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तीन बन्ध

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मूलबन्ध, उड्डियान बन्ध, जालन्धर बन्ध, अश्विनी मुद्रा।

1- मूलबन्ध

मूलाधार प्रदेश (गुदा व जननेन्द्रिय के बीच का क्षेत्र) को ऊपर की ओर खींचे रखना मूलबन्ध कहलाता है। गुदा को संकुचित करने से अपान स्थिर रहता है। वीर्य का अधः प्रभाव रुककर स्थिरता आती है। प्राण की अधोगति रुककर ऊर्ध्व गति होती है। मूलाधार स्थित कुण्डलिनी में मूलबन्ध से चैतन्यता उत्पन्न होती है। आँतें बलवान् होती हैं। मलावरोध नहीं होता, रक्त सच्चार की गति ठीक रहती है। अपान और कूर्म दोनों पर ही मूलबन्ध का प्रभाव पड़ता है। वे जिन तन्तुओं में फैले रहते हैं, उनका संकुचन होने से यह बिखराव एक केन्द्र में एकत्रित होने लगता है।

- उड्डियान बन्ध


पेट को ऊपर की ओर जितना खींचा जा सके, उतना खींच कर उसे पीछे की ओर पीठ में चिपका देने का प्रयत्न इस बन्ध में किया जाता है। इससे मृत्यु पर विजय होती है। जीवनी शक्ति को बढ़ाकर दीर्घायु तक जीवन स्थिर रखने का लाभ उड्डियान से मिलता है। आँतों की निष्क्रियता दूर होती है। आंत्रपुच्छ, जलोदर, पाण्डु, यकृत वृद्धि, बहुमूत्र सरीखे उदर तथा मूत्राशय के रोगों में इस बन्ध से बड़ा लाभ होता है। नाभि स्थित समान और कृकल प्राणों में स्थिरता तथा वात, पित्त, कफ की शुद्धि होती है। सुषुम्रा नाड़ी का द्वार खुलता है और स्वाधिष्ठान चक्र में चेतना आने से वह स्वल्प श्रम से ही जाग्रत् होने योग्य हो जाता है।

सावधानियाँ- आँतों की सूजन, आमाशय या आँतों के फोड़े, हर्निया, आँख के अन्दर की बीमारी ग्लूकोमा, हृदय रोगी, उच्च रक्तचाप रोगी एवं गर्भवती महिलाएँ न करें।

- जालन्धर बन्ध

मस्तक को झुकाकर ठोड़ी को कण्ठ- कूप (कण्ठ में पसलियों के जोड़ पर जो गड्ढा है, उसे कण्ठ -कूप कहते हैं) अथवा छाती से लगाने को जालन्धर बन्ध कहते हैं। हठयोग में बताया गया है कि इस बन्ध का सोलह स्थान की नाड़ियों पर प्रभाव पड़ता है।
१. पादाङ्गुष्ठ, २. गुल्फ, ३. घुटने, ४. जंघा, ५. सीवनी, ६. लिंग, ७. नाभि, ८. हृदय, ९. ग्रीवा, १०. कण्ठ, ११. लम्बिका, १२. नासिका, १३. भ्रू, १४. कपाल, १५. मूर्धा, १६. ब्रह्मरन्ध्र

यह सोलह स्थान जालन्धर बन्ध के प्रभाव क्षेत्र हैं। जालन्धर बन्ध से श्वास- प्रश्वास क्रिया पर अधिकार होता है। ज्ञानतन्तु बलवान् होते हैं। विशुद्धि चक्र के जागरण में जालन्धर बन्ध से बड़ी सहायता मिलती है।

सावधानियाँ- सर्वाइकल स्पाण्डिलाइटिस, उच्च रक्तचाप, हृदय रोगी न करें।

अश्विनी मुद्रा

यह मूल बन्ध की प्रारम्भिक क्रिया है। गुदा को संकुचित कीजिए, पुनः उसको मुक्त कीजिए। गुदा को सिकोड़ने एवं छोड़ने की क्रिया ही अश्विनी मुद्रा कहलाती है। इससे गुदा की पेशियाँ मजबूत होती हैं। मलाशय सम्बन्धी दोषों जैसे- कब्ज, बवासीर और गर्भाशय या मलाशय भ्रंश को दूर करती है। प्राण शक्ति का क्षरण रोककर आध्यात्मिक प्रगति हेतु ऊपर की ओर दिशान्तरित कर देती है।


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