गायत्रीपुरश्चरण

गायत्री पुरश्चरण की पृष्ठभूमि यह मानव शरीर सुर दुर्लभ है। ८४ लाख योनियों में भ्रमण करने के पश्चात् लाखों वर्ष बाद यह प्राप्त होता है। एक बार इसे व्यर्थ गँवा देने के पश्चात् लाखों वर्ष बाद ही फिर ऐसा अवसर आने की सम्भावना होती है ।। इसलिए दूरदर्शी और विवेकशील लोग इसे इन्द्रिय विषयों और तृष्णा जंजाल में फँसकर इस जीवन रूपी बहुमूल्य सम्पत्ति को व्यर्थ नष्ट करने की अपेक्षा आत्म- कल्याण की बात ही सोचते हैं और उसी में अपनी भावना एवं शक्ति का अधिकाधिक उपयोग करने का प्रयत्न करते हैं। शास्त्रकारों ने पग- पग पर मनुष्य को यही शिक्षा दी है कि इन अमूल्य क्षणों को बाल- क्रीड़ा में- शरीर की गुलामी में बर्बाद न करके अनन्त काल स्थिर रहने वाली सद्गति को उपलब्ध करने में ध्यान दिया जाय। इसी में उसका सच्चा हित, स्वार्थ, लाभ एवं कल्याण सन्निहित है। इस आत्मकल्याण की साधना को योग कहते हैं। योग साधना द्वारा मनुष्य अपना वास्तविक स्वरूप तथा जीवन का लक्ष्य समझ सकता है। परमात्मा को प्राप्त कर सकता है और जो कुछ इस संसार में प्राप्त करने योग्य है उसे प्राप्त कर सकता है। कहा गया है कि- आत्मा

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