दी २० दिन में हो सकता है। इसमें ६६ माला प्रतिदिन करनी होती हैं जो जप की चरम सीमा है। इसी प्रकार चौबीस हजार को चार दिन में भी किया जा सकता है इससे कम में करने की बात नहीं सोचनी चाहिए। दैनिक क्रम बना रहे यह बात भी आरम्भ से पहले ही निश्चय कर लेनी चाहिए। प्रातः सायं देा खण्डों में साधना पूरी की जा सकती है।इसमें निश्चय रहना चाहिए कि प्रातः कितना और सायं कितना किया जायेगा। इसी प्रकार यह भी निश्चय किया जाय कि कितने बजे से कितने बजे तक प्रातः एवं सायं काल का जप चला करेगा। यह समय की नियमितता भी औषधि सेवन की तरह ध्यान रखने योग्य है। जो निर्धारण कर लिया जाय उसे अपने परिजनों- परिचितों के बीच घोषित भी कर देना चाहिए। इस प्रकटीकरण से उस कार्य को पूरा करना प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाता है और उसमें लोक लज्जा की बात को ध्यान में रखकर भी नियम पालन करना पड़ता है। संकल्प लेने में निश्चय को पूरा करने की जिम्मेदारी आती है। इसलिए प्रत्येक श्रेष्ठ कार्य के आरम्भ में संकल्प लेना आवश्यक माना गया है। उससे मन में उठने वाली ऊब और उपेक्षा पर नियन्त्रण करना सरल हो जाता है। छोटे- छोटे संकल्प पूरे करते चलने पर जो आत्म विश्वास बढ़ता है वह आगे चलकर महत्त्वपूर्ण महान कार्य सम्पन्न करने के लिए बहुत ही कारगर सिद्ध होता है। 
 
सामान्य नियम यह है कि अनुष्ठान या चालीस या ३६० दिनों में पूरा करके अगले दिन उसकी पूर्णाहुति का हवन किया जाये। किन्तु कई बार कारणवश जिस दिन जप पूरा होना है उसी दिन हवन पूर्णाहुति करने की व्यवस्था बना ली जाती है। ऐसा हो तो सकता है पर इससे उस दिन का जप पूरा करके हवन करने से समय की दृष्टि से विलम्ब हो जाता है। जो असुविधाजनक पड़ता है। यदि जप के अन्तिम दिन ही हवन करना है तो और अधिक सुविधाजनक यह रहेगा कि अन्तिम दिन के लिए कुछ कम रखा जाय और वह संख्या पहले दिनों में ही पूरा कर ली जाय। जैसे २४ हजार अनुष्ठान नौ दिन में पूरा करना है। हवन भी नौवें दिन ही किया जाना है ।। तो अन्तिम दिन के लिए २७ के स्थान पर ११ माला ही रखी जाय और १६ मालायें पिछले आठ दिन में दो- दो माला नित्य बढ़ाकर पूरी कर ली जाय ।। उसमें के स्थान पर २९ का नियम बनाना पड़ेगा। ऐसा तो हो सकता है पर यह उलट- पलट बीच में नहीं होनी चाहिए। इसका निश्चय आरम्भ में ही कर लेना चाहिए। उसी क्रम से सारी व्यवस्था आदि से अन्त तक चलनी चाहिए। अनिवार्य विवशता आ खड़ी हो तब तो बात दूसरी है अन्यथा यथा सम्भव क्रमबद्धता का ध्यान रखा ही जाना चाहिए। ब्रह्मचर्य, उपवास अपने शरीर की सेवा स्वयं करना, भूमि शयन, चमड़े की वस्तुओं का त्याग यह पांच नियम अनुष्ठान के हैं। इनमें से किसी की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।   
आरम्भ के दिन या उससे एक दिन पूर्व अनुष्ठान के साधन क्रम का संकल्प देवताओं की साक्षी में लेना चाहिए। इसी क्रम में () परिशोधन के पाँच कृत्य () देव पूजने () कलश पूजन () दीप पूजन () स्वस्ति वाचन () यज्ञोपवीत धारण () हाथ में कलावा बाँधना () चन्दन धारण () संकल्प धारण (१०)अभिसिंचन यह नौ कृत्य सम्पन्न किये जाते हैं। इन विधियों के मन्त्र विधान पुस्तकों में लिखे जाते हैं। वे याद न हों तो यह सभी अकेले गायत्री मन्त्र से हो सकते हैं। यदि संस्कृत भाषा न आती हो तो मातृ भाषा में भी संकल्प और घोषणा की जा सकती है कि इन नियमों का पालन करते हुए इतने दिन में संख्या का गायत्री अनुष्ठान पूरा करूँगा। 
 
संकल्पित साधनाओं में एक वर्ष में लाख जप पूरा करने की अभियान साधना भी है। उसमें साधारणतया ११ माला प्रतिदिन और रविवार या अन्य अवकाश के दिन २४ मालायें करनी होती हैं। यदि अवकाश के दिन अधिक न करनी हों तो लाख को ३६० दिनों में बराबर विभाजन करने में प्रायः १४ माला का हिसाब बन जाता है। वर्ष में लाख जप इसी क्रम से पूरा होता है ।। इसमें अपनी सुविधा का क्रम भी निर्धारित हो सकता है पर वह चलना नियमित रूप से चाहिए। वर्ष पूरा हो जाने पर उसकी पूर्णाहुति का हवन करा दिया जाय। इसमें एक हजार आहुति से कम न हों। हर महीने पर हर सप्ताह हवन का क्रम चलाने में सुविधा हो तो वह और भी उत्तम है। अभियान साधना में ब्रह्मचर्य उपवास, भूमि शयन आदि तपश्चर्या अनिवार्य तो नहीं है पर उनका जितना अधिक पालन निर्वाह हो सके उत्तम है।   
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